संगीतमय श्रीरामचरितमानस श्रृंखला बालकाण्ड दोहा : 211 से 215। अहल्या उद्धार। पं. राहुल पाण्डेय

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  • เผยแพร่เมื่อ 2 ก.ค. 2024
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    श्रीरामचरितमानस श्रृंखला बालकाण्ड दोहा : 211 से 215। अहल्या उद्धार। श्री राम लक्ष्मण साथ में विश्वामित्र जी का जनकपुरी में प्रवेश। पं. राहुल पाण्डेय
    छंद- परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
    देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥
    अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
    अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥
    धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।
    अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥
    मै नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।
    राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई॥
    मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।
    देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना॥
    बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।
    पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥
    जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।
    सोइ पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥
    एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
    जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी॥
    दोहा- अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल।
    तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल॥२११॥
    मासपारायण, सातवाँ विश्राम
    चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा॥
    गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥
    तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए॥
    हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया॥
    पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी॥
    बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना॥
    गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा। कूजत कल बहुबरन बिहंगा॥
    बरन बरन बिकसे बन जाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥
    दोहा- सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास।
    फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥२१२॥
    बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥
    चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥
    धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठ सकल बस्तु लै नाना॥
    चौहट सुंदर गलीं सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई॥
    मंगलमय मंदिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥
    पुर नर नारि सुभग सुचि संता। धरमसील ग्यानी गुनवंता॥
    अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥
    होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी॥
    दोहा- धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति।
    सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति॥२१३॥
    सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा॥
    बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रथ संकुल सब काला॥
    सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे॥
    पुर बाहेर सर सारित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा॥
    देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई॥
    कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना॥
    भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनिबृंद समेता॥
    बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए॥
    दोहा- संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति।
    चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति॥२१४॥
    कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥
    बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥
    कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा॥
    तेहि अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई॥
    स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा॥
    उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए॥
    भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता॥
    मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥
    दोहा- प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर।
    बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥२१५॥
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