श्रीरामचरितमानस श्रृंखला बालकाण्ड दोहा : 236 से 240। पं. राहुल पाण्डेय

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  • เผยแพร่เมื่อ 5 ต.ค. 2024
  • जय श्री राम 🙏
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    जय श्रीराम 🙏 मैं राहुल पाण्डेय आप लोगों के बीच रामचरितमानस की चौपाइयों का गान करने के लिए प्रस्तुत हुआ हूं और इस आशा से कि ये चौपाइयां जो महामंत्र स्वरूप हैं और जिनका गान बाबा विश्वनाथ भी करते हैं "महामंत्र सोई जपत महेसू" इनकी गूंज विश्व के कोने-कोने में सुनाई दे जिससे नकारात्मक ऊर्जा का ह्रास हो और सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो।
    मैं सोशल मीडिया के माध्यम से रामचरितमानस को जन-जन तक पहुंचाना चाहता हूं। यदि मेरा यह प्रयास सार्थक लगता है तो आशीर्वाद दीजीए । आप लोगों से करबद्ध निवेदन है कि इन चौपाइयों को यदि संभव हो सके तो साथ में बैठकर रामचरितमानस को लेकर मेरे साथ गान करें। यदि गान नहीं कर पा रहे तो इस वीडियो के माध्यम से इन चौपाइयों को बजाएं और अपने घर तथा आस पास के वातावरण में गुंजायमान होने दें। और अधिक से अधिक लोगों तक शेयर करें जिससे सभी का कल्याण हो।
    गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है "कहहि सुनहि अनुमोदन करहीं। ते गोपद ईव भव निधि तरहीं।।"
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    श्रीरामचरितमानस श्रृंखला बालकाण्ड दोहा : 236 से 240। श्री राम लक्ष्मण सहित विश्वामित्र का यज्ञशाला में प्रवेश। पं. राहुल पाण्डेय
    सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥
    देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥
    मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
    कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥
    बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥
    सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥
    सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥
    नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥
    छंद- मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
    करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥
    एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
    तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥
    सोरठा- जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
    मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥२३६॥
    हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई॥
    राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥
    सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही॥
    सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भए सुखारे॥
    करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी॥
    बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई॥
    प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥
    बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥
    दोहा- जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।
    सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥२३७॥
    घटइ बढ़इ बिरहनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥
    कोक सिकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥
    बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे॥
    सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुरु पहिं चले निसा बड़ि जानी॥
    करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा॥
    बिगत निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे॥
    उदउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता॥
    बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥
    दोहा- अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।
    जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन॥२३८॥
    नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी॥
    कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना॥
    ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे॥
    उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा॥
    रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया॥
    तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी॥
    बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने॥
    नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए॥
    सतानंदु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए॥
    जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई॥
    दोहा- सतानंद पद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।
    चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ॥२३९॥
    सीय स्वयंबरु देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई॥
    लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥
    हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी॥
    पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला॥
    रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई॥
    चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी॥
    देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी॥
    तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहू सब काहू॥
    दोहा- कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।
    उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि॥२४०॥

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