श्रीरामचरितमानस श्रृंखला बालकाण्ड दोहा : 216 से 220।राम-लखन का जनकपुरी भ्रमण। पं. राहुल पाण्डेय

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  • เผยแพร่เมื่อ 3 ก.ค. 2024
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    जय श्री राम 🙏
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    श्रीरामचरितमानस श्रृंखला बालकाण्ड दोहा : 216 से 220।राम-लखन का जनकपुरी भ्रमण। पं. राहुल पाण्डेय
    कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥
    ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥
    सहज बिरागरुप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा॥
    ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥
    इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥
    कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका॥
    ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी॥
    रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए॥
    दोहा- रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम।
    मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम॥२१६॥
    मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्राभाऊ॥
    सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥
    इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि॥
    सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥
    पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू॥
    म्रुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥
    सुंदर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला॥
    करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई॥
    दोहा- रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु।
    बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु॥२१७॥
    लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी॥
    प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥
    राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हिंयँ हुलसानी॥
    परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई॥
    नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥
    जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौ॥
    सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥
    धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥
    दोहा- जाइ देखी आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ।
    करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ॥२१८॥
    मासपारायण, आठवाँ विश्राम
    नवान्हपारायण, दूसरा विश्राम
    मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता॥
    बालक बृंदि देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा॥
    पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा॥
    तन अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी॥
    केहरि कंधर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला॥
    सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन॥
    कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं॥
    चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेखा सोभा जनु चाँकी॥
    दोहा- रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस।
    नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस॥२१९॥
    देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए॥
    धाए धाम काम सब त्यागी। मनहु रंक निधि लूटन लागी॥
    निरखि सहज सुंदर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई॥
    जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं॥
    कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती॥
    सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं॥
    बिष्नु चारि भुज बिघि मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच पुरारी॥
    अपर देउ अस कोउ न आही। यह छबि सखि पटतरिअ जाही॥
    दोहा- बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख घाम ।
    अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम॥२२०॥
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