संगीतमय श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दोहा 181 से 185, shriramcharitmanas। पं. राहुल पाण्डेय

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  • เผยแพร่เมื่อ 26 มิ.ย. 2024
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    जय श्री राम 🙏
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    संगीतमय श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दोहा 181 से 185, shriramcharitmanas।पं. राहुल पाण्डेय
    कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया॥
    दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥
    सुत समूह जन परिजन नाती। गे को पार निसाचर जाती॥
    सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी॥
    सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा॥
    ते सनमुख नहिं करही लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई॥
    तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई॥
    द्विजभोजन मख होम सराधा॥सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा॥
    दोहा- छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ।
    तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ॥१८१॥
    मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा। दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़ावा॥
    जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥
    तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी॥
    एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥
    चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्त्रवहिं सुर रवनी॥
    रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥
    दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥
    पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥
    रन मद मत्त फिरइ जग धावा। प्रतिभट खौजत कतहुँ न पावा॥
    रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी॥
    किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहिं लागा॥
    ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी॥
    आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता॥
    दोहा- भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र।
    मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र॥१८२(ख)॥
    देव जच्छ गंधर्व नर किंनर नाग कुमारि।
    जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि॥१८२ख॥
    इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ॥
    प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥
    देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी॥
    करहि उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया॥
    जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला॥
    जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥
    सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरू मान न कोई॥
    नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना॥
    छंद- जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।
    आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा॥
    अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना।
    तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना॥
    सोरठा- बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं।
    हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति॥१८३॥
    मासपारायण, छठा विश्राम
    बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥
    मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥
    जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥
    अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥
    गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही॥
    सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता॥
    धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥
    निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई॥
    छंद- सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका।
    सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका॥
    ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई।
    जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई॥
    सोरठा- धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरिपद सुमिरु।
    जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति॥१८४॥
    बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥
    पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥
    जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥
    तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ॥
    हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
    देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥
    अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥
    मोर बचन सब के मन माना। साधु साधु करि ब्रह्म बखाना॥
    दोहा- सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।
    अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥१८५॥
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