संगीतमय श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दोहा 186 से 190, shriramcharitmanas।पं. राहुल पाण्डेय

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  • เผยแพร่เมื่อ 27 มิ.ย. 2024
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    जय श्री राम 🙏
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    संगीतमय श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दोहा 186 से 190, shriramcharitmanas।पं. राहुल पाण्डेय
    छंद- जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
    गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता॥
    पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
    जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥
    जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।
    अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥
    जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा।
    निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥
    जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।
    सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥
    जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।
    मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा॥
    सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहि जाना।
    जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना॥
    भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा।
    मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा॥
    दोहा- जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह।
    गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥१८६॥
    जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥
    अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥
    कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥
    ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा॥
    तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥
    नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ॥
    हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई॥
    गगन ब्रह्मबानी सुनी काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना॥
    तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोस जियँ आवा॥
    दोहा- निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ।
    बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ॥१८७॥
    गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा ।
    जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलंब न कीन्हा॥
    बनचर देह धरि छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं॥
    गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा॥
    गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी॥
    यह सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा॥
    अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ॥
    धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति मति सारँगपानी॥
    दोहा- कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।
    पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत॥१८८॥
    एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
    गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥
    निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ॥
    धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥
    सृंगी रिषहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा॥
    भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥
    जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा॥
    यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई॥
    दोहा- तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ॥
    परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ॥१८९॥
    तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आई॥
    अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥
    कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ॥
    कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥
    एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख भारी॥
    जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख संपति छाए॥
    मंदिर महँ सब राजहिं रानी। सोभा सील तेज की खानीं॥
    सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ॥
    दोहा- जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
    चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥१९०॥
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