संगीतमय श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दोहा 171 से 175, sriramcharitmanas। पं. राहुल पाण्डेय

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  • เผยแพร่เมื่อ 2 ต.ค. 2024
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    संगीतमय श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दोहा 171 से 175, sriramcharitmanas। पं. राहुल पाण्डेय
    राजा प्रताप भानु की कथा जारी...
    तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी॥
    मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥
    अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा॥
    परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई॥
    कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथे दिवस मिलब मैं आई॥
    तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी॥
    भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता॥
    नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई॥
    दोहा- राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि।
    लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि॥१७१॥
    आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥
    जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना॥
    मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहि जेहि जान न रानी॥
    कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं॥
    गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा॥
    उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोकि सुमिरि सोइ काजा॥
    जुग सम नृपहि गए दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी॥
    समय जानि उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा॥
    दोहा- नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत।
    बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत॥१७२॥
    उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई॥
    मायामय तेहिं कीन्ह रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई॥
    बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा॥
    भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए॥
    परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला॥
    बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू॥
    भयउ रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू॥
    भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस आव मुख बानी॥
    दोहा- बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।
    जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार॥१७३॥
    छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥
    ईस्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥
    संबत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥
    नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा॥
    बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा॥
    चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥
    तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा॥
    सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई॥
    दोहा- भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर।
    किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर॥१७४॥
    अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए॥
    सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिचरत हंस काग किय जेहीं॥
    उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि जनाई॥
    तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए॥
    घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होई लराई॥
    जूझे सकल सुभट करि करनी। बंधु समेत परेउ नृप धरनी॥
    सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा॥
    रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई॥
    दोहा- भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ बिधाता बाम।
    धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम॥।१७५॥
    जय श्री राम 🙏
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