संगीतमय श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दोहा 201 से 205, shriramcharitmanas।पं. राहुल पाण्डेय

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  • เผยแพร่เมื่อ 30 มิ.ย. 2024
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    जय श्री राम 🙏
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    संगीतमय श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दोहा 201 से 205, shriramcharitmanas।पं. राहुल पाण्डेय
    एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए॥
    निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना॥
    करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा॥
    बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई॥
    गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता॥
    बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न होई॥
    इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा॥
    देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी॥
    दोहा- देखरावा मातहि निज अदभुत रुप अखंड।
    रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड॥२०१॥
    अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन॥
    काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥
    देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी॥
    देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥
    तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा॥
    बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी॥
    अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना॥
    हरि जननि बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥
    दोहा- बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि॥
    अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि॥२०२॥
    बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा॥
    कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई॥
    चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई॥
    परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥
    मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई॥
    भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥
    कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमकु ठुमकु प्रभु चलहिं पराई॥
    निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा॥
    धूरस धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए॥
    दोहा- भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।
    भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ॥२०३॥
    बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए॥
    जिन कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता॥
    भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥
    गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥
    जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥
    बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिं खेल सकल नृपलीला॥
    करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा॥
    जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई॥
    दोहा- कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल।
    प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल॥२०४॥
    बंधु सखा संग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई॥
    पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी॥
    जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे॥
    अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं॥
    जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा॥
    बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥
    प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥
    आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥
    दोहा- ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।
    भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥२०५॥
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