संगीतमय श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दोहा 156 से 160, ramcharitmanas। पं. राहुल पाण्डेय

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  • เผยแพร่เมื่อ 21 มิ.ย. 2024
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    संगीतमय श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दोहा 156 से 160, राजा प्रताप भानु की कथा जारी....
    Sri ramcharitmanas। पं. राहुल पाण्डेय
    हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥
    करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥
    चढ़ि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा॥
    बिंध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥
    फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू॥
    बड़ बिधु नहि समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोधबस उगिलत नाहीं॥
    कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई॥
    घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ॥
    दोहा- नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु।
    चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु॥१५६॥
    आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी॥
    तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥
    तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा॥
    प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ संग लागा॥
    गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू॥
    अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ नरेसू॥
    कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा॥
    अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई॥
    दोहा- खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत।
    खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत॥१५७॥
    फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा॥
    जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई॥
    समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी॥
    गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी॥
    रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें साजा॥
    तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा॥
    राउ तृषित नहि सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना॥
    उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा॥
    दो० भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ।
    मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ॥१५८॥
    गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ॥
    आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥
    को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुंदर जुबा जीव परहेलें॥
    चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें॥
    नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा॥
    फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बडे भाग देखउँ पद आई॥
    हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा॥
    कह मुनि तात भयउ अँधियारा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा॥
    दोहा- निसा घोर गम्भीर बन पंथ न सुनहु सुजान।
    बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान॥१५९(क)॥
    तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।
    आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ॥१५९(ख)॥
    भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा॥
    नृप बहु भाति प्रसंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य सराही॥
    पुनि बोले मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई॥
    मोहि मुनिस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी॥
    तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुह्रद सो कपट सयाना॥
    बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा॥
    समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ छाती॥
    सरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना॥
    दोहा- कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत।
    नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेति॥१६०॥
    जय श्री राम 🙏
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