संगीतमय श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दोहा 126 से 130, ramcharitmanas। पं. राहुल पाण्डेय

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  • เผยแพร่เมื่อ 15 มิ.ย. 2024
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    संगीतमय श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दोहा 126 से 130, ramcharitmanas। पं. राहुल पाण्डेय
    तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥
    कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा॥
    चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥
    रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना॥
    करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतंगा॥
    देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥
    काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥
    सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु। बड़ रखवार रमापति जासू॥
    दोहा- सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।
    गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥१२६॥
    भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥
    नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥
    मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥
    सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥
    तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥
    मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥
    बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं। जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं॥
    तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ॥
    दोहा-
    संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
    भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥१२७॥
    राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
    संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥
    एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
    छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥
    हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥
    बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥
    काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥
    अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥
    दोहा- रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान ।
    तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥१२८॥
    सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके॥
    ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥
    नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥
    करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥
    बेगि सो मै डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥
    मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मै सोई॥
    तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥
    श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥
    दोहा- बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।
    श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥१२९॥
    बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥
    तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥
    सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥
    बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥
    सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥
    करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥
    मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥
    सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥
    दोहा- आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।
    कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥१३०॥
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