संगीतमय श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दोहा 131 से 135, ramcharitmanas। पं. राहुल पाण्डेय

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  • เผยแพร่เมื่อ 16 มิ.ย. 2024
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    संगीतमय श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दोहा 131 से 135, ramcharitmanas। पं. राहुल पाण्डेय
    देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥
    लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥
    जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई॥
    सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥
    लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥
    सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥
    करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥
    जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥
    दोहा- एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।
    जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥१३१॥
    हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥
    मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥
    बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥
    प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥
    अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥
    आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥
    जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
    निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥
    दोहा- जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
    सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥१३२॥
    कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
    एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥
    माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥
    गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥
    निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥
    मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें॥
    मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥
    सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥
    दोहा- रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
    बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥१३३॥
    जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥
    तहँ बैठ महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥
    करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥
    रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥
    मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥
    जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥
    काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥
    मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥
    दोहा- सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।
    देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥१३४॥
    जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि देहि न बिलोकी भूली॥
    पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं॥
    धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥
    दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥
    मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥
    तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥
    अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥
    बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥
    दोहा- होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
    हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥१३५॥
    जय श्री राम 🙏
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