संगीतमय श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दोहा 146 से 150, ramcharitmanas। पं. राहुल पाण्डेय

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  • เผยแพร่เมื่อ 30 ก.ย. 2024
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    संगीतमय श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दोहा 146 से 150, ramcharitmanas। पं. राहुल पाण्डेय
    सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥
    सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥
    जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू॥
    जो सरूप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीं॥
    जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥
    देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥
    दंपति बचन परम प्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥
    भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥
    दोहा- नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।
    लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥१४६॥
    सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥
    अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥
    नव अबुंज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी की॥
    भुकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥
    कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥
    उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥
    केहरि कंधर चारु जनेउ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥
    करि कर सरि सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा॥
    दोहा- तडित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि॥
    नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि॥१४७॥
    पद राजीव बरनि नहि जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥
    बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥
    जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥
    भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई॥
    छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥
    चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥
    हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥
    सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥
    दोहा- बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
    मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥१४८॥
    सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥
    नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥
    एक लालसा बड़ि उर माही। सुगम अगम कहि जात सो नाहीं॥
    तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥
    जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥
    तासु प्रभा जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥
    सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥
    सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥
    दोहा- दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ॥
    चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥१४९॥
    देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
    आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥
    सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरे॥
    जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥
    प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥
    तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥
    अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥
    जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥
    दोहा- सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु॥
    सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥१५०॥
    जय श्री राम 🙏
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