सेवा त्याग प्रेम 41(B)- Swami Sri Sharnanand Ji Maharaj

แชร์
ฝัง
  • เผยแพร่เมื่อ 25 ต.ค. 2024
  • Swami Sri Sharnanand Ji Maharaj's Discourse in Hindi
    स्वामी श्रीशरणानन्दजी महाराज जी का प्रवचन
    Swami Sri Sharnanand Ji Maharaj's Discourse in Hindi
    स्वामी श्रीशरणानन्दजी महाराज जी का प्रवचन
    मानवमात्र जन्मजात साधक है और सत्संगी होकर साधननिष्ठ हो सकता है। सत्संगी होने के लिए अपनी माँग का ठीक-ठीक अनुभव करना आवश्यक है। हमारी माँग क्या है? हमें अविनाशी, स्वाधीन और रसरूप जीवन चाहिए। इसके लिए करना क्या है? सबसे पहले सेवा करना है। सेवा हमारा साधन है और स्वाधीन, अविनाशी, रसरूप जीवन साध्य है। सेवा किसकी करनी है? भाई, निकटवर्ती जन-समाज की सेवा करनी है, प्रिय जनों की सेवा करनी है।
    सबसे बड़ी सेवा क्या है? मेरे जानते, किसी को बुरा न समझना सबसे बड़ी सेवा है। जो किसी को बुरा नहीं समझता, उसमें अशुद्ध संकल्प उत्पन्न नहीं होते और बुरे संकल्प नाश हो जाते हैं। जब बुरे संकल्प नाश हो जाते हैं, तब अपने आप शुद्ध संकल्प पूरे हो जाते हैं। तब समझना चाहिए कि सेवा का क्रियात्मक रूप आरम्भ हो गया।
    शुद्ध संकल्प का मतलब क्या है? सबका भला चाहना, सबका हित चाहना। ऐसे सेवक सभी का विकास चाहते हैं। यहाँ से सेवा आरम्भ होती है और उसका अन्त कहाँ होता है? सेवा का अन्त त्याग में होता है। सेवा करने से त्याग का बल आ जाता है। जिसने विधिवत् सेवा की है, उसमें त्याग का बल अवश्य आ जाता है। बहुत से लोग सोचते हैं कि अपने परिवार या देश की सेवा करेंगे, तो मोह में फँस जाएँगे। यह बिल्कुल गलत बात है। सेवा करने से मोह का नाश होता है और प्यार पुष्ट होता है। सेवा करने से कोई फँसता नहीं है।
    हाँ, एक बात अवश्य है कि यदि सेवक कहलाने की कामना रहेगी अथवा सेवा के बदले में मान और भोग पसन्द करोगे, तो फँसे हुए हो ही। लेकिन यदि बच्चों और परिवार के मोह से रहित होना हो, तो उनकी सेवा करो। उनसे सुख मत लो, सुख की आशा मत करो। सेवा करने से विद्यमान राग की निवृत्ति हो जाती है। जो राग पहले से मौजूद है वह सेवा करने से नाश हो जाता है।
    आज हम इस बात को मानें, न मानें; लेकिन जिसको जो कुछ मिला है-जैसा पति मिला है, जैसी सन्तान मिली है, जैसा भाई मिला है, जैसा परिवार मिला है-वह सब विद्यमान राग का ही परिणाम है। विद्यमान राग की निवृत्ति सेवा करने से ही होती है। लेकिन कब होती है? जब सेवा करने पर भी सेवक कहलाने तक की रुचि न हो, उसका फल पाने की रुचि न हो। जो अपना अधिकार छोड़कर दूसरों के अधिकार की रक्षा करता है, वही सेवक है। यही है धर्म-विज्ञान। धर्म भी एक साइंस है। कैसे? भाई, दूसरों के अधिकार की रक्षा करो और अपने अधिकार का त्याग करो। यह हर भाई, हर बहन के लिए जरूरी है।
    #SharnanandJi #manavsevasangh #karnal

ความคิดเห็น •