श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 28 उच्चारण | Bhagavad Geeta Chapter 6 Verse 28

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  • เผยแพร่เมื่อ 31 พ.ค. 2024
  • 🌹ॐ श्रीपरमात्मने नमः🌹
    अथ षष्ठोऽध्यायः
    युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः।
    सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यनतं सुखमश्नुते॥28॥
    युञ्जन्=लगाता हुआ, एवम्= इस प्रकार,सदा=निरन्तर, आत्मानम्=अपने आप को, योगी=योगी,विगतकल्मषः= पाप रहित, सुखेन=सुखपूर्वक,
    ब्रह्मसंस्पर्शम्= परब्रह्म की प्राप्ति रूप,अत्यन्तम्=अनन्त, सुखम्=सुख का,अश्नुते= अनुभव कर लेता है।
    भावार्थ- इस प्रकार अपने आप को निरन्तर परमात्मा में लगाता हुआ पाप रहित योगी
    सुखपूर्वक परब्रह्म प्राप्ति रूप अनन्त सुख का अनुभव कर लेता है।
    व्याख्या--
    "युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः"-
    अब यह योगी इस प्रकार स्वयं को चारों ओर से निश्चय पूर्वक बिना उकताए परमात्मा के साथ जोड़कर विगतकल्मष हो गया है। पिछले श्लोक में 'अकल्मष' शब्द आया यानि कोई कल्मष या बुराई बची ही नहीं, पहले मन में थोड़े प्रमाण में भी विकार थे,वह भी निकल गए।अब यहाँ 'विगतकल्मष' शब्द आया है यानि 'गत हो गए हैं जिसके कल्मष'।
    'विगतकल्मष' का अर्थ है कि सारी बुराइयों,विकारों के निकलने के बाद भी एक छोटा सा कल्मष बचता ही है। कौन सा कल्मष है वह?
    "अहम् और मम"
    अहंता और ममता रूप कल्मष से अर्थात् संसार से सर्वथा संबंध विच्छेद करके...
    "सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते"-
    परम ब्रह्म की प्राप्ति रूप अनंत सुख प्राप्त करता है। अब वह
    अपने ध्येय परमात्मा में स्थित हो गया। एक विलक्षण अद्भुत अनोखा सबसे परे जो सुख है उस सुख को वह अनायास ही प्राप्त करता है।
    'ब्रह्मसंस्पर्शम्' का तात्पर्य है कि अनुभव करने वाला और अनुभव में आने वाला ये दो नहीं रहते,एक हो जाते हैं।
    ब्रह्मतत्त्व के साथ अभिन्नता हो जाती है। उसमें 'मैं' पन का संस्कार नहीं रहता।
    यह अत्यन्त सुख ही "अक्षय सुख" (५/२१)और आत्यंतिक सुख (६/२१) है। ये एक ही परमात्मतत्त्व रूप के वाचक हैं।
    विशेष-
    अपनी स्थिति के लिए मन को बार बार लगाना यह अभ्यास यहाँ कर नहीं रहा है,यहाँ तो अब अपने स्वरूप में अपने आप को दृढ़ रखना ही अभ्यास है। इस प्रकार के अभ्यास से यह योगी अहंता और ममता से रहित हो जाता है।
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ความคิดเห็น • 1

  • @satishkgoyal
    @satishkgoyal หลายเดือนก่อน

    जय श्री कृष्ण।