श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 44 उच्चारण | Bhagavad Geeta Chapter 6 Verse 44
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- เผยแพร่เมื่อ 17 มิ.ย. 2024
- 🌹ॐ श्रीपरमात्मने नमः 🌹
अथ षष्ठोऽध्यायः
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते॥44॥
पूर्वाभ्यासेन=पहले किए हुए अभ्यास के कारण,तेन= उस, एव=ही, ह्रियते= मानसिक रूप से खींचा जाता है, हि= निःसन्देह, अवशः=परवश होता हुआ,अपि =भी, सः=वह, जिज्ञासुः=जिज्ञासु,अपि=भी, योगस्य= समबुद्धि रूप योग का,शब्दब्रह्म=वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों का,अतिवर्तते =उल्लंघन कर जाता है।
भावार्थ- वह श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट मनुष्य परवश होता हुआ भी उस पहले मनुष्य जन्म में किए हुए अभ्यास के कारण निःसंदेह परमात्मा की ओर मानसिक रूप से खींचा जाता है क्योंकि समबुद्धि रूप योग का जिज्ञासु भी वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों का उल्लंघन कर जाता है।
व्याख्या--
भगवान् कहते हैं कि योगियों के कुल में जन्म लेने वाले योगभ्रष्ट को जैसी साधन सुविधा मिलती है,जैसा वातावरण,संग और शिक्षा मिलती है; वैसी साधन की सुविधा श्रीमन्तों के घर में जन्म लेने वालों को नहीं मिलती। परंतु
"पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः"-
उसका जो पूर्व साधन का अभ्यास था,जो योग साधना उसने पूर्वजन्म में की थी उसके बल पर,उन संस्कारों के कारण उसकी बुद्धि में वही चिंतन की प्रक्रिया चालू है। इसके कारण वह अवश है,बेबस है; वह परमात्मा की तरफ जबरदस्ती खिंच जाता है। पूर्वजन्म के संस्कार उस व्यक्ति को उस दिशा में खींच कर ले जाते हैं, उसको पता भी नहीं चलता कि मुझे यह क्यों हो रहा है।
"जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते"-
जो योग का जिज्ञासु है, भगवान् के साथ एक होने के लिए ही जिसकी सारी साधना, सारे प्रयास हैं- ऐसा जो है,वह इस जिज्ञासु अवस्था में भी शब्दब्रह्म के पार चला जाता है।
शब्दब्रह्म कहते हैं वेदों में कहे गए सकाम कर्मों को। वेद में तीन काण्ड हैं- कर्मकाण्ड, उपासना काण्ड और ज्ञान काण्ड। पूर्वजन्म में व्यवस्थित अभ्यास कर लिया और बीच में ही शरीर छूट गया तो बाल्यकाल से ही भगवत् प्रवृत्त होकर वह कुछ ही दिनों में कर्मकाण्ड को लाॅंघ देता है। वह कर्म में नहीं फॅंसता क्योंकि संपूर्ण कर्मकाण्ड का उद्देश्य चित्त की शुद्धि है और यह उसको प्राप्त ही है। कर्म तो करेगा लेकिन कामना का भाव नहीं रहेगा। साधारण लोगों की तरह भोग और संग्रह को महत्व नहीं देता। अब पूर्वजन्म में जो कुछ थोड़ा सा साधन रह गया था, उसमें स्थिर हो जाता है।
विशेष-
पूर्व अभ्यास के कारण हम उन संस्कारों के अवश हो जाते हैं। कई बार समझ में नहीं आता कि हमारा मन प्रवचन की ओर झुकता है, सब लोग पिक्चर देखते हैं,संगीत सुनते हैं। एक उम्र तक अच्छा लगता था,अब मन क्यों नहीं जाता उधर? इसका व्यक्ति के पास कोई तर्क नहीं है।
इस अध्याय के शुरू में शब्द आया "योगारुढ़"। वहाँ पर भी भगवान् ने यही बताया कि योगारुढ़ की स्थिति आने तक कर्म आवश्यक है परन्तु जब एक बार योगारुढ़ हो गया तो फिर कर्मों की उतनी आवश्यकता नहीं रहती।सकाम कर्मों की कामना बचती ही नहीं। कामना ही नहीं बची तो कर्म भी नहीं होगा मगर समष्टि के लिए तो कर्म करने ही हैं।भगवान् कहते हैं कि उसके पतन की कोई शंका ही नहीं है।वह योग में प्रवृत्त हो चुका है अतः उसका तो अवश्य ही उद्धार होगा।
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जय श्री कृष्ण।