संगीतमय श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दोहा 91 से 95, ramcharitmanas। पं. राहुल पाण्डेय

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  • เผยแพร่เมื่อ 8 มิ.ย. 2024
  • संगीतमय श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दोहा 91 से 95, ramcharitmanas। पं. राहुल पाण्डेय
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    जय श्रीराम 🙏 मैं राहुल पाण्डेय आप लोगों के बीच रामचरितमानस की चौपाइयों का गान करने के लिए प्रस्तुत हुआ हूं और इस आशा से कि ये चौपाइयां जो महामंत्र स्वरूप हैं और जिनका गान बाबा विश्वनाथ भी करते हैं "महामंत्र सोई जपत महेसू" इनकी गूंज विश्व के कोने-कोने में सुनाई दे जिससे नकारात्मक ऊर्जा का ह्रास हो और सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो।
    मैं सोशल मीडिया के माध्यम से रामचरितमानस को जन-जन तक पहुंचाना चाहता हूं। यदि मेरा यह प्रयास सार्थक लगता है तो आशीर्वाद दीजीए । आप लोगों से करबद्ध निवेदन है कि इन चौपाइयों को यदि संभव हो सके तो साथ में बैठकर रामचरितमानस को लेकर मेरे साथ गान करें। यदि गान नहीं कर पा रहे तो इस वीडियो के माध्यम से इन चौपाइयों को बजाएं और अपने घर तथा आस पास के वातावरण में गुंजायमान होने दें। और अधिक से अधिक लोगों तक शेयर करें जिससे सभी का कल्याण हो।
    गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है "कहहि सुनहि अनुमोदन करहीं। ते गोपद ईव भव निधि तरहीं।।"
    सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा॥
    बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना॥
    हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई॥
    सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई॥
    पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही॥
    जाइ बिधिहि दीन्हि सो पाती। बाचत प्रीति न हृदयँ समाती॥
    लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई॥
    सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे॥
    दोहा- लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।
    होहि सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान॥९१॥
    सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
    कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥
    ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥
    गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥
    कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥
    देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥
    बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता। चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता॥
    सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥
    दोहा- बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।
    बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥९२॥
    बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई॥
    बिष्नु बचन सुनि सुर मुसकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥
    मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥
    अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥
    सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥
    नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा॥
    कोउ मुखहीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥
    बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥
    छंद- तन खीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।
    भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें॥
    खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।
    बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥
    सोरठा- नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब।
    देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि॥९३॥
    जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥
    इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥
    सैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं॥
    बन सागर सब नदीं तलावा। हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा॥
    कामरूप सुंदर तन धारी। सहित समाज सहित बर नारी॥
    गए सकल तुहिनाचल गेहा। गावहिं मंगल सहित सनेहा॥
    प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए॥
    पुर सोभा अवलोकि सुहाई। लागइ लघु बिरंचि निपुनाई॥
    छंद- लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।
    बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही॥
    मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं॥
    बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं॥
    दोहा- जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ।
    रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ॥९४॥
    नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई॥
    करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥
    हियँ हरषे सुर सेन निहारी। हरिहि देखि अति भए सुखारी॥
    सिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे॥
    धरि धीरजु तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने॥
    गएँ भवन पूछहिं पितु माता। कहहिं बचन भय कंपित गाता॥
    कहिअ काह कहि जाइ न बाता। जम कर धार किधौं बरिआता॥
    बरु बौराह बसहँ असवारा। ब्याल कपाल बिभूषन छारा॥
    छंद- तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा।
    सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा॥
    जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही।
    देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही॥
    दोहा- समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं।
    बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं॥९५॥
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