संगीतमय श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दोहा 96 से 100, ramcharitmanas। पं. राहुल पाण्डेय

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  • เผยแพร่เมื่อ 2 ต.ค. 2024
  • संगीतमय श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दोहा 96 से 100, ramcharitmanas। पं. राहुल पाण्डेय
    जय श्रीराम 🙏 मैं राहुल पाण्डेय आप लोगों के बीच रामचरितमानस की चौपाइयों का गान करने के लिए प्रस्तुत हुआ हूं और इस आशा से कि ये चौपाइयां जो महामंत्र स्वरूप हैं और जिनका गान बाबा विश्वनाथ भी करते हैं "महामंत्र सोई जपत महेसू" इनकी गूंज विश्व के कोने-कोने में सुनाई दे जिससे नकारात्मक ऊर्जा का ह्रास हो और सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो।
    मैं सोशल मीडिया के माध्यम से रामचरितमानस को जन-जन तक पहुंचाना चाहता हूं। यदि मेरा यह प्रयास सार्थक लगता है तो आशीर्वाद दीजीए । आप लोगों से करबद्ध निवेदन है कि इन चौपाइयों को यदि संभव हो सके तो साथ में बैठकर रामचरितमानस को लेकर मेरे साथ गान करें। यदि गान नहीं कर पा रहे तो इस वीडियो के माध्यम से इन चौपाइयों को बजाएं और अपने घर तथा आस पास के वातावरण में गुंजायमान होने दें। और अधिक से अधिक लोगों तक शेयर करें जिससे सभी का कल्याण हो।
    गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है "कहहि सुनहि अनुमोदन करहीं। ते गोपद ईव भव निधि तरहीं।।"
    लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए॥
    मैनाँ सुभ आरती सँवारी। संग सुमंगल गावहिं नारी॥
    कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥
    बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा॥
    भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गए महेसु जहाँ जनवासा॥
    मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी। लीन्ही बोलि गिरीसकुमारी॥
    अधिक सनेहँ गोद बैठारी। स्याम सरोज नयन भरे बारी॥
    जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा। तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा॥
    छंद- कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई।
    जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई॥
    तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं॥
    घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं॥
    दोहा- भई बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि।
    करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि॥९६॥
    नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥
    अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लगि तपु कीन्हा॥
    साचेहुँ उन्ह के मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया॥
    पर घर घालक लाज न भीरा। बाझँ कि जान प्रसव कैं पीरा॥
    जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी॥
    अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥
    करम लिखा जौ बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू॥
    तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका॥
    छंद- जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं।
    दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं॥
    सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं॥
    बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं॥
    दोहा- तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत।
    समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत॥९७॥
    तब नारद सबहि समुझावा। पूरुब कथाप्रसंगु सुनावा॥
    मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी॥
    अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि। सदा संभु अरधंग निवासिनि॥
    जग संभव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि॥
    जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई। नामु सती सुंदर तनु पाई॥
    तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं॥
    एक बार आवत सिव संगा। देखेउ रघुकुल कमल पतंगा॥
    भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा॥
    छंद- सिय बेषु सती जो कीन्ह तेहि अपराध संकर परिहरीं।
    हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं॥
    अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया।
    अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकर प्रिया॥
    दोहा- सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद।
    छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद॥९८॥
    तब मयना हिमवंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे॥
    नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥
    लगे होन पुर मंगलगाना। सजे सबहि हाटक घट नाना॥
    भाँति अनेक भई जेवराना। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥
    सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥
    सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरंचि देव सब जाती॥
    बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा॥
    नारिबृंद सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी॥
    छंद- गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं।
    भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥
    जेवँत जो बढ़्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो।
    अचवाँइ दीन्हे पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥
    दोहा- बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ।
    समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ॥९९॥
    बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे॥
    बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी॥
    सिंघासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरंचि बनावा॥
    बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥
    बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाई। करि सिंगारु सखीं लै आई॥
    देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥
    जगदंबिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥
    सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥
    छंद- कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा।
    सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसी कहा॥
    छबिखानि मातु भवानि गवनी मध्य मंडप सिव जहाँ॥
    अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ॥
    दोहा- मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।
    कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥१००॥
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