श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 4 उच्चारण | Bhagavad Geeta Chapter 7 Verse 4
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- เผยแพร่เมื่อ 30 ก.ย. 2024
- 🌹ॐ श्रीपरमात्मने नमः 🌹
अथ सप्तमोऽध्यायः
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥4॥
भूमिः =पृथ्वी, आपः=जल, अनलः=अग्नि (तेज), वायुः= वायु, खम्=आकाश, मनः=मन, बुद्धि=बुद्धि,एव=तथा, च= और,अहंकार=अहंकार, इति= इसप्रकार, इयम्=यह, मे=मेरी, भिन्ना=भेदों वाली, प्रकृति= प्रकृति है,अष्टधा=आठ प्रकार की।
भावार्थ- पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु, आकाश,मन,बुद्धि और अहंकार इस प्रकार से यह आठ भेदों वाली मेरी यह अष्टधा प्रकृति है।
व्याख्या--
परमात्मा सब के कारण हैं। वे जिस प्रकृति को लेकर सृष्टि की रचना करते हैं- उसका नाम "अपरा प्रकृति" है और भगवद् अंश जो जीव है- वह "परा प्रकृति" है।
परा प्रकृति श्रेष्ठ, चेतन और अपरिवर्तनशील है तथा अपरा प्रकृति निकृष्ट,जड़ और परिवर्तनशील है।
भगवान् पहले अपरा प्रकृति को समझाते हैं जो कि परिवर्तनशील है,क्षर है-
"भूमिरापोऽनलो वायुः ............... प्रकृतिरष्टधा"-
सांख्य दर्शन में दो तत्व माने गए हैं पुरुष और प्रकृति।
पुरुष- चेतन है जिसे अपना भी ज्ञान है और सामने वाले का भी ज्ञान है।
प्रकृति- अचेतन है जिसे न अपना ज्ञान है और न सामने वाले का ज्ञान है।
यहाँ पर भगवान् प्रकृति के दो स्तर दिखाते हैं,पुरुष का वर्णन यहाँ नहीं किया है।
इस श्लोक में अपरा प्रकृति का वर्णन करते हुए भगवान् कहते हैं कि यह सारा जड़ का ही वर्णन है, इस प्रपंच को जानो। यह प्रकृति प्रभु का ही एक स्वभाव है।
१.भूमि- जितने भी ठोस पदार्थ हैं यह सब भूमि तत्त्व हैं भूमि का अर्थ केवल जमीन नहीं है भूमि तत्त्व का अर्थ है "matter" पत्थर,लकड़ी,पेड़,लोहा जो कुछ ठोस पदार्थ हम देखते हैं।
आप-जल तत्त्व (रस)
अनल- तेज तत्त्व।हमारी ऑंखों में तेज है इसलिए हम देख पाते हैं।
वायु- हवा (वायु तत्त्व)
खम्- आकाश। आकाश शब्द का अर्थ जो हम करते हैं वह यहाँ नहीं होता है। आकाश का अर्थ है "space". दो पदार्थों के बीच में जो अंतर है ।
ये पंच महाभूत हैं,हमारा देह भी इन्हीं से बना है।
इन पंचमहाभूतों के साथ भगवान ने तीन बातें और जोड़ दी-
मन- संकल्पविकल्पात्मक वृत्ति है जो कभी एक जगह स्थिर नहीं रहता।
बुद्धि- जो स्थिर है,निश्चय करती है। (निश्चयात्मिका बुद्धि) अहंकार- अहम् की भावना। मैं हूँ, मेरा अस्तित्व है- यह जानना। यहाँ अहम् का अर्थ है- मैं पना (isness)
इन सबको मिलाकर भगवान् ने अष्टधा प्रकृति कहा। इसी को अपरा,अचेतन प्रकृति कहा। यह सारा दृश्य जो हम देखते हैं वह अपरा प्रकृति के अंतर्गत आता है। इस श्लोक में आठ भेदों वाली इस प्रकृति को अपरा कहा और फिर 13/5 श्लोक में इसी के विस्तार से 24 भेद बतलाए।
विशेष-
भगवान् ने यह जड़ और चेतन का विभाग बतलाने के लिए ही अपरा प्रकृति के नाम से जड़ प्रकृति का और परा प्रकृति के नाम से चेतन का वर्णन किया है। यह जड़- चेतन का विभाग है। भगवान् विज्ञान समझाऍंगे तो सारी बातें जाननी पड़ेंगी नहीं तो भगवान से वह प्रेम नहीं कर सकते जो प्रेम तत्त्व से जानने पर होता है।
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जय श्री कृष्ण।
जय श्री कृष्ण