श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 5 उच्चारण | Bhagavad Geeta Chapter 7 Verse 5

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  • เผยแพร่เมื่อ 25 มิ.ย. 2024
  • 🌹ॐ श्रीपरमात्मने नमः 🌹
    अथ सप्तमोऽध्यायः
    अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
    जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥5॥
    अपरा=अपरा, इयम्=यह,इतः =इससे (अपरा प्रकृति से), तु= और,अन्याम्=भिन्न (दूसरी को) प्रकृतिम्=प्रकृति को, विद्धि= जान,मे=मेरी,पराम्=पराअर्थात् चेतन,जीवभूताम्=जीव रूप बनी हुई,महाबाहो=हे महाबाहो! यया=जिसके द्वारा, इदम्=यह,धार्यते=धारण किया जाता है, जगत्=जगत्।
    भावार्थ- और हे महाबाहो! इस अपरा प्रकृति से भिन्न दूसरी जीव रूप बनी हुई मेरी परा (चेतन) प्रकृति को जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है।
    व्याख्या--
    पिछले श्लोक से इसका संधान है-
    "अपरा इयम्"- ये अपरा है। यहाँ वाक्य समाप्त हो गया। जो अष्टधा प्रकृति बताई गई, ये 'अपरा' है।
    "अपरेयमितस्त्वन्याम् प्रकृतिं विद्धि मे पराम्"- इस 'अपरा' से भिन्न (अलग) जो मेरी 'परा प्रकृति' है, उसको जान लो। इस स्थूल संसार का अनुभव "मैं" करता हूँ। तो यह जो "मैं"(जीवात्मा) है, इसे कहा गया है "परा प्रकृति"।
    "जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्"-
    ये जीव है, जीवभूत बतलाया है, जीव बना हुआ है। हमारे अज्ञान के कारण हम उसको जीवात्मा (जीव रूप) में देखते हैं। यह परमात्मा का ही अंश है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर रूप प्रकृति के साथ संबंध जोड़ने के कारण यह 'जीव' बना है।
    जीवभूत यानि जिसके कारण यह जगत् धारण किया जाता है।जिसके कारण जीव हर व्यक्ति में आता है।
    केवल इस परा प्रकृति (जीव) ने इसको जगत् रूप से धारण कर रखा है, जीव इसकी स्वतंत्र सत्ता मानकर अपने सुख के लिए इसका उपयोग करने लगा, इसी से जीव का बन्धन हुआ। वह इस जगत् को भगवत्स्वरूप में नहीं देख पाता।
    वास्तव में यह जगत् भगवान् का ही स्वरूप है-"वासुदेवः सर्वम्" जो इस सम्पूर्ण सृष्टि का आधार है। सारा ब्रह्माण्ड उसके कारण स्थित है। व्यष्टि, समष्टि और सृष्टि ये सब जिससे शक्ति पाकर जीवित रहते हैं- वो जो शक्ति है, मूल चैतन्य है, वह मेरी परा प्रकृति है।
    विशेष-
    भावरूप से (है) दिखने वाला यह जगत् प्रतिक्षण अभाव में जा रहा है;परन्तु जीव ने इसको भाव रूप है अर्थात् "है" रूप से धारण (स्वीकार) कर रखा है।
    ज्ञान और विज्ञान इन दोनों को जानने की आवश्यकता है।
    बाहर का यह सारा फैलाव, सृष्टि का यह सारा वैभव और इस सारे वैभव का अनुभव करने वाला मैं- ये दो साफ- साफ इसके विभाजन हैं।
    एक है- दृश्य और एक है- दृष्टा।
    दृश्य के ज्ञान को "विज्ञान" कहते हैं और दृष्टा के ज्ञान को "ज्ञान" कहते हैं।
    जो हमसे सर्वथा अलग है उस जगत् अर्थात् शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहम् के साथ अपनी एकता मान लेना, यही जगत् को धारण करना है।
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ความคิดเห็น • 2

  • @anmoljain1686
    @anmoljain1686 3 วันที่ผ่านมา

    Jai shree krishna

  • @satishkgoyal
    @satishkgoyal 3 วันที่ผ่านมา

    जय श्री कृष्ण।