जिसकी लोग उपासना कर रहे हैं वह 'ब्रह्म' नही है, वास्तविक 'ब्रह्म' और ही है | Kenopanishad | Upnishad

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  • เผยแพร่เมื่อ 11 เม.ย. 2024
  • ॐ केनेषितं पतति प्रेषितं मनः केन प्राणः प्रथमः प्रति युक्तः । केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति ॥१॥
    किसकी प्रेरणा से मन मानो विषय पर टूटा पड़ता है ? किसके द्वारा नियुक्त किया हुआ प्राण जन्मते ही पहले-पहल गति करने लगता है ? किसकी प्रेरणा से इस वाणी को हम बोलते हैं ? चक्षु और धोत्र को कौन देव अपने-अपने विषयों में नियुक्त करता है ? ॥१॥
    धोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्वाचो ह वाच स उ प्राणस्य प्राणः । चक्षुषश्चक्षुरतिमुच्य धीराः प्रत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥२॥
    हे जिज्ञासु ! श्रोत्र का वही श्रोत्र है, मन का वही मन है, वाणी को वही वाणी है, प्राण का वही प्राण है, चक्षु का वही चक्षु है। यह जानकर धीर लोग इन्द्रियों के विषयों का संग छोड़ देते हैं, और मृत्यु के अनन्तर इस लोक से अमृत हो जाते हैं ॥२॥
    न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो न विद्द्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्या- - दन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि । इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद् व्याचचक्षिरे ॥३॥
    वहां आंख नहीं पहुंचती, न वाणी पहुंचती है, न मन पहुंचता है। उसका शिष्यों के प्रति उपदेश कैसे दिया जाय यह भी हम नहीं जानते, नहीं जानते । वह 'विदित' (Known) से भी अन्य है, 'अविदित' (Unknown) से भी अन्य है। 'विदित' वह है जिसे हम जानते हैं-- उसे हम नहीं जानते, इसलिए वह विदित से अन्य है। 'अविदित' वह है जिसे हम नहीं जानते उसे हम बिल्कुल नहीं जानते ऐसा भी नहीं है, इस विशाल संसार से उसका आभास तो नास्तिक-से-नास्तिक को भी हो ही जाता है, इसलिये वह अविदित से भी अन्य है। हमसे पूर्व जिन ऋषियों ने उसकी व्याख्या की है उनसे हम ऐसा ही सुनते चले आये हैं ॥३॥
    यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते ।
    तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥४॥
    वाणी जिसे प्रकट नहीं कर सकती, जिससे वाणी प्रकट होती है, उसी को तू 'ब्रह्म' जान, जिसकी लोग उपासना करते हैं, वह नहीं ।।४।।
    यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम् ।
    तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।५॥
    जो मन से मनन नहीं करता परन्तु जिसके द्वारा मन मनन करता है, उसी को तू 'ब्रह्म' जान, जिसकी लोग उपासना करते हैं, वह नहीं ॥५॥
    यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षु षि पश्यति । तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥६॥
    जो चक्षु से नहीं देखता, जिसके द्वारा चक्षु देखती है, उसी को तू 'ब्रह्म' जान, जिसकी लोग उपासना करते हैं, वह नहीं ।॥६॥
    यच्छोत्रेण न शृणोति येन श्रोत्रमिदं श्रुतम् । तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।७।।
    जो श्रोत्र से नहीं सुनता, जिसके द्वारा श्रोत्र सुनते हैं, उसी को तू 'ब्रह्म' जान, जिसकी लोग उपासना करते है, वह नहीं ॥७॥
    यत्प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः प्रणीयते ।
    तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥८॥
    जो प्राण-वायु से सांस नहीं लेता, जिससे प्राण प्राणित हो रहा है,
    उसी को तू 'ब्रह्म' जान, जिसकी लोग उपासना करते हैं, वह नहीं ।॥८॥
    (इस खंड में पांच बार इस वाक्य को दोहराया गया है कि जिसकी लोग उपासना कर रहे हैं, वह 'ब्रह्म' नहीं है, वास्तविक 'ब्रह्म' और ही है। हम इस संसार से परे कुछ न देखकर उसी को सब-कुछ समझे बैठे हैं, उसी में रमे हुए हैं, उसी की उपासना करते हैं । ऋषि बार-बार दोहराते हैं, इस संसार की ही पूजा न करते रहो --विश्व की जो आधार-भूत संचालक शक्ति है वही ब्रह्म है--संसार में बृहत्ता, महानता उसी के द्वारा है अतः उसकी उपासना करो, इसकी नहीं, वही ब्रह्म है ।)
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