सुर, गुरु, ब्राह्मण एवं सन्त-समाज वन्दना

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  • เผยแพร่เมื่อ 15 เม.ย. 2021
  • जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
    करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥1॥
    भावार्थ:-जिन्हें स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं, जो गणों के स्वामी और सुंदर हाथी के मुख वाले हैं, वे ही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों के धाम (श्री गणेशजी) मुझ पर कृपा करें॥1॥
    * मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन।
    जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलिमल दहन॥2॥
    भावार्थ:-जिनकी कृपा से गूँगा बहुत सुंदर बोलने वाला हो जाता है और लँगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाता है, वे कलियुग के सब पापों को जला डालने वाले दयालु (भगवान) मुझ पर द्रवित हों (दया करें)॥2॥
    * नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।
    करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥3॥
    भावार्थ:-जो नीलकमल के समान श्यामवर्ण हैं, पूर्ण खिले हुए लाल कमल के समान जिनके नेत्र हैं और जो सदा क्षीरसागर पर शयन करते हैं, वे भगवान्‌ (नारायण) मेरे हृदय में निवास करें॥3॥
    * कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।
    जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥4॥
    भावार्थ:-जिनका कुंद के पुष्प और चन्द्रमा के समान (गौर) शरीर है, जो पार्वतीजी के प्रियतम और दया के धाम हैं और जिनका दीनों पर स्नेह है, वे कामदेव का मर्दन करने वाले (शंकरजी) मुझ पर कृपा करें॥4॥
    बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
    महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
    भावार्थ:-मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥
    चौपाई :
    * बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
    अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
    भावार्थ:-मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥
    * सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
    जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥
    भावार्थ:-वह रज सुकृति (पुण्यवान्‌ पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुंदर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मन रूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है॥2॥
    * श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
    दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥
    भावार्थ:-श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥3॥
    * उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
    सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥
    भावार्थ:-उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते हैं-॥4॥
    दोहा :
    * जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
    कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥
    भावार्थ:-जैसे सिद्धांजन को नेत्रों में लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वी के अंदर कौतुक से ही बहुत सी खानें देखते हैं॥1॥
    चौपाई :
    * गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
    तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥
    भावार्थ:-श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥1॥
    बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
    सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥2॥
    भावार्थ:-पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं। फिर सब गुणों की खान संत समाज को प्रेम सहित सुंदर वाणी से प्रणाम करता हूँ॥2॥
    * साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
    जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥3॥
    भावार्थ:-संतों का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन) के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। (कपास की डोडी नीरस होती है, संत चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं है, इससे वह भी नीरस है, कपास उज्ज्वल होता है, संत का हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार से रहित होता है, इसलिए वह विशद है और कपास में गुण (तंतु) होते हैं, इसी प्रकार संत का चरित्र भी सद्गुणों का भंडार होता है, इसलिए वह गुणमय है।) (जैसे कपास का धागा सुई के किए हुए छेद को अपना तन देकर ढँक देता है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता है, उसी प्रकार) संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त किया है॥3॥
    * मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
    राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥4॥
    भावार्थ:-संतों का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयाग) है। जहाँ (उस संत समाज रूपी प्रयागराज में) राम भक्ति रूपी गंगाजी की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वतीजी हैं॥4॥
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