संगीतमय श्रीरामचरितमानस श्रृंखला बालकाण्ड दोहा : 240 से 245। पं. राहुल पाण्डेय

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  • เผยแพร่เมื่อ 6 ก.ย. 2024
  • जय श्री राम 🙏
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    संगीतमय श्रीरामचरितमानस श्रृंखला बालकाण्ड दोहा : 240 से 245। पं. राहुल पाण्डेय
    राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए॥
    गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा॥
    राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे॥
    जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥
    देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा॥
    डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी॥
    रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा॥
    पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई॥
    दोहा- नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप।
    जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप॥२४१॥
    बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥
    जनक जाति अवलोकहिं कैसैं। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥
    सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी॥
    जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥
    हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता॥
    रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया॥
    उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥
    एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥
    दोहा- राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।
    सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर॥२४२॥
    सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥
    सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥
    चितवत चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहीं बरनी॥
    कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला॥
    कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥
    भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥
    पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं॥
    रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ॥
    दोहा- कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
    बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥२४३॥
    कटि तूनीर पीत पट बाँधे। कर सर धनुष बाम बर काँधे॥
    पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए॥
    देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे॥
    हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥
    करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई॥
    जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥
    निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा॥
    भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥
    दोहा- सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।
    मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल॥२४४॥
    प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे। जनु राकेस उदय भएँ तारे॥
    असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥
    बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥
    अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥
    बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी॥
    तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा॥
    एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ॥
    यह सुनि अवर महिप मुसकाने। धरमसील हरिभगत सयाने॥
    सोरठा- सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के॥
    जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे॥२४५॥
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