अयोध्याकाण्ड दोहा: 301-305 | राहुल पाण्डेय के मधुर स्वर में श्रीरामचरितमानस का गान

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  • เผยแพร่เมื่อ 2 ต.ค. 2024
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    जय श्रीराम 🙏
    मैं "राहुल पाण्डेय" आप लोगों के बीच श्रीरामचरितमानस की चौपाइयों का गायन करने के लिए प्रस्तुत हुआ हूं और इस आशा से कि ये चौपाइयां जो महामंत्र स्वरूप हैं और जिसका गान बाबा विश्वनाथ भी करते हैं "महामंत्र सोई जपत महेसू" इसकी गूंज विश्व के कोने-कोने में सुनाई दे जिससे नकारात्मक ऊर्जा का ह्रास हो और सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो। इन चौपाइयों को पूरे विश्वास के साथ प्रतिदिन अपने घर में एक बार अवश्य बजाएं।
    मैं सोशल मीडिया के माध्यम से श्रीरामचरितमानस को जन-जन तक पहुंचाना चाहता हूं। यदि मेरा यह प्रयास सार्थक लगता है तो कृपया लाइक करें और शेयर करें। सुबह नित्य पांच दोहा श्रीरामचरितमानस श्रवण करने के लिए यू ट्यूब चैनल को सब्सक्राइब करें और फेसबुक पेज को फॉलो करें।
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    जय श्रीराम🙏
    अयोध्याकाण्ड दोहा: 301-305 | राहुल पाण्डेय के मधुर स्वर में श्रीरामचरितमानस का गान
    प्रभु पद पदुम पराग दोहाई। सत्य सुकृत सुख सीवँ सुहाई॥
    सो करि कहउँ हिए अपने की। रुचि जागत सोवत सपने की॥
    सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई। स्वारथ छल फल चारि बिहाई॥
    अग्या सम न सुसाहिब सेवा। सो प्रसादु जन पावै देवा॥
    अस कहि प्रेम बिबस भए भारी। पुलक सरीर बिलोचन बारी॥
    प्रभु पद कमल गहे अकुलाई। समउ सनेहु न सो कहि जाई॥
    कृपासिंधु सनमानि सुबानी। बैठाए समीप गहि पानी॥
    भरत बिनय सुनि देखि सुभाऊ। सिथिल सनेहँ सभा रघुराऊ॥
    छंद- रघुराउ सिथिल सनेहँ साधु समाज मुनि मिथिला धनी।
    मन महुँ सराहत भरत भायप भगति की महिमा घनी॥
    भरतहि प्रसंसत बिबुध बरषत सुमन मानस मलिन से।
    तुलसी बिकल सब लोग सुनि सकुचे निसागम नलिन से॥
    सोरठा- -देखि दुखारी दीन दुहु समाज नर नारि सब।
    मघवा महा मलीन मुए मारि मंगल चहत॥३०१॥
    कपट कुचालि सीवँ सुरराजू। पर अकाज प्रिय आपन काजू॥
    काक समान पाकरिपु रीती। छली मलीन कतहुँ न प्रतीती॥
    प्रथम कुमत करि कपटु सँकेला। सो उचाटु सब कें सिर मेला॥
    सुरमायाँ सब लोग बिमोहे। राम प्रेम अतिसय न बिछोहे॥
    भय उचाट बस मन थिर नाहीं। छन बन रुचि छन सदन सोहाहीं॥
    दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी। सरित सिंधु संगम जनु बारी॥
    दुचित कतहुँ परितोषु न लहहीं। एक एक सन मरमु न कहहीं॥
    लखि हियँ हँसि कह कृपानिधानू। सरिस स्वान मघवान जुबानू॥
    दोहा- भरतु जनकु मुनिजन सचिव साधु सचेत बिहाइ।
    लागि देवमाया सबहि जथाजोगु जनु पाइ॥३०२॥
    कृपासिंधु लखि लोग दुखारे। निज सनेहँ सुरपति छल भारे॥
    सभा राउ गुर महिसुर मंत्री। भरत भगति सब कै मति जंत्री॥
    रामहि चितवत चित्र लिखे से। सकुचत बोलत बचन सिखे से॥
    भरत प्रीति नति बिनय बड़ाई। सुनत सुखद बरनत कठिनाई॥
    जासु बिलोकि भगति लवलेसू। प्रेम मगन मुनिगन मिथिलेसू॥
    महिमा तासु कहै किमि तुलसी। भगति सुभायँ सुमति हियँ हुलसी॥
    आपु छोटि महिमा बड़ि जानी। कबिकुल कानि मानि सकुचानी॥
    कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई। मति गति बाल बचन की नाई॥
    दोहा- भरत बिमल जसु बिमल बिधु सुमति चकोरकुमारि।
    उदित बिमल जन हृदय नभ एकटक रही निहारि॥३०३॥
    भरत सुभाउ न सुगम निगमहूँ। लघु मति चापलता कबि छमहूँ॥
    कहत सुनत सति भाउ भरत को। सीय राम पद होइ न रत को॥
    सुमिरत भरतहि प्रेमु राम को। जेहि न सुलभ तेहि सरिस बाम को॥
    देखि दयाल दसा सबही की। राम सुजान जानि जन जी की॥
    धरम धुरीन धीर नय नागर। सत्य सनेह सील सुख सागर॥
    देसु काल लखि समउ समाजू। नीति प्रीति पालक रघुराजू॥
    बोले बचन बानि सरबसु से। हित परिनाम सुनत ससि रसु से॥
    तात भरत तुम्ह धरम धुरीना। लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना॥
    दोहा- करम बचन मानस बिमल तुम्ह समान तुम्ह तात।
    गुर समाज लघु बंधु गुन कुसमयँ किमि कहि जात॥३०४॥
    जानहु तात तरनि कुल रीती। सत्यसंध पितु कीरति प्रीती॥
    समउ समाजु लाज गुरुजन की। उदासीन हित अनहित मन की॥
    तुम्हहि बिदित सबही कर करमू। आपन मोर परम हित धरमू॥
    मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा। तदपि कहउँ अवसर अनुसारा॥
    तात तात बिनु बात हमारी। केवल गुरुकुल कृपाँ सँभारी॥
    नतरु प्रजा परिजन परिवारू। हमहि सहित सबु होत खुआरू॥
    जौं बिनु अवसर अथवँ दिनेसू। जग केहि कहहु न होइ कलेसू॥
    तस उतपातु तात बिधि कीन्हा। मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा॥
    दोहा- राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम।
    गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम॥३०५॥

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