अयोध्याकाण्ड दोहा: 246-250 | राहुल पाण्डेय के मधुर स्वर में श्रीरामचरितमानस का गान

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  • เผยแพร่เมื่อ 2 ต.ค. 2024
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    जय श्रीराम 🙏
    मैं "राहुल पाण्डेय" आप लोगों के बीच श्रीरामचरितमानस की चौपाइयों का गायन करने के लिए प्रस्तुत हुआ हूं और इस आशा से कि ये चौपाइयां जो महामंत्र स्वरूप हैं और जिसका गान बाबा विश्वनाथ भी करते हैं "महामंत्र सोई जपत महेसू" इसकी गूंज विश्व के कोने-कोने में सुनाई दे जिससे नकारात्मक ऊर्जा का ह्रास हो और सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो। इन चौपाइयों को पूरे विश्वास के साथ प्रतिदिन अपने घर में एक बार अवश्य बजाएं।
    मैं सोशल मीडिया के माध्यम से श्रीरामचरितमानस को जन-जन तक पहुंचाना चाहता हूं। यदि मेरा यह प्रयास सार्थक लगता है तो कृपया लाइक करें और शेयर करें। सुबह नित्य पांच दोहा श्रीरामचरितमानस श्रवण करने के लिए यू ट्यूब चैनल को सब्सक्राइब करें और फेसबुक पेज को फॉलो करें।
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    जय श्रीराम🙏
    अयोध्याकाण्ड दोहा: 246-250 | राहुल पाण्डेय के मधुर स्वर में श्रीरामचरितमानस का गान
    सीय आइ मुनिबर पग लागी। उचित असीस लही मन मागी॥
    गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता॥
    बंदि बंदि पग सिय सबही के। आसिरबचन लहे प्रिय जी के॥
    सासु सकल जब सीयँ निहारीं। मूदे नयन सहमि सुकुमारीं॥
    परीं बधिक बस मनहुँ मरालीं। काह कीन्ह करतार कुचालीं॥
    तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा। सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा॥
    जनकसुता तब उर धरि धीरा। नील नलिन लोयन भरि नीरा॥
    मिली सकल सासुन्ह सिय जाई। तेहि अवसर करुना महि छाई॥
    दोहा- लागि लागि पग सबनि सिय भेंटति अति अनुराग॥
    हृदयँ असीसहिं पेम बस रहिअहु भरी सोहाग॥२४६॥
    बिकल सनेहँ सीय सब रानीं। बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं॥
    कहि जग गति मायिक मुनिनाथा। कहे कछुक परमारथ गाथा॥
    नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा। सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा॥
    मरन हेतु निज नेहु बिचारी। भे अति बिकल धीर धुर धारी॥
    कुलिस कठोर सुनत कटु बानी। बिलपत लखन सीय सब रानी॥
    सोक बिकल अति सकल समाजू। मानहुँ राजु अकाजेउ आजू॥
    मुनिबर बहुरि राम समुझाए। सहित समाज सुसरित नहाए॥
    ब्रतु निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा। मुनिहु कहें जलु काहुँ न लीन्हा॥
    दोहा- भोरु भएँ रघुनंदनहि जो मुनि आयसु दीन्ह॥
    श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह॥२४७॥
    करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी॥
    जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमंगल मूला॥
    सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस। तीरथ आवाहन सुरसरि जस॥
    सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते। बोले गुर सन राम पिरीते॥
    नाथ लोग सब निपट दुखारी। कंद मूल फल अंबु अहारी॥
    सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता॥
    सब समेत पुर धारिअ पाऊ। आपु इहाँ अमरावति राऊ॥
    बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई। उचित होइ तस करिअ गोसाँई॥
    दोहा- धर्म सेतु करुनायतन कस न कहहु अस राम।
    लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम॥२४८॥
    राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू॥
    सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुँ मारुत अनुकुला॥
    पावन पयँ तिहुँ काल नहाहीं। जो बिलोकि अंघ ओघ नसाहीं॥
    मंगलमूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हरषि दंडवत करि करि॥
    राम सैल बन देखन जाहीं। जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं॥
    झरना झरिहिं सुधासम बारी। त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी॥
    बिटप बेलि तृन अगनित जाती। फल प्रसून पल्लव बहु भाँती॥
    सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं॥
    दोहा- सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भृंग।
    बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग॥२४९॥
    कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी॥
    भरि भरि परन पुटीं रचि रुरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी॥
    सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा॥
    देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं॥
    कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानत साधु पेम पहिचानी॥
    तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा॥
    हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा। जस मरु धरनि देवधुनि धारा॥
    राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा॥
    दोहा- यह जिँयँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु।
    हमहि कृतारथ करन लगि फल तृन अंकुर लेहु॥२५०॥

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