श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 46 उच्चारण | Bhagavad Geeta Chapter 6 Verse 46

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  • เผยแพร่เมื่อ 29 ก.ย. 2024
  • 🌹ॐ श्रीपरमात्मने नमः 🌹
    अथ षष्ठोऽध्यायः
    तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
    कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥46॥
    तपस्विभ्यः=तपस्वियों से, अधिकः=श्रेष्ठ है,योगी=योगी, ज्ञानिभ्यः=ज्ञानियों से,अपि= भी,मतः=माना गया है,अधिकः =श्रेष्ठ,कर्मिभ्यः=सकामकर्म करने वालों से भी,च=और, अधिकः=श्रेष्ठ है, योगी=योगी, तस्मात्=इसलिए,योगी=योगी, भव=हो जाओ,अर्जुन=हे अर्जुन!
    भावार्थ- योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, ज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है- इसलिए हे अर्जुन! तुम योगी हो जाओ।
    व्याख्या--
    "तपस्विभ्योऽधिको योगी"-
    जो योगी है,वह तपस्वी से भी अधिक है।क्यों? तपस्या करना साधारण बात नहीं है,उनसे भी योगी क्यों बड़ा है?
    तपस्या सहनशक्ति की परीक्षा है।धूप,बारिश, सर्दी,बर्फ में भी बैठे हैं।भूख प्यास सब पर विजय पा ली। विषम परिस्थितियों को झेल लिया। शारीरिक तप,वाचिक तप, मानसिक तप- ये सब तप ही हैं। तपस्या का संबंध प्राण शक्ति से है। जरूरी नहीं कि तपस्वी भक्त हो, योगी हो। रावण, हिरण्यकश्यपु ने भयंकर तपस्या की। उनकी तपस्या सकाम थी इसलिए ये योगी नहीं हुए। योगी भगवत् तत्त्व से जुड़ जाता है।
    "ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः"-
    जो ज्ञानी लोग हैं- वेद पढ़े हैं, शास्त्रों को जानने वाले हैं,पूरा कर्मकाण्ड जानते हैं,उपनिषद् पढ़ा,ब्रह्मसूत्र पढ़े,बहुत सारा पढ़ लिया। शास्त्रों का विद्वता पूर्ण विवेचन भी करते हैं,बहुत सी बातें जानते और कहते भी हैं परंतु जिनका उद्देश्य सांसारिक भोग और ऐश्वर्य हैं। भगवान् कहते हैं कि ऐसे शब्द ज्ञानियों से योगी श्रेष्ठ माना गया है।अध्ययन के बल पर भोग मिलेगा,मुक्ति नहीं मिलेगी। शब्द ज्ञान अपने आप में पूर्ण नहीं होता, उससे भी यह योग बड़ा है।
    "कर्मिभ्यश्चाधिको योगी"-
    कुछ लोग कर्मकाण्ड में ही लगे रहते हैं। इस लोक में धन- संपत्ति, सुख-आराम, भोग आदि मिल जाए और मरने के बाद परलोक में ऊॅंचे-ऊॅंचे लोकों की प्राप्ति हो जाए- ऐसा उद्देश्य रखकर जो सकाम भाव से कर्म करते हैं ,उन कर्मियों से योगी श्रेष्ठ हैं।
    चाहे तपस्वी है,ज्ञानी है या कर्मी है- इन तीनों की क्रियाएँ अलग-अलग हैं,इनमें भावनाओं की मृदुता नहीं होती। तपस्वियों में सहिष्णुता की,ज्ञानियों में बुद्धिज्ञान की और कर्मियों में क्रिया की प्रधानता है।तीनों में सकाम भाव होने से ये योगी नहीं है, प्रत्युत भोगी हैं।
    भगवान् इन तीनों से योगी को श्रेष्ठ बताते हैं और कहते हैं-
    "तस्माद्योगी भवार्जुन"-
    अर्जुन!तुम योगी हो जाओ। योग से जुड़ जाओ।अभी तक भगवान् ने जिस योग की महिमा गई है,उसके लिए अर्जुन को आज्ञा दे देते हैं कि हे अर्जुन! तू योगी हो जा। राग- द्वेष से रहित हो जा अर्थात् सब काम करते हुए भी जल में कमल के पत्ते की तरह निर्लिप्त रह। आठवें अध्याय में भी भगवान् कहते हैं- "योग युक्तो भवार्जुन" 8/27
    विशेष-
    दूसरे अध्याय के सातवें श्लोक में अर्जुन ने प्रार्थना की थी कि मेरे लिए एक निश्चित श्रेय की बात कहिए। इस पर भगवान् ने सांख्य योग, कर्म योग, ध्यान योग की बातें बतलाई परन्तु इस श्लोक से पहले कहीं भी अर्जुन को यह आज्ञा नहीं दी कि तुम ऐसे बन जाओ या इस मार्ग में लग जाओ। अब यहाँ भगवान् अर्जुन की प्रार्थना के उत्तर में आज्ञा दे देते हैं कि तुम योगी हो जाओ क्योंकि यही तुम्हारे लिए एक निश्चित श्रेय है।
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ความคิดเห็น • 2

  • @bankatlslvaishnav3904
    @bankatlslvaishnav3904 3 หลายเดือนก่อน

    जय श्री कृष्ण।।

  • @satishkgoyal
    @satishkgoyal 3 หลายเดือนก่อน

    जय श्री कृष्ण।