गद्दी जनजाति हिमाचल प्रदेश के लोगो का जीवन संघर्ष और की जमीनी सचाई और हकीकत।

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  • เผยแพร่เมื่อ 19 ต.ค. 2024
  • गद्दी जनजाति हिमाचल प्रदेश के लोगो का जीवन संघर्ष और की जमीनी सचाई और हकीकत।
    गद्दी जनजाति हिमाचल प्रदेश की पश्चिमी सीमा पर पाई जाती है। इनकी क़द-काठी राजस्थान की मरुभूति के राजपूत समाज से मिलती है। यह भी अपने आप को राजस्थान के 'गढवी' शासकों के वंशज बातते हैं। इस जनजाति का विश्वास है कि मुग़लों के आक्रमण काल में धर्म एवं समाज की पवित्रता बनाये रखने के लिए यह राजस्थान छोड़कर पवित्र हिमालय की शरण में यहाँ के सुरक्षित भागों में आकर बस गये।
    निवास
    वर्तमान समय में गद्दी जनजाति के लोग धौलाधर श्रेणी के निचले भागों में हिमाचल प्रदेश के चम्बा एवं कांगड़ा ज़िलों में बसे हुए हैं। प्रारम्भ में यह ऊँचे पर्वतीय भागों में आकर बसे रहे, किंतु बाद में धीरे-धीरे धौलाघर पर्वत की निचली श्रेणियों, घाटियों एवं समतलप्राय भागों में भी इन्होंने अपनी बस्तियाँ स्थापित कर लीं। इसके बाद धीरे-धीरे यह जनजाति स्थानीय जनजातियों से अच्छे सम्पर्क एवं सम्बन्ध बनाकर उनसे घुल-मिल गई और अपने आप को पूर्ण रूप से स्थापित कर लिया।
    शारीरिक रचना
    अधिकांशत: गद्दी जनजाति के लोगों का रंग गेहुँआ या गौरवर्ण तथा कभी-कभी हल्का भूरा भी होता है। यह जनजाति राजपूत वर्ग से कुछ नाटे क़द के होते हैं, किंतु इनके नाक-नक्श अब भी उनसे मिलते हैं। अत: वर्तमान समय में नाटे क़द के पुरुषों का क़द प्राय: 128 से 135 सेमी. की ऊँचाई तक एवं महिलाओं का उससे 3 से 5 सेमी. कम होता है। इनका बदन भारी, गठा हुआ एवं हृष्ट-पुष्ट होता है। इनमें आर्यों के चेहरे के लक्षणों के साथ-साथ मंगोलॉयड लक्षण भी आँखों व भौहों, गालों की हड्डियों पर विशेष रूप से देखे जा सकते हैं। निरंतर भारी बोझा उठाते रहने, पहाड़ों पर चढ़ने, आदि कारणों से इनके पैर कुछ मुड़े हुए एवं पाँवों व हाथों की मांसपेशियाँ कठोर होती हैं। इनमें कठोर शीत सहने की भी क्षमता होती है।
    भोजन
    यहाँ के पर्यावरण एवं स्थानीय वस्तुएँ ही इनके भोजन का आधार बनी रहती हैं। इसमें मुख्यत: दूध, दही, खोया, पनीर एवं माँस होता है एवं सीमित मात्र में चावल, मोटे अनाज, गेंहूँ, मटर, चना, आदि का तथा कभी-कभी मौसमी सब्जियाँ, आलू आदि भी बनाते हैं। जौ, गेहूँ एवं चावल अब यहाँ के मुख्य खाद्यान्न है। जौ एवं धान से शराब भी बनाई जाती है, इसे 'सारा' कहते हैं। अब आलू, रतालू एवं अरबी का प्रचलन भी धान से बढ़ा है। शराब का सेवन विशेष त्योंहारों, सामाजिक उत्सवों एवं समारोह के समय नाच-गान के साथ एवं सामाजिक भोज के अवसर पर खुलकर होता है।
    धर्म
    गद्दी जनजाति के लोग हिन्दू धर्मावलम्बी होते हैं। यह शिव एवं माँ पार्वती के विविध रूपों एवं शक्ति की आराधना विशेष रूप से करते हैं। पूजा करते समय यह उत्तम स्वास्थ्य एवं सम्पन्नता की कामना भी करते हैं। क्योंकि गद्दी जनजाति के विश्वास के अनुसार अनेक प्रकार की बीमारियाँ, पशुओं की महामारी एवं गर्भपात का कारण प्रतिकूल आत्माओं या प्रेतात्मा का कोपयुक्त प्रभाव है। अत: ऐसी कठोर या क्रूर स्वाभाव वाली प्रेतात्माओं को प्रसन्न करने के लिए ये लोग भेड़ या बकरे की बलि चढ़ाते हैं।
    जादू-टोना
    यह जाति जादू-टोनों एवं ओझा के पद में भी पूरी आस्था रखती है। नवरात्रि में शक्ति या देवी की पूजा विशेष धूमधाम से की जाती है। यह उत्सव वर्ष में दो बार मनाया जाता है। इस अवसर पर अंतिम दिन पशु बलि देने का विशेष रिवाज बन गया है। अब धीरे-धीरे पशु बलि का स्थान मीठे व्यंजन का प्रसाद भी कई स्थानों पर चढ़ाया जाता है। हिन्दू धर्म के साथ-साथ जादू-टोने एवं जादू-टोना जानने वाले ओझा की भी समाज में विशेष कद्र की जाती है।
    गद्दी भारत के हिमाचल प्रदेश और जम्मू और कश्मीर राज्यों मे रहने वाली खत्री, राजपूत, राठी और ब्राह्मणों की उपजाति है। वर्तमान गद्दी भारतीय मैदानों के उन जातिविहीन घुमंतू चरवाहों में से एक की संतान हैं, जो कभी राजस्थान के बाड़मेर क्षेत्र के आसपास रहते थे ”और विभिन्न वेशभूषा और सामान की समानता से यह प्रभावित होता है।
    दिन-प्रतिदिन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए, इन गद्दी जनजातियों ने विविध व्यावसायिक गतिविधियाँ शुरू की हैं। चूंकि इन गद्दी जनजातियों ने गांवों में अपनी बस्तियां बना ली हैं, इसलिए उन्हें खानाबदोश नहीं माना जाता है। हालांकि, भेड़ या बकरियों के उच्च या निम्न चरागाह पर मौसमी आंदोलन एक पारंपरिक अभ्यास है। सामान्य तौर पर, ये गद्दी जनजातियाँ अपने पशुओं के साथ गर्मी के मौसम में राज्य के ऊपरी क्षेत्रों के कई चारागाहों में जाती हैं।
    जहां तक ​​भाषाओं का सवाल है, गद्दी जनजाति के अधिकांश लोग गद्दी भाषा बोलते हैं। हालांकि, लेखन के लिए, यह गद्दी आदिवासी समुदाय टेकरी भाषा का उपयोग करता है। हालाँकि, भाषा कुछ साल पहले गुमनामी में चली गई थी। देवांगिरी लिपि प्रचलन में है। आधुनिक संस्कृति के प्रभाव के तहत, गद्दी आदिवासी लोगों को भी हिंदी भाषा में महारत हासिल है।
    गद्दी समुदाय के बारे में एक और किंवदंती आम है। इस किंवदंती के अनुसार, यह माना जाता है कि गद्दी आदिवासी समुदाय की विभिन्न जातियों को अलग-अलग समय में स्थानांतरित कर दिया गया है। 850-70CE के आसपास, ब्राह्मण गद्दी जनजाति का एक समूह चंबा आ गया और स्थायी रूप से अपना निवास स्थान बना लिया। सत्रहवीं शताब्दी के समय में प्रसिद्ध मुगल बादशाह औरंगजेब के खतरों से दूर भागने के लिए गद्दी आदिवासी समुदाय की अन्य जातियों के अधिकांश लोग पर्वत श्रृंखलाओं में उतर गए हैं। वह ज्यादातर गद्दी आदिवासी भगवान शिव के उपासक हैं।
    गद्दी जनजातियों की अधिकता मुख्य रूप से हिमाचल प्रदेश राज्य के धौलाधार श्रेणी के दोनों किनारों पर पाई जाती है। काफी संख्या में गद्दी जनजातियाँ मुख्य रूप से चंबा जिले के ब्रह्मौर क्षेत्र में, रावी नदी के ऊँचे क्षेत्रों में और बुधिल नदी की घाटियों में भी बसती हैं। अन्य क्षेत्रों में कांगड़ा जिला शामिल है, जो मुख्य रूप से तोता रानी, ​​खनियारा, धर्मशाला के करीब के गाँवों में है।

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