धूर्त साधु और साहसी महिला

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  • เผยแพร่เมื่อ 8 ก.พ. 2025
  • धूर्त संत और साहसी महिला
    अमृतगिरि पर्वत की तलहटी में बसे नवरंगपुर गांव के पास, घने जंगल के बीच एक साधु तपस्या में लीन था। साधु का नाम स्वामी सत्यव्रत था। उन्होंने सांसारिक जीवन के मोह-माया को त्याग कर अध्यात्म की राह चुनी थी। उनकी सादगी और ज्ञान के कारण गांव वाले उन्हें बहुत सम्मान देते थे।
    इसी गांव में रंजना नाम की एक विधवा महिला रहती थी, जिसकी उम्र लगभग 25 वर्ष थी। वह सुंदर, लेकिन साधारण जीवन जीने वाली महिला थी। पति के निधन के बाद, उसने गांव के बच्चों को पढ़ाने और दूसरों की मदद करने में खुद को व्यस्त कर लिया था। हालांकि, उसके मन के किसी कोने में अकेलेपन का दर्द छिपा हुआ था।
    एक दिन, रंजना को अपनी गाय के लिए जड़ी-बूटी लाने जंगल जाना पड़ा। वह जंगल में गहरी जगह पर पहुंची, जहां उसकी मुलाकात स्वामी सत्यव्रत से हुई। वह उनकी सादगी और आंखों में झलकती शांति से प्रभावित हुई। उसने उन्हें प्रणाम किया और मार्गदर्शन की याचना की।
    स्वामी सत्यव्रत ने रंजना को कुछ ध्यान विधियां सिखाईं और कहा, "अकेलापन केवल मन की एक अवस्था है। जब मन शांत होता है, तो सारा ब्रह्मांड आपका साथी बन जाता है।"
    समय बीतता गया। रंजना अक्सर स्वामी जी से मार्गदर्शन लेने आने लगी। दोनों के बीच एक अद्भुत समझ बन गई। धीरे-धीरे, रंजना का झुकाव स्वामी जी की ओर बढ़ने लगा। वह उनकी गहराई और करुणा में अपनी खुशी खोजने लगी।
    स्वामी सत्यव्रत, जिन्होंने सांसारिक संबंधों से दूर रहने का प्रण लिया था, ने भी रंजना के स्नेह को महसूस किया। उनकी आंखों में एक अनकहा भाव उभरने लगा, लेकिन उनके भीतर एक बड़ा द्वंद्व चल रहा था।
    रंजना की स्वामी सत्यव्रत के प्रति श्रद्धा अब धीरे-धीरे एक गहरे भाव में बदल रही थी। वह उनकी हर बात को ध्यान से सुनती और उनका अनुसरण करती। स्वामी सत्यव्रत को भी रंजना की सरलता और समर्पण ने कहीं न कहीं प्रभावित किया था, लेकिन वह इस भाव को अपने भीतर दबाए हुए थे।
    एक दिन, जब रंजना आश्रम में स्वामी जी से मिलने पहुंची, तो उसने हिम्मत करके पूछा, "स्वामी जी, क्या त्याग का अर्थ हमेशा अकेले रहना होता है? क्या प्रेम भी त्याग का एक रूप नहीं हो सकता?"
    स्वामी सत्यव्रत कुछ क्षण चुप रहे। उनके भीतर यह सवाल गूंजने लगा। उन्होंने कहा, "प्रेम और त्याग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सच्चा प्रेम वही है जिसमें त्याग हो। लेकिन मेरे लिए इस जीवन का उद्देश्य भिन्न है। मैंने संसार की इच्छाओं को पीछे छोड़कर आत्मा की शांति का मार्ग चुना है।"
    रंजना ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा, "शांति का मार्ग कभी-कभी किसी के साथ चलने से भी मिल सकता है। अकेलेपन और तप में अंतर होता है, स्वामी जी।"
    यह शब्द स्वामी सत्यव्रत के भीतर गहरे उतर गए। वह इस द्वंद्व में उलझ गए कि क्या उनका मार्ग सही था या रंजना की बातें एक नई दिशा का संकेत दे रही थीं।
    कुछ दिनों बाद, गांव में अचानक एक बड़ा संकट आ गया। तेज बारिश के कारण आई बाढ़ ने कई घरों को बहा दिया। लोग अपने जीवन को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे थे।
    रंजना ने दिन-रात लोगों की मदद की। उसने अपनी हर चीज दान कर दी और दूसरों के दुख को कम करने में पूरी तरह जुट गई। स्वामी सत्यव्रत यह सब देख रहे थे। उन्होंने पहली बार महसूस किया कि रंजना का प्रेम केवल उनके लिए नहीं, बल्कि पूरे संसार के लिए था।
    वह खुद से पूछने लगे, "क्या प्रेम वास्तव में त्याग से अधिक महान है? क्या मैंने प्रेम को समझने में भूल की है?"
    बाढ़ का प्रकोप बढ़ता जा रहा था। गांव में भोजन, पानी और दवाओं की भारी कमी हो गई थी। रंजना ने अपनी पूरी शक्ति और समर्पण के साथ लोगों की सहायता की। वह खुद भूखी रहकर भी जरूरतमंदों के लिए खाना जुटाती, बीमारों की देखभाल करती और बच्चों को सुरक्षित स्थान पर ले जाती।
    स्वामी सत्यव्रत ने रंजना के इस निस्वार्थ समर्पण को देखा। वह समझ गए कि रंजना का प्रेम केवल व्यक्तिगत नहीं था, बल्कि यह पूरे संसार के लिए करुणा का प्रतीक था।
    एक रात, जब रंजना थकी-मांदी और घायल अवस्था में एक पेड़ के नीचे बैठी थी, स्वामी सत्यव्रत ने उसके पास जाकर कहा, "रंजना, तुमने जो त्याग किया है, वह सच्चे प्रेम का सबसे सुंदर रूप है। तुमने मुझे प्रेम का ऐसा स्वरूप दिखाया जिसे मैंने कभी समझा नहीं था।"
    रंजना ने थकी आँखों से स्वामी जी की ओर देखा और धीरे से कहा, "स्वामी जी, प्रेम में त्याग का महत्व होता है, लेकिन अगर प्रेम किसी को शक्ति और दिशा दे, तो यह स्वयं तपस्या बन जाता है।"
    स्वामी सत्यव्रत का हृदय इस क्षण में द्वंद्व और शांति के बीच डोलने लगा। उन्होंने सोचा, "क्या यह मेरा मार्ग बदलने का संकेत है? क्या मेरी तपस्या का उद्देश्य यही प्रेम और सेवा है?"
    दूसरे दिन, स्वामी सत्यव्रत ने गांव वालों की मदद के लिए खुद को समर्पित कर दिया। उन्होंने अपने साधना स्थल को राहत शिविर में बदल दिया। रंजना और स्वामी सत्यव्रत ने मिलकर लोगों की सेवा की, लेकिन उनके भीतर एक अनकहा भाव अब भी रहस्यमय बना हुआ था।
    बाढ़ का असर धीरे-धीरे कम हो रहा था। गांव के लोग वापस अपनी जिंदगी बसाने की कोशिश कर रहे थे। इस कठिन समय में, रंजना और स्वामी सत्यव्रत ने जो सेवा की, उसने ना केवल गांव वालों के दिलों में उनके प्रति सम्मान बढ़ाया, बल्कि उनके बीच एक अनदेखा रिश्ता भी गहराई से पनपने लगा।
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