#प्रेरणादायक
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- เผยแพร่เมื่อ 11 ต.ค. 2024
- सुभाष पालेकर एक भारतीय कृषक एवं कृषि विशेषज्ञ हैं। उन्होंने 'शून्य बजट आध्यात्मिक कृषि' के बारे में अभ्यास किया है और कई पुस्तकें लिखी है। उन्होंने 'शून्य बजट प्राकृतिक यानि आध्यात्मिक कृषि' का आविष्कार किया है और ऐसी तकनीक विकसित की है, जिसमें कृषि करने के लिए न ही किसी भी रासायनिक कीटनाशक का उपयोग नहीं किया जाता और न ही बाजार से अन्य औषधियाँ खरीदने की आवश्यकता पड़ती है। उन्होंने भारत में इस विषय पर कई कार्यशालाओं का आयोजन किया है। उन्हें वर्ष 2016 के भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार 'पद्म श्री' से सम्मानित किया गया है।
सुभाष पालेकर का जन्म वर्ष 1949 में भारत में महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में बेलोरा नाम के एक छोटे से गाँव में हुआ। उन्होंने नागपुर से कृषि विषय में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। कॉलेज की शिक्षा के दौरान वह सातपुड़ा आदिवासी क्षेत्र में जाकर उनकी समस्याओं के बारे में आदिवासियों के साथ काम किया। पढ़ाई के बाद वर्ष 1972 में वह अपने पिता के साथ कृषि करने लगे। उनके पिता एक किसान थे, लेकिन कॉलेज में रासायनिक कृषि सीखने के बाद, श्री पालेकरजी ने भी रासायनिक कृषि करना शुरू किया। वर्ष 1972-1990 से अभ्यास करते समय वह मीडिया में इस विषय पर लेख भी लिखते थे।
वह वेद, उपनिषद् और अन्य प्राचीन ग्रंथों के दर्शन (प्राचीन भारतीय सोच) की ओर आकर्षित हुए। इसी बीच, उन्होंने गांधी और कार्ल मार्क्स को भी पढ़ा और उनके तुलनात्मक अध्ययन भी किया। उन्होंने पाया कि कार्ल मार्क्स की सोच गांधीजी की सोच जैसी नहीं है, गांधी जी का दर्शन प्रकृति के अधिक नजदीक है। मार्क्स ने प्रकृति के स्वामित्व नियम का खंडन किया, जब उसने सुना कि रूस में कम्युनिस्ट आंदोलन के दौरान हजारों किसान की मारे गए थे, उन्होंने गांधी जी के दर्शन के अतिरिक्त कोई विकल्प न होने की बात की पुष्टि की जो सत्य और अहिंसा पर आधारित थी। वर्ष 1972-1985 के बाद से, जब रासायनिक कृषि का प्रयोग हमारे देश के कृषि उत्पादन लगातार बढ़ा लेकिन वर्ष 1985 के बाद, कृषि उत्पादन में गिरावट आना शुरू हो गई। रासायनिक कृषि अर्थात हरित क्रांति की तकनीक को अपनाने के बाद भी, क्यों उत्पादन कम हो रहा है? यह देखकर वह आश्चर्यचकित हुए। फिर तीन वर्षों तक उन्होंने इसके कारणों की तलाश करने के बाद निष्कर्ष निकाला कि, दरअसल कृषि विज्ञान एक झूठे दर्शन पर आधारित है। उन्हें हरित क्रांति में बहुत दोष दिखाई दिए। फिर उन्होने रासायनिक कृषि के वैकल्पिक कृषि पर शोध करना शुरू किया।
महाविद्यालय जीवन के दौरान, जब वह आदिवासी क्षेत्रों में काम कर रहे थे, तब उन्होने अपनी जीवन शैली और सामाजिक संरचना का अध्ययन किया। उन्होंने जंगलों में प्रकृति प्रणाली का अध्ययन किया। जंगल में किसी भी मानवीय हस्तक्षेप और सहायता को न देख कर वह हैरान रह गए। वहाँ हर साल आम, बेर, #इमली, #जामुन, #शरीफा, नीम, मोह के बड़े-बड़े पेड़ों पर बहुत फल आते थे। तब उन्होंने #जंगल के #वृक्षों के प्राकृतिक विकास पर अनुसंधान शुरू किया। वर्ष 1986-88 के दौरान उन्होंने जंगली वनस्पतियों का भी अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि जंगलों में एक स्व-विकसित, स्व: पोषित और पूरी तरह से आत्मनिर्भर #प्राकृतिक व्यवस्था विद्यमान है। वहाँ एक पारिस्थितिकी तंत्र है, जिस पर वनस्पतियों का विकास होता है। उन्होंने प्राकृतिक व्यवस्था का अध्ययन किया और वर्ष 1989 से 1995 के दौरान जंगल की उन प्राकृतिक प्रक्रियाओं का अपने खेत पर परीक्षण कर देखा। इन छह वर्षों के शोध कार्य के दौरान उन्होंने 154 अनुसंधान परियोजनाएँ पूर्ण की। इसके बाद उन्हेंने 'शून्य बजट प्राकृतिक (आध्यात्मिक) कृषि' की तकनीक आरंभ की, जिसका प्रचार उन्होंने कार्यशालाओं, सेमिनार के माध्यम से किया और इस विषय पर मराठी, हिंदी, अंग्रेजी, कन्नड़, तेलुगु, तमिल भाषाओं में अपनी पुस्तकें लिखीं और भारत भर में किसानों के द्वारा स्थापित कृषि के हजारों मॉडल विकसित किए।
वर्ष 1996-98 से उन्हें पुणे, महाराष्ट्र से एक प्रसिद्ध होने वाले 'बलीराजा' मराठी कृषि पत्रिका की संपादकीय टीम में शामिल किया गया लेकिन, आंदोलन की गति को बढ़ाने के लिए, वर्ष 1998 में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने कृषि के बारे में मराठी में 20, अंग्रेजी में 4 और हिन्दी में 3 पुस्तकें लिखी। मराठी में लिखी गई पुस्तकों का सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया जा रहा हैं। उनके आंदोलन ने मीडिया के जरिए राजनेता, किसानों का ग्रामीण अर्थव्यवस्था की वास्तविक समस्याओं के प्रति ध्यान आकर्षित किया। वे मानते हैं, अब शून्य बजट प्राकृतिक (आध्यात्मिक) कृषि के अलावा किसानों की आत्महत्याओं को रोकने का और कोई विकल्प नहीं है। उनका यह भी विश्वास है कि इंसान को जहरमुक्त भोजन उपलब्ध करने का एक ही तरीका है, शून्य बजट प्राकृतिक कृषि।
भारत के 30 लाख किसान शून्य बजट प्राकृतिक (आध्यात्मिक) कृषि कर रहे हैं। कर्नाटक राज्य ने उन्हें वर्ष 2005 में, एक क्रांतिकारी संत बसवराज के नाम पर दिया जाने वाला पुरस्कार श्री मृग राजेन्द्र मठ, चित्रदुर्ग द्वारा "बसवश्री" पुरस्कार से सम्मानित किया था।
इस वीडियो को बनाने में कई चैनल के #डिजिटल संस्करण की मदद ली है जिसके लिए हम उनका आभार व्यक्त करते है।
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