स्वाभाविक सन्तोष, विवेक, वैराग्य, ज्ञान-विज्ञान, स्वाधीन अवस्था एवं भक्ति की प्राप्ति हेतु दर्शन
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- เผยแพร่เมื่อ 5 ก.พ. 2025
- धरती के प्रत्येक मनुष्य के लिए अमृत” 06 सितम्बर, 2024 शनिवार - भाद्रपद शुक्ल पक्ष हरितालिका तीज
प्रिय मित्र,★
आत्मीय सम्मान!!! जय श्री राम! मित्र! श्री शिवजी के अविनाशी भाव को धारण करके ही आप अपने अंतःकरण के भाव को हरा भरा रख सकते हैं। इस जगत के परम-आधार अनादि ब्रह्म “आसक्तिरहितम्, अनाश्रित” ईश्वर श्री रामजी ही हैं। यह “ब्रह्म अवस्था” में आपके इस मित्र का “दिव्य शोध निष्कर्ष” है नकि कोई कोरी कल्पना। सृष्टि में सभी जीव परमात्मा से ही उत्पन्न है इसलिए आप जीव रूप से परमात्मा का ही सगुण-साकार स्वरूप ही हैं। अंतःकरण में मोह रूपी दरिद्र, जो सभी रोगों का कारण है; माया तो स्वभाव से ही दुष्ट और अत्यंत दुःखद है एवं ममता तो पूरी अंधेरी रात ही है। इस दिव्य ज्ञान का आश्रय लेकर इन तीनों (मोह-माया-ममता) का परित्याग करके यदि, आप प्रभु के दोनों “आसक्तिरहितम्, अनाश्रित का भाव” अर्थात श्री रामजी के दोनों चरण अपने हृदय में (भाव में) धारण कर लेते हैं, तो आप श्री रामजी का अंश बनकर “विमल यश” की प्राप्ति एवं अपने अविनाशी स्वरूप “परमानन्द” का अनुभव कर सकते हैं। धरती के प्रत्येक मनुष्यों के अंतःकरण से इन तीनों (मोह-माया-ममता) का जड़ से उन्मूलन एवं दोनों दिव्य भावनाओं आसक्तिरहितम्, अनाश्रित के भाव का आपके अंतःकरण में प्रत्यारोपण करने की पूरी व्यवस्था आपके इस मित्र के पास बिल्कुल मुफ्त में उपलब्ध है। आपके इस मित्र की बुद्धि उपदेश, अधिकार एवं आज्ञा की सीमा के बाहर है, इसलिए यह मनुष्य की बुद्धि की कल्पना के बाहर की अवस्था है फिर भी, मित्र! आप “दिव्य शोध के निष्कर्षों” से अवगत होलें जिससे आपको अपने अविनाशी, सत्य एवं अनुपम स्वरूप का अनुभव हो जाय। भाव यह है कि आप “सत्य भाव” को प्राप्त हों, जिससे आपका कुल सहित परमकल्याण हो। जय श्री राम! मात्र इसी भाव की प्रेरणा आपके इस मित्र के अंतःपुर से प्रगट हो रही हैं। इसलिए बिना बिना किसी कुतर्क के पूरी सावधानी से सबसे पहले अपने भाव में यह धारण कर लें कि आपके इस मित्र की बुद्धि हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश- अपयश, हर्ष-विषाद, ज्ञान-अज्ञान, अहंकार-अभिमान एवं सम्पूर्ण व्यवहार जगत के बाहर निःष्कामपुर में स्थायी रूप से परमानन्द की अवस्था में स्थिर हो चुकी है।
मित्र! व्यवहार के लिए साम(Conciliation), दाम(Gift) दंड(Punishment) एवं भेद(Discrepancy) में से किसी एक न एक का सहयोग लेना ही होगा, जो अब आपके इस मित्र के भाव का अंग नही रहा। अब आपका यह मित्र, व्यवहार जगत से स्वार्थ, मोह एवं आसक्ति की सीमा तक बिल्कुल मुक्त है। इसलिए यह मात्र दिव्य भाव हैं। आप इस मित्र के माध्यम से जो भी ज्ञान प्राप्त करेंगे, वे सभी मात्र श्रीमद्भगवद्गीताजी, श्रीरामचरितमानसजी एवं निःसंदेह शिवजी के दिव्य भाव ही हैं, व्यवहार जगत का अंग नहीं। मित्र! चेतन परमात्मा एवं अचेतन प्रकृति का स्पष्ट ज्ञान हो जाने से आपके इस मित्र की बुद्धि स्वार्थ-मोह-माया-ममता और आसक्ति से बिल्कुल मुक्त हो चुकी है। इन दोनों दिव्य भावनाओं का अनुभव कर लेंगे, तो ऐसी जिज्ञासा उत्पन्न होगी की स्वार्थ की सीमा कहाँ तक है? तो मित्र! स्वार्थ की सीमा मात्र देवी-देवता, ऋषि-मुनि, मनुष्य एवं आसुरी वृत्तियों को धारण करने वाले जीव तक ही सीमित है। आत्माराम का सेवक भाव धारण कर लेने से उनकी सीमाएं जड़ से ही निर्मूल हो जाती है- यह आपके मित्र का “निजी अनुभव” है। इन सभी के पदों का परित्याग हो जाने से यह बुद्धि स्वार्थ की सीमा को पार कर गई। अब यह मन-बुद्धि एवं शरीर सेवक है और श्री रामजी अर्थात आपकी आत्माराम ही इस मित्र के भाव-विचार सहित सम्पूर्ण शरीर के ही स्वामी हैं। प्रसन्न मन से इस भाव को अपने अंतःकरण में धारण कर लीजिएगा कि आपकी आत्मा परमात्मा श्री रामजी का ही अंश है। यदि आप पवित्र भाव एवं पूरी सावधानी से विचार करेंगें, तभी यह ज्ञान अनुभव में आजाएगा कि- आप इस सृष्टि चक्र में ‘श्री सीतारामजी के सगुण साकार स्वरूप’ ही हैं। अर्थात अविनाशी सत्य हैं, न कि मृत्यु को प्राप्त होने वाला यह संघात रूप शरीर। इस दिव्य भाव को अंतःकरण में धारण करते ही आप हमेशा के लिए मृत्यु के भय से मुक्त हो जायेंगे, परमपिता परमात्मा श्री रामजी के कमलवत चरणों में परमपवित्र प्रेम "दृढ़ अनुराग” होना ही- मनुष्य जन्म एवं जीवन का परमउद्देश्य है। इसीको वास्तविक 'जय', 'विजय' 'परमकल्याण' या ‘परमपद’ की प्राप्ति कहते है। यह आपके अपने मित्र “डॉ रवि शंकर पाण्डेय" का निजी एवं अकाट्य, शाश्वत एवं बोधमय अनुभव है। यह परमपद ही किसी जीव का कृतार्थ रूप होता है और इसी से विमल यश की प्राप्ति होती है। इस जगत में इस अवस्था को प्राप्त कर लेना ही सभी मनुष्यों का परम लक्ष्य है और इस पर सबका अधिकार भी है। यही अभय की अवस्था ही मनुष्य जन्म एवं जीवन की परमचतुराई एवं परमलाभ है। इसी को “वास्तविक आत्मनिर्भरता” की अवस्था कहते हैं। यह लेखनी दिव्य सरस्वती रूप से परमपद एवं विमल यश की प्राप्ति का √ आसान उपाय है। धरती का प्रत्येक मनुष्य डॉ रवि शंकर पाण्डेय की तरफ से परमस्वतंत्र है अर्थात किसी को भी यह एक श्र्वाँस में इनकी चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। जय श्री राम! हर हर महादेव!
मित्र*:- धरती के प्रत्येक मनुष्य (स्त्री एवं पुरुष)।
डॉ. रवि शंकर पाण्डेय