झारखण्ड आन्दोलन | झारखण्ड के सदान | For-JPSC
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- เผยแพร่เมื่อ 11 ต.ค. 2024
- झारखण्ड के सदान : झारखण्ड राज्य में सामान्यतः गैर-जनजातियों को सदान कहा जाता है किन्तु ऐसा है नहीं; सभी गैर-जनजातियां सदान नहीं हैं। वास्तव में सदान झारखण्ड की मूल गैर जनजाति लोग हैं।
आदिवासी कबीलाई होते हैं जबकि सदान समुदायी होते हैं।
आदिवासी घुमन्तु स्वभाव के लोग हैं किन्तु कुछ कबीलाई लोग अब स्थायित्व प्राप्त करने लगे हैं जबकि सदान स्वभावतः घुमन्तु नहीं हैं, इनका स्वभाव स्थायी रहा है।
कई आदिवासी अनुसूचित नहीं हैं जबकि कई सदान जनजाति के रूप में अनुसूचित हैं।
भाषायी दृष्टि
भाषायी दृष्टि से वह गैर जनजातीय व्यक्ति जिसकी भाषा मौलिक रूप से (मातृभाषा की तरह) खोरठा, नागपुरी, पंचपरगनियां और कुरमाली है वहीं सदान हैं। डॉ बी.पी केशरी मानते हैं कि इन भाषाओं का मूल रूप नागजाति के विभिन्न कबीलों में विकसित हुआ होगा। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि भाषा केवल एक जाति तक सीमित नहीं रहती है अतः नाग दिसुम में नागराजा होंगे तो प्रजा के रूप में केवल नाग लोग ही तो नहीं रहे होंगे। अन्य जातियां भी रहीं होंगी और ये भाषाएं उनकी भी भाषाएं रही होंगी।
धार्मिक दृष्टि
धार्मिक दृष्टि से हिन्दू ही प्राचीन सदान हैं। इस्लाम का उद्भव 600 ई. में हुआ किन्तु इनका झारखण्ड आगमन 16वीं सदी में ही हो सका। इनसे पूर्व के जैन धर्मावलम्बी भी सदान हैं। इस प्रकार आज इन सभी धर्मावलंबियों की मातृभाषा जैनी और उर्दू या अरबी फारसी न होकर खोरठा, नागपुरी, पंचपरगनिया, कुरमाली आदि ही है चाहे वह किसी भी धर्म का हो और तभी वह सदान है। जिसकी मातृभाषा सादरी नहीं है वह सदान कैसे हो सकता है?
प्रजातीय दृष्टि
प्रजातीय दृष्टि से सदान आर्य माने जाते हैं। कुछ द्रविड वंशी भी सदान हैं और यहां तक कि कुछ आग्नेय कुल के लोग भी सदान हैं। आग्नेय कुल के लोग सदान इसलिए हैं क्योंकि इनकी भाषा आदि सादरी रही है तथा आग्नेय कुल के होते हुए भी इन्हें अनुसूचित नहीं किया गया है। ठीक उसी तरह जैसे की कुछ अनुसूचित लोग स्वयं को आग्नेय कुल का नहीं मानते हैं न ही प्रोटो-ऑस्ट्रोलायड मानते हैं। वे अपने को राजपूत कहते हैं।
पुरातात्विक अवशेषों से ज्ञात होता है कि असुर से पहले भी कोई एक सभ्य प्रजाति यहां आयी थी। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि वह सभ्य प्रजाति सदानों की होगी जो यहां की मूलवासी (Aborigines) थी। आखिर असुरों का लोहा गलाना क्या अपने लिए ही था? इतनी अधिक मात्रा में । लोहा का उत्पादन कोई अपने लिए ही नहीं करता है। असुरों के बाद मुण्डा और उसके बहुत बाद उरांव आते हैं तो ऐसा लगता है सदान उनके यहां आने के पूर्व से ही बसे हुए थे। मुण्डा और उरांवों का स्वागत सदानों ने किया होगा। इसी प्राचीनता की दृष्टि से सदान को कई कालों में विभाजित किया जा सकता है :
असुर से पूर्व वास करने वाली एक सभ्य प्रजाति जिसकी चर्चा इतिहासकार/मानव शास्त्री करते हैं, संभवतः वे सदान ही हों।
असुरों के काल के सदान तथा मुण्डाओं से पूर्व आकर बसे हुए सदान या अपने पूर्वजों से उत्पन्न हुए सदान की सामान्य जनसंख्या।
मुण्डाओं के साथ या उनके बाद आये सदान जो उरांव से पूर्व काल के थे।
उरांवों के साथ या उनके बाद आये सदान और पूर्वजों से विकसित सदान जनसंख्या
मुगल काल और ब्रिटिश काल के आये लोग।
आजादी के बाद आकर बसे हुए गैर आदिवासी जिनमें सदानों के लक्षण दिखाई नहीं पड़ते हैं। स्मरणीय है आजकल अंग्रेजों के साथ-साथ उनके द्वारा लाये गये अन्य शोषकों को (ठेकेदार आदि) तथा आजादी के बाद आये गैर जनजातीय लोगों को दिकू कहा जाने लगा।
जातीय दृष्टि से सदानों के प्रकार :
वैसी जातियां जो देश के अन्य हिस्सों में हैं और झारखण्ड क्षेत्र में भी हैं - ब्राह्मण, राजपूत, तेली, माली, कुम्हार, सोनार, कोयरी, अहीर, बनियां, डोम, चमार, दुसाध, ठाकुर और नाग जाति आदि।
वैसी जातियां जो केवल छोटानागपुर में ही मिलती हैं - बड़ाईक, देसावली, पाइक, धानुक, राउतिया, गोड़ाईत, घासी, भुइयां, पान, परमाणिक, तांती, स्वासी, कोस्टा, झोरा, रक्सेल, गोसाई, बरगाहा, बाउरी, भाट, बिंद, कांदु, लोहड़िया, खंडत, सराक, मलार आदि।
कई सदान जातियां ऐसी हैं जिनका गोत्र अवधिया, कनौजिया, तिरहुतिया, गौड़, पूर्विया, पछिमाहा, दखिनाहा आदि है। जिससे पता चलता है कि इनका मूल स्थान यहां न होकर कहीं बाहर है।
परन्तु कुछ जातियां ऐसी हैं जिनका गोत्र स्थानीय आदिवासी समुदायों की तरह है जिससे इनका मूल स्थान छोटानागपुर ही होगा यह माना जा सकता है।
सदानों की सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूपरेखा :
सदान और आदिवासी दोनों झारखण्ड के मूल निवासी हैं और उनकी संस्कृति साझा एवं एक-दूसरे से मिलजुल कर रहने की संस्कृति है।
धर्म - सदानों में सराक नामक एक छोटे क्षेत्र में अवस्थित जाति जैन धर्म से प्रभावित है। वे सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करते हैं तथा मांस, मछली का सेवन नहीं करते हैं। ये लोग सूर्य एवं मनसा के उपासक हैं। कुछ सदान वैष्णव परम्परा से प्रभावित हैं। 16वीं सदी के बाद से इस्लाम धर्मावलंबी भी यहां बस गये जो कालान्तर में सदान कहे गये। हिन्दुओं में देवी-देवता की पूजा-अर्चना ही धार्मिक परम्परा है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक सदान कुल देवी-देवता की पूजा-अर्चना करते. हैं। हिन्दू, मुस्लिम, जैन, वैष्णव, कबीरपंथी जैसे विविध धर्मावलम्बियों के कारण एक ओर गुरु पुरोहित की परम्परा है तो दूसरी ओर मुल्ला -मौलवियों की प्रथा भी है। यह कहना अप्रासंगिक कतई नहीं है कि सदानों की धार्मिक परम्परा में कही पुरोहित और कर्मकांड भी व्याप्त है तो किसी अन्य क्षेत्र के सदानों में इस कर्मकाण्ड का लेशमात्र भी नहीं दिखाई देता है।
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Mind blowing class 🎉thank u so much sir
Thanku sir 🙏
Sir ap jharkhand special ka Sara video playlist me serialwise kr digiye plzzzz sir, aise lecture dekhne me problem hoti h.plzzzzzz sir 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
Sir good morning ❤️
Good morning sir ❤️
Naam balki alag ho lekin same bhagvaan ko hi poojate h🎉
Itna late se video dijiyega to kaisa hoga sir
Sir mcq
Itna late vedio sir