Band Mutthi Lakh ki - Poem by Shashi Sudhanshu
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- เผยแพร่เมื่อ 21 ก.ย. 2024
- बंद मुट्ठी
बच्चे तेरी मुठ्ठी मे क्या है- अरसो पहले किसी ने था ये सवाल परोसा...
'तकदीर' जबाव सिखाया था मास्टर जी ने, तब ना समझ थी नाही उनपे भरोसा...
एक जबाब मिला था - शायद पतंग की डोर, कभी ना छूटने की तमन्ना के साथ,
या फिर बाबा के जेब से चुराए हुए अट्ठन्नी, दुनिया खरीदने के भरोसे के साथ ...
प्रसाद से चुन के निकाले वो लड्डू भी थे, जब समझता था सबसे बड़ी चीज़ है स्वाद,
समय भी बाँधा था मुठ्ठी मे, जो कुछ पल मिलते खेलने को स्कूल के बाद ...
लाल उस साइकल की हॅंडल भी थी, जब समझा नियंत्रण की शक्ति,
रिज़ल्ट वाले एक दिन के लिए, हनुमान जी का लोकेट और ईश्वर की भक्ति...
चुराए वो अमरूद, जिसे बाँटते वकत कलेजे से निकला खून दिखता था,
वो दस का नोट, जब एक लोहे के गेट के उस पार जिंदगी बिकता था...
वो खत भी था लाल स्याह वाला, जिसको चार राते लगी थी लिखने मे,
अध-गीली से वो सिगरेट, जलाया था जिसके उल्टा सीखने मे...
बड़े मस्शक्कत से खिड़की से ली गई लाल पर्ची जैसी सिनेमा की टिकट,
मुट्ठी मे कभी थी दोस्तों के साथ निभाने का वादा, जब समस्या आई विकट...
कभी बग़ावत का क्रोध भी क़ैद किया मुट्ठी मे, जब लगती थी पिताजी की फटकार,
मुचराई हुई वो गुलाब की पंखुरियाँ, जब जबाब मे आया था इनकार...
वो अख़बार जिसमे खबर छपी थी, इंजिनियरिंग मे हार की,
नुक्कड़ की चाय वाला शीशे का गिलास, जिसमे संतावना मिली थी दोस्तो के प्यार की...
पहला वो नौकरी का बुलावा पत्र, जब शुरुआत हुई कमाई,
दोस्तों की यादें सिमटी कभी इस मुट्ठी मे, जिसे वेबजह एक झगड़े मे थी गवाइं
एक सपना है मुट्ठी मे, जिसे जिए जा रहा हूँ,
जो सीखा, समझा आपको दिए जा रहा हूँ...
कट गयी थी पतंग, छूट गया वो डोर, छीन गयी थी अट्ठन्नी, पकड़ा गया था चोर
लड्डू का स्वाद, दुश्मनी की करवाहट निगल गयी, कमाई महीने के सौदे मे निकल गयी
एक दोस्त ढूंढता है बाँटने के लिए, लेकिन खरीदे अमरूद मे वो वो बात नही,
महफ़िल है ये पूरी जिंदगी पर कोई साथ नही...
अब कोई रिज़ल्ट नही निकलता, फिर भी हर दिन फेल होता है इंसान
वो लोकेट दराज मे छिपा देते हैं, कहीं शर्मिंदा ना हो जाय, जब आते हैं मेहमान
बंद मुट्ठी लाख की, खुल जाए तो खाक की - तुमने सुनी नही मैं बोलता रहा,
दोनो हाथो से और बटोरने के चक्कर मे तू मुट्ठी खोलता रहा...
- शशि सुधांशु