सुदर्शन चक्र की कहानी - Sudarshan chakra ki kahani
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- เผยแพร่เมื่อ 4 ก.พ. 2025
- यह कथा है भगवान विष्णु के परम शस्त्र, सुदर्शन चक्र की। सुदर्शन चक्र की उत्पत्ति का रहस्य बहुत प्राचीन है। यह वह समय था जब असुरों के अत्याचारों ने देवताओं और ऋषियों को त्रस्त कर दिया था। अधर्म बढ़ता जा रहा था और धर्म की रक्षा के लिए कोई अत्यंत शक्तिशाली शस्त्र आवश्यक था।
देवताओं ने देव शिल्पकार विश्वकर्मा से विनती की कि वे ऐसा शस्त्र तैयार करें जो समस्त अधर्मियों का नाश कर सके।
विश्वकर्मा जी ने विचार किया कि ऐसा दिव्य शस्त्र साधारण धातुओं से नहीं बनाया जा सकता। इसके लिए असाधारण बलिदान और दिव्य सामग्री चाहिए। इस उद्देश्य से देवराज इंद्र ने महर्षि दधीचि से विनती की।
धर्म की रक्षा के लिए महर्षि दधीचि ने अपनी अस्थियाँ देवराज इंद्र के अनुरोध पर स्वेच्छा से दान कर दी। उनकी पवित्र अस्थियों से विश्वकर्मा जी ने कई दिव्य शस्त्रों का निर्माण किया - वज्र, पाशुपतास्त्र और वही दिव्य चक्र, जिसे आज हम सुदर्शन चक्र के नाम से जानते हैं।
विश्वकर्मा जी ने जब सुदर्शन चक्र का निर्माण किया, तो उसकी दिव्यता और शक्ति इतनी महान थी कि उसे धारण करने की क्षमता केवल किसी परम योगी या तपस्वी के पास ही हो सकती थी। इसलिए उन्होंने इसे भगवान शिव को समर्पित किया, जो संहार और तप के प्रतीक थे।
लेकिन समय बीतता गया। असुरों का आतंक बढ़ने लगा। देवता मदद के लिए भगवान विष्णु के पास पहुँचे और विनती की कि वे कोई ऐसा उपाय करें, जिससे अधर्म का अंत हो सके।
भगवान विष्णु ने चिंतन किया और बोला कि केवल कोई दिव्य शक्ति ही इस कार्य को सिद्ध कर सकती है। तब उन्होंने निश्चय किया कि वह स्वयं भगवान शिव की तपस्या करेंगे और उनसे एक दिव्य शस्त्र प्राप्त करेंगे।
भगवान विष्णु कैलाश पर्वत पर पहुँचे। उन्होंने निश्चय किया कि वे भगवान शिव का पूजन सहस्त्र कमल पुष्पों से करेंगे। उन्हीं पुष्पों को लेकर उन्होंने घोर तप आरंभ किया।
वह एक-एक करके कमल पुष्प चढ़ाते गए। शिवजी ध्यानमग्न थे।
जब नौ सौ निन्यानवे पुष्प चढ़ चुके, तो विष्णु जी ने देखा कि एक पुष्प कम पड़ गया है। अब उनकी भक्ति तो अखंड थी। उन्होंने बिना विचलित हुए अपनी एक आँख को कमल पुष्प मानकर भगवान शिव को अर्पित कर दिया।
भगवान शिव उनकी इस भक्ति और त्याग से अत्यंत प्रसन्न हुए। वे ध्यान से जागे और बोले -
"हे नारायण! तुम्हारी भक्ति और समर्पण से मैं अति प्रसन्न हूँ। मांगो, क्या वर चाहिए?"
भगवान विष्णु ने विनम्रता से कहा - "हे महादेव! मैं ऐसा दिव्य शस्त्र चाहता हूँ, जो धर्म की रक्षा करे और अधर्म का संहार कर सके।"
तब भगवान शिव ने अपने तेज से सुदर्शन चक्र प्रकट किया। उन्होंने कहा -
"यह सुदर्शन चक्र, जिसमें सूर्य का तेज और अग्नि का ताप है, मैं तुम्हें प्रदान करता हूँ। यह चक्र सदा धर्म की रक्षा करेगा और अधर्म का नाश करेगा।"
इस प्रकार भगवान विष्णु को सुदर्शन चक्र प्राप्त हुआ। इस दिव्य चक्र ने समय-समय पर धर्म की रक्षा की।
जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के अपमान से आहत होकर आत्मदाह कर लिया, तब भगवान विष्णु ने ब्रह्मांड में संतुलन बनाए रखने के लिए सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खंडित कर दिया, जिससे उनके अंग पृथ्वी पर विभिन्न स्थानों पर गिरकर शक्तिपीठों का पवित्र स्वरूप बने। महाभारत में, भगवान कृष्ण ने राजसूय यज्ञ के दौरान शिशुपाल के लगातार अपमान और अपराधों के कारण सुदर्शन चक्र से उसका वध किया। कुरुक्षेत्र युद्ध में अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु की हत्या का प्रतिशोध लेने के लिए कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से कृत्रिम सूर्यास्त रचा, जिससे अर्जुन ने जयद्रथ का वध किया। समुद्र मंथन के समय, असुर राहु ने अमृत पी लिया था, लेकिन भगवान विष्णु ने उसे पहचान कर सुदर्शन चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया, जिससे उसका सिर राहु और धड़ केतु ग्रह बना।
भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र धर्म की स्थापना और अधर्म के नाश का प्रतीक है। इसकी कथा हमें यह सिखाती है कि त्याग, भक्ति और शक्ति का संयम ही सच्चा धर्म है।
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