बेणेश्वर धाम। आदिवासियो का महाकुंभ

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  • เผยแพร่เมื่อ 19 ต.ค. 2024
  • आदिवासियों के तीर्थ बेणेश्वर धाम
    संत मावजी महाराज वागड़ के महान संत थे। मावजी महाराज ने करीब 300 वर्ष पूर्व माही, सोम और जाखम नदी के संगम पर बेणेश्वर में तपस्या की थी। इनके द्वारा जनजाति समाज में सामाजिक चेतना जागृत करने के लिए भी प्रयास किए। उनकी याद में हर वर्ष बेणेश्वर धाम पर माघ पूर्णिमा पर सबसे बड़ा आदिवासी मेला भरता है।
    संत मावजी महाराज का विक्रम संवत 1771 को माघ शुक्ल पंचमी (बसंत पंचमी), बुधवार को साबला में दालम ऋषि के घर माता केसरबाई की कोख से जन्म हुआ। इसके बाद कठोर तपस्या उपरांत संवत 1784 में माघ शुक्ल ग्यारस को लीलावतार के रूप में संसार के सामने आए। मावजी महाराज ने साम्राज्यवाद के अंत, प्रजातंत्र की स्थापना, अछूतोद्धार, पाखंड और कलियुग के प्रभावों में वृद्धि, परिवेश, सामाजिक एवं सांसारिक परिवर्तनों पर स्पष्ट भविष्यवाणियां की हैं।
    भारत की राष्ट्रपति, श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ने बेणेश्वर धाम में राजस्थान के विभिन्न स्वयं सहायता समूहों से जुड़ी आदिवासी महिलाओं के एक समूह से बात की।
    कार्यक्रम के दौरान राष्ट्रपति ने भारत के लिए आत्मनिर्भरता के महत्व पर जोर दिया। उन्होंने बताया कि भारत तभी आत्मनिर्भर बन सकता है जब देश की हर इकाई आत्मनिर्भर होगी।
    राष्ट्रपति ने आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के लिए स्वयं सहायता समूहों और उनके सदस्यों की प्रशंसा की। उन्होंने यह जानकर भी प्रसन्नता व्यक्त की कि ये समूह न केवल कार्यशील पूंजी प्रदान कर रहे हैं बल्कि मानव और सामाजिक पूंजी के निर्माण में भी योगदान दे रहे हैं।
    बेणेश्वर धाम के बारे में
    बेणेश्वर धाम राजस्थान के आदिवासी बहुल जिले डूंगरपुर के मुख्यालय से लगभग 60 किमी दूर साबला तहसील में एक पवित्र तीर्थ स्थल है। इसे आदिवासियों का हरिद्वार, बगड़ का पुष्कर और बगड़ का कुम्भ भी कहा जाता है।
    बेणेश्वर धाम मेला
    बेणेश्वर धाम राजस्थान का एकमात्र स्थान है, जो सोम, माही और जाखम नदियों के पवित्र संगम पर स्थित है। हर वर्ष माघ शुक्ल पूर्णिमा को यहां विशाल मेला लगता है, जिसमें न केवल राजस्थान बल्कि गुजरात और मध्य प्रदेश से भी बड़ी संख्या में आदिवासी भाग लेते हैं। इसे आदिवासियों का कुम्भ और भीलों का प्रसिद्ध मेला भी कहा जाता है।
    संत मावजी का पवित्र स्थान
    बेणेश्वर धाम संत मावजी ने 300 वर्ष पूर्व बेणेश्वर धाम में तपस्या की थी। मावजी का पवित्र स्थान बेणेश्वर धाम का माघ मेला भगवान शिव को समर्पित है। मेले में आने वाले श्रद्धालु संगम में डुबकी लगाने के बाद भगवान शिव के दर्शन करते हैं।
    राजस्थान में जनजातियाँ
    भील
    भील राजस्थान की प्रमुख जनजाति हैं और इस क्षेत्र की कुल आदिवासी आबादी का लगभग 39% हिस्सा हैं। राजस्थान के बांसवाड़ा क्षेत्र में भीलों का प्रभुत्व है। डूंगरपुर में बेणेश्वर उत्सव भीलों का एक महत्वपूर्ण जमावड़ा है जहाँ वे गायन और नृत्य करके जश्न मनाते हैं। इसके अतिरिक्त, होली भीलों द्वारा मनाया जाने वाला एक और त्योहार है। भील संस्कृति में अंधविश्वास की जड़ें गहरी हैं।
    मीना
    मीना, राजस्थान की दूसरी सबसे बड़ी जनजाति, मूल रूप से सिंधु घाटी सभ्यता में निवास करती थी। इनका शेखावाटी क्षेत्र और राजस्थान के अन्य पूर्वी भागों पर प्रभुत्व है।
    गाड़िया लोहार
    मूल रूप से एक मार्शल जनजाति, गाड़िया लोहार को अपना नाम आकर्षक बैलगाड़ियों से मिला, जिन्हें गाडी के नाम से जाना जाता है। आजकल, वे खानाबदोश लोहार हैं। सम्राट अकबर द्वारा चित्तौड़गढ़ की लड़ाई में महाराणा प्रताप की हार के बाद उन्होंने अपनी मातृभूमि छोड़ दी।
    गरासिया
    गरासिया, दक्षिणी राजस्थान में आबू रोड क्षेत्र में रहने वाली एक छोटी सी राजपूत जनजाति है, जिसमें शादी के लिए भाग जाने की एक दिलचस्प परंपरा है।
    सहरिया
    सहरिया जंगलवासियों की एक जनजाति है जो दक्षिणी राजस्थान के कोटा, डूंगरपुर और सवाई माधोपुर क्षेत्रों में पाई जाती है। ऐसा माना जाता है कि उनकी उत्पत्ति भील समुदाय से हुई है और उन्हें राजस्थान की सबसे पिछड़ी जनजाति माना जाता है। उनकी आजीविका का मुख्य स्रोत शिकार और मछली पकड़ना है।
    डामोर
    डामोर, जो मुख्य रूप से किसान और मजदूर थे, गुजरात से राजस्थान चले गए और उदयपुर और डूंगरपुर जिलों में बस गए।
    राजस्थान की अन्य जनजातियों में शामिल हैं:
    मेव और बंजारा, यात्रा करने वाली जनजातियाँ
    रबारी, पशुपालक
    काठोड़ी, मेवाड़ क्षेत्र में निवासरत
    कंजर
    सांसी
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