@Sam thank you very much. Would you by any chance have the closing verses. I think a small part at the end is missing. Thank you for this amazing contribution 🙏
हे विष्णो, आप मुझे पितृदोष से मुक्त करो तथा मेरे दादा - दादी, नाना - नानी व सभी पूर्वज व अन्य सम्बन्धी जो किसी कारणवश अटके है ऊन्हे मोक्ष प्रदान करो व दिव्य लोक में स्थान प्रदान करने की कृपा करो। मै मेरी व उन सभी की गलतियों के लिए क्षमाप्रार्थी हूं । आप अवश्य कृपा करेंगे । ऐसा मेरा दृढ विश्वास है। धन्यवाद
Lord Vishnu 🙏🙏🙏 Let my ancestors enter into heaven, forgive all sins of my ancestors, bestow peace, protection, harmony upon my ancestors 🕉️🕉️🕉️ Om Namo Bhagawate Vasudevaya🙏🙏🙏
श्रीमद्भागवतान्तर्गत गजेन्द्र कृत भगवान का स्तवन ******************************** श्री शुक उवाच - श्री शुकदेव जी ने कहा एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि । जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम ॥१॥ बुद्धि के द्वारा पिछले अध्याय में वर्णित रीति से निश्चय करके तथा मन को हृदय देश में स्थिर करके वह गजराज अपने पूर्व जन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार बार दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन ही मन पाठ करने लगा ॥१॥ गजेन्द्र उवाच गजराज ने (मन ही मन) कहा - ऊं नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम । पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥१॥ जिनके प्रवेश करने पर (जिनकी चेतना को पाकर) ये जड शरीर और मन आदि भी चेतन बन जाते हैं (चेतन की भांति व्यवहार करने लगते हैं), ‘ओम’ शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण शरीर में प्रकृति एवं पुरुष रूप से प्रविष्ट हुए उन सर्व समर्थ परमेश्वर को हम मन ही मन नमन करते हैं ॥२॥ यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं । योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम ॥३॥ जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह निकला है , जिन्होने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रूप में प्रकट हैं - फिर भी जो इस दृश्य जगत से एवं इसकी कारणभूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण ) एवं श्रेष्ठ हैं - उन अपने आप - बिना किसी कारण के - बने हुए भगवान की मैं शरण लेता हूं ॥३॥ यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम । अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्ममूलोवतु मां परात्परः ॥४॥ अपने संकल्प शक्ति के द्वार अपने ही स्वरूप में रचे हुए और इसीलिये सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले इस शास्त्र प्रसिद्ध कार्य कारण रूप जगत को जो अकुण्ठित दृष्टि होने के कारण साक्षी रूप से देखते रहते हैं उनसे लिप्त नही होते, वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें ॥४॥ कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु । तमस्तदाsssसीद गहनं गभीरं यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः ॥५॥ समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर तथा पंचभूतों से लेकर महत्वपर्यंत सम्पूर्ण कारणों के उनकी परमकरुणारूप प्रकृति में लीन हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेय तथा अपार अंधकाररूप प्रकृति ही बच रही थी। उस अंधकार के परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान सब ओर प्रकाशित रहते हैं वे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥५॥ न यस्य देवा ऋषयः पदं विदु- र्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम । यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥ भिन्न भिन्न रूपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नही जान पाते , उसी प्रकार सत्त्व प्रधान देवता तथा ऋषि भी जिनके स्वरूप को नही जानते , फिर दूसरा साधारण जीव तो कौन जान अथवा वर्णन कर सकता है - वे दुर्गम चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा करें ॥६॥ दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः । चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः ॥७॥ आसक्ति से सर्वदा छूटे हुए , सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले , सबके अकारण हितू एवं अतिशय साधु स्वभाव मुनिगण जिनके परम मंगलमय स्वरूप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वन में रह कर अखण्ड ब्रह्मचार्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं , वे प्रभु ही मेरी गति हैं ॥७॥ न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा न नाम रूपे गुणदोष एव वा । तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यः स्वमायया तान्युलाकमृच्छति ॥८॥ जिनका हमारी तरह कर्मवश ना तो जन्म होता है और न जिनके द्वारा अहंकार प्रेरित कर्म ही होते हैं, जिनके निर्गुण स्वरूप का न तो कोई नाम है न रूप ही, फिर भी समयानुसार जगत की सृष्टि एवं प्रलय (संहार) के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं ॥८॥
तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेsनन्तशक्तये । अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे ॥९॥ उन अन्नतशक्ति संपन्न परं ब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार है । उन प्राकृत आकाररहित एवं अनेको आकारवाले अद्भुतकर्मा भगवान को बारंबार नमस्कार है ॥९॥ नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने । नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥१०॥ स्वयं प्रकाश एवं सबके साक्षी परमात्मा को नमस्कार है । उन प्रभु को जो नम, वाणी एवं चित्तवृत्तियों से भी सर्वथा परे हैं, बार बार नमस्कार है ॥१०॥ सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता । नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥११॥ विवेकी पुरुष के द्वारा सत्त्वगुणविशिष्ट निवृत्तिधर्म के आचरण से प्राप्त होने योग्य, मोक्ष सुख की अनुभूति रूप प्रभु को नमस्कार है ॥११॥ नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे । निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥ सत्त्वगुण को स्वीकार करके शान्त , रजोगुण को स्वीकर करके घोर एवं तमोगुण को स्वीकार करके मूढ से प्रतीत होने वाले, भेद रहित, अतएव सदा समभाव से स्थित ज्ञानघन प्रभु को नमस्कार है ॥१२॥ क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे । पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः ॥१३॥ शरीर इन्द्रीय आदि के समुदाय रूप सम्पूर्ण पिण्डों के ज्ञाता, सबके स्वामी एवं साक्षी रूप आपको नमस्कार है । सबके अन्तर्यामी , प्रकृति के भी परम कारण, किन्तु स्वयं कारण रहित प्रभु को नमस्कार है ॥१३॥ सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे । असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः ॥१४॥ सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता, समस्त प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड-प्रपंच एवं सबकी मूलभूता अविद्या के द्वारा सूचित होने वाले तथा सम्पूर्ण विषयों में अविद्यारूप से भासने वाले आपको नमस्कार है ॥१४॥ नमो नमस्ते खिल कारणाय निष्कारणायद्भुत कारणाय । सर्वागमान्मायमहार्णवाय नमोपवर्गाय परायणाय ॥१५॥ सबके कारण किंतु स्वयं कारण रहित तथा कारण होने पर भी परिणाम रहित होने के कारण, अन्य कारणों से विलक्षण कारण आपको बारम्बार नमस्कार है । सम्पूर्ण वेदों एवं शास्त्रों के परम तात्पर्य , मोक्षरूप एवं श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति भगवान को नमस्कार है ॥१५॥ ॥ गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय । नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम- स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥१६॥ जो त्रिगुणरूप काष्ठों में छिपे हुए ज्ञानरूप अग्नि हैं, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मन में सृष्टि रचने की बाह्य वृत्ति जागृत हो उठती है तथा आत्म तत्त्व की भावना के द्वारा विधि निषेध रूप शास्त्र से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महात्माओं में जो स्वयं प्रकाशित हो रहे हैं उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१।६॥ मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोsलयाय । स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत- प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥१७॥ मुझ जैसे शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीवों की अविद्यारूप फाँसी को सदा के लिये पूर्णरूप से काट देने वाले अत्याधिक दयालू एवं दया करने में कभी आलस्य ना करने वाले नित्यमुक्त प्रभु को नमस्कार है । अपने अंश से संपूर्ण जीवों के मन में अन्तर्यामी रूप से प्रकट रहने वाले सर्व नियन्ता अनन्त परमात्मा आप को नमस्कार है ॥१७॥ आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै- र्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय । मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥१८॥ शरीर, पुत्र, मित्र, घर, संपंत्ती एवं कुटुंबियों में आसक्त लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले तथा मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने हृदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञानस्वरूप , सर्वसमर्थ भगवान को नमस्कार है ॥१८॥
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति । किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम ॥१९॥ जिन्हे धर्म, अभिलाषित भोग, धन तथा मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं अपितु जो उन्हे अन्य प्रकार के अयाचित भोग एवं अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ती से सदा के लिये उबार लें ॥१९॥ एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थ वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः । अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं गायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः ॥२०॥ जिनके अनन्य भक्त -जो वस्तुतः एकमात्र उन भगवान के ही शरण है-धर्म , अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नही चाह्ते, अपितु उन्ही के परम मंगलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र में गोते लगाते रहते हैं ॥२०॥ तमक्षरं ब्रह्म परं परेश- मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम । अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूर- मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥२१॥ उन अविनाशी, सर्वव्यापक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिये प्रकट होने पर भी भक्तियोग द्वारा प्राप्त करने योग्य, अत्यन्त निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होने वाले , इन्द्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यन्त दुर्विज्ञेय, अन्तरहित किंतु सबके आदिकारण एवं सब ओर से परिपूर्ण उन भगवान की मैं स्तुति करता हूँ ॥२१॥ यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः । नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ॥२२॥ ब्रह्मादि समस्त देवता, चारों वेद तथा संपूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं ॥२२॥ यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः । तथा यतोयं गुणसंप्रवाहो बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ॥२३॥ जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि से लपटें तथा सूर्य से किरणें बार बार निकलती है और पुनः अपने कारण मे लीन हो जाती है उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर - यह गुणमय प्रपंच जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्ही में लीन हो जात है ॥२३॥ स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंग न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः । नायं गुणः कर्म न सन्न चासन निषेधशेषो जयतादशेषः ॥२४॥ वे भगवान न तो देवता हैं न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक (मनुष्य से नीची - पशु , पक्षी आदि किसी) योनि के प्राणी है । न वे स्त्री हैं न पुरुष और नपुंसक ही हैं । न वे ऐसे कोई जीव हैं, जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश हो सके । न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही । सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है और वे ही सब कुछ है । ऐसे भगवान मेरे उद्धार के लिये आविर्भूत हों ॥२४॥ जिजीविषे नाहमिहामुया कि- मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या । इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव- स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम ॥२५॥ मैं इस ग्राह के चंगुल से छूट कर जीवित नही रहना चाहता; क्योंकि भीतर और बाहर - सब ओर से अज्ञान से ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना है । मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने आप नाश नही होता , अपितु भगवान की दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है ॥२५॥
सोsहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम । विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम ॥२६॥ इस प्रकार मोक्ष का अभिलाषी मैं विश्व के रचियता, स्वयं विश्व के रूप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना बनाकर खेलने वाले, विश्व में आत्मरूप से व्याप्त , अजन्मा, सर्वव्यापक एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री भगवान को केवल प्रणाम ही करता हूं, उनकी शरण में हूँ ॥२६॥ योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते । योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोsस्म्यहम ॥२७॥ जिन्होने भगवद्भक्ति रूप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, वे योगी लोग उसी योग के द्वारा शुद्ध किये हुए अपने हृदय में जिन्हे प्रकट हुआ देखते हैं उन योगेश्वर भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२७॥ नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग- शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय । प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥२८॥ जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्त्व-रज-तमरूप ) शक्तियों का रागरूप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयरूप में प्रतीत हो रहे हैं, तथापि जिनकी इन्द्रियाँ विषयों में ही रची पची रहती हैं-ऐसे लोगों को जिनका मार्ग भी मिलना असंभव है, उन शरणागतरक्षक एवं अपारशक्तिशाली आपको बार बार नमस्कार है ॥२८॥ नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम । तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोsस्म्यहम ॥२९॥ जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्यरूप अहंकार से ढंके हुए अपने स्वरूप को यह जीव जान नही पाता, उन अपार महिमा वाले भगवान की मैं शरण आया हूँ ॥२९॥ श्री शुकदेव उवाच - श्री शुकदेवजी ने कहा - एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः । नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात तत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत ॥३०॥ जिसने पूर्वोक्त प्रकार से भगवान के भेदरहित निराकार स्वरूप का वर्णन किया था , उस गजराज के समीप जब ब्रह्मा आदि कोई भी देवता नही आये, जो भिन्न भिन्न प्रकार के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरूप मानते हैं, तब सक्षात श्री हरि- जो सबके आत्मा होने के कारण सर्वदेवस्वरूप हैं-वहाँ प्रकट हो गये ॥३०॥ तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि : । छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान - श्चक्रायुधोsभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥३१॥ उपर्युक्त गजराज को उस प्रकार दुःखी देख कर तथा उसके द्वारा पढी हुई स्तुति को सुन कर सुदर्शनचक्रधारी जगदाधार भगवान इच्छानुरूप वेग वाले गरुड जी की पीठ पर सवार होकर स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थान अपर पहुँच गये जहाँ वह हाथी था । सोsन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम । उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा - न्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते ॥३२॥ सरोवर के भीतर महाबली ग्राह के द्वारा पकडे जाकर दुःखी हुए उस हाथी ने आकाश में गरुड की पीठ पर सवार चक्र उठाये हुए भगवान श्री हरि को देखकर अपनी सूँड को -जिसमें उसने (पूजा के लिये) कमल का एक फूल ले रक्खा था-ऊपर उठाया और बडी ही कठिनाई से “सर्वपूज्य भगवान नारायण आपको प्रणाम है” यह वाक्य कहा ॥३२॥ तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार । ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं सम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम ॥३३॥ उसे पीडित देख कर अजन्मा श्री हरि एकाएक गरुड को छोडकर नीचे झील पर उतर आये । वे दया से प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराज को तत्काल झील से बाहर निकाल लाये और देवताओं के देखते देखते चक्र से मुँह चीर कर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया ॥३३॥
O God Iallow my ancestors to enter heaven forgive all their sins have mercy and forgive them for all their sins may their soul rest peace let my ancestors happy live in joyful peace in Jesus name amen
O Lord, Creator, BrahmaVishnuMaheshDurgaGanesh give my ancestors the highest place in Heaven and let my ancestors be happy and joyful and peaceful, in Jesus name I pray Amen
तमक्षरं ब्रह्म परं परेश- मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम । अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूर- मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥२१॥ उन अविनाशी, सर्वव्यापक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिये प्रकट होने पर भी भक्तियोग द्वारा प्राप्त करने योग्य, अत्यन्त निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होने वाले , इन्द्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यन्त दुर्विज्ञेय, अन्तरहित किंतु सबके आदिकारण एवं सब ओर से परिपूर्ण उन भगवान की मैं स्तुति करता हूँ ॥२१॥ यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः । नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ॥२२॥ ब्रह्मादि समस्त देवता, चारों वेद तथा संपूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं ॥२२॥ यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः । तथा यतोयं गुणसंप्रवाहो बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ॥२३॥ जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि से लपटें तथा सूर्य से किरणें बार बार निकलती है और पुनः अपने कारण मे लीन हो जाती है उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर - यह गुणमय प्रपंच जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्ही में लीन हो जात है ॥२३॥ स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंग न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः । नायं गुणः कर्म न सन्न चासन निषेधशेषो जयतादशेषः ॥२४॥ वे भगवान न तो देवता हैं न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक (मनुष्य से नीची - पशु , पक्षी आदि किसी) योनि के प्राणी है । न वे स्त्री हैं न पुरुष और नपुंसक ही हैं । न वे ऐसे कोई जीव हैं, जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश हो सके । न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही । सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है और वे ही सब कुछ है । ऐसे भगवान मेरे उद्धार के लिये आविर्भूत हों ॥२४॥ जिजीविषे नाहमिहामुया कि- मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या । इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव- स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम ॥२५॥ मैं इस ग्राह के चंगुल से छूट कर जीवित नही रहना चाहता; क्योंकि भीतर और बाहर - सब ओर से अज्ञान से ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना है । मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने आप नाश नही होता , अपितु भगवान की दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है ॥२५॥ सोsहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम । विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम ॥२६॥ इस प्रकार मोक्ष का अभिलाषी मैं विश्व के रचियता, स्वयं विश्व के रूप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना बनाकर खेलने वाले, विश्व में आत्मरूप से व्याप्त , अजन्मा, सर्वव्यापक एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री भगवान को केवल प्रणाम ही करता हूं, उनकी शरण में हूँ ॥२६॥ योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते । योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोsस्म्यहम ॥२७॥ जिन्होने भगवद्भक्ति रूप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, वे योगी लोग उसी योग के द्वारा शुद्ध किये हुए अपने हृदय में जिन्हे प्रकट हुआ देखते हैं उन योगेश्वर भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२७॥ नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग- शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय । प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥२८॥ जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्त्व-रज-तमरूप ) शक्तियों का रागरूप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयरूप में प्रतीत हो रहे हैं, तथापि जिनकी इन्द्रियाँ विषयों में ही रची पची रहती हैं-ऐसे लोगों को जिनका मार्ग भी मिलना असंभव है, उन शरणागतरक्षक एवं अपारशक्तिशाली आपको बार बार नमस्कार है ॥२८॥ नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम । तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोsस्म्यहम ॥२९॥ जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्यरूप अहंकार से ढंके हुए अपने स्वरूप को यह जीव जान नही पाता, उन अपार महिमा वाले भगवान की मैं शरण आया हूँ ॥२९॥ श्री शुकदेव उवाच - श्री शुकदेवजी ने कहा - एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः । नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात तत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत ॥३०॥ जिसने पूर्वोक्त प्रकार से भगवान के भेदरहित निराकार स्वरूप का वर्णन किया था , उस गजराज के समीप जब ब्रह्मा आदि कोई भी देवता नही आये, जो भिन्न भिन्न प्रकार के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरूप मानते हैं, तब सक्षात श्री हरि- जो सबके आत्मा होने के कारण सर्वदेवस्वरूप हैं-वहाँ प्रकट हो गये ॥३०॥
श्रीमद्भागवतान्तर्गत गजेन्द्र कृत भगवान का स्तवन ******************************** श्री शुक उवाच - श्री शुकदेव जी ने कहा एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि । जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम ॥१॥ बुद्धि के द्वारा पिछले अध्याय में वर्णित रीति से निश्चय करके तथा मन को हृदय देश में स्थिर करके वह गजराज अपने पूर्व जन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार बार दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन ही मन पाठ करने लगा ॥१॥ गजेन्द्र उवाच गजराज ने (मन ही मन) कहा - ऊं नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम । पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥१॥ जिनके प्रवेश करने पर (जिनकी चेतना को पाकर) ये जड शरीर और मन आदि भी चेतन बन जाते हैं (चेतन की भांति व्यवहार करने लगते हैं), ‘ओम’ शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण शरीर में प्रकृति एवं पुरुष रूप से प्रविष्ट हुए उन सर्व समर्थ परमेश्वर को हम मन ही मन नमन करते हैं ॥२॥ यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं । योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम ॥३॥ जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह निकला है , जिन्होने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रूप में प्रकट हैं - फिर भी जो इस दृश्य जगत से एवं इसकी कारणभूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण ) एवं श्रेष्ठ हैं - उन अपने आप - बिना किसी कारण के - बने हुए भगवान की मैं शरण लेता हूं ॥३॥ यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम । अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्ममूलोवतु मां परात्परः ॥४॥ अपने संकल्प शक्ति के द्वार अपने ही स्वरूप में रचे हुए और इसीलिये सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले इस शास्त्र प्रसिद्ध कार्य कारण रूप जगत को जो अकुण्ठित दृष्टि होने के कारण साक्षी रूप से देखते रहते हैं उनसे लिप्त नही होते, वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें ॥४॥ कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु । तमस्तदाsssसीद गहनं गभीरं यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः ॥५॥ समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर तथा पंचभूतों से लेकर महत्वपर्यंत सम्पूर्ण कारणों के उनकी परमकरुणारूप प्रकृति में लीन हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेय तथा अपार अंधकाररूप प्रकृति ही बच रही थी। उस अंधकार के परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान सब ओर प्रकाशित रहते हैं वे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥५॥ न यस्य देवा ऋषयः पदं विदु- र्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम । यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥ भिन्न भिन्न रूपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नही जान पाते , उसी प्रकार सत्त्व प्रधान देवता तथा ऋषि भी जिनके स्वरूप को नही जानते , फिर दूसरा साधारण जीव तो कौन जान अथवा वर्णन कर सकता है - वे दुर्गम चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा करें ॥६॥ दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः । चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः ॥७॥ आसक्ति से सर्वदा छूटे हुए , सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले , सबके अकारण हितू एवं अतिशय साधु स्वभाव मुनिगण जिनके परम मंगलमय स्वरूप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वन में रह कर अखण्ड ब्रह्मचार्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं , वे प्रभु ही मेरी गति हैं ॥७॥ न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा न नाम रूपे गुणदोष एव वा । तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यः स्वमायया तान्युलाकमृच्छति ॥८॥ जिनका हमारी तरह कर्मवश ना तो जन्म होता है और न जिनके द्वारा अहंकार प्रेरित कर्म ही होते हैं, जिनके निर्गुण स्वरूप का न तो कोई नाम है न रूप ही, फिर भी समयानुसार जगत की सृष्टि एवं प्रलय (संहार) के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं ॥८॥ तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेsनन्तशक्तये । अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे ॥९॥ उन अन्नतशक्ति संपन्न परं ब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार है । उन प्राकृत आकाररहित एवं अनेको आकारवाले अद्भुतकर्मा भगवान को बारंबार नमस्कार है ॥९॥ नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने । नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥१०॥ स्वयं प्रकाश एवं सबके साक्षी परमात्मा को नमस्कार है । उन प्रभु को जो नम, वाणी एवं चित्तवृत्तियों से भी सर्वथा परे हैं, बार बार नमस्कार है ॥१०॥
तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि : । छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान - श्चक्रायुधोsभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥३१॥ उपर्युक्त गजराज को उस प्रकार दुःखी देख कर तथा उसके द्वारा पढी हुई स्तुति को सुन कर सुदर्शनचक्रधारी जगदाधार भगवान इच्छानुरूप वेग वाले गरुड जी की पीठ पर सवार होकर स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थान अपर पहुँच गये जहाँ वह हाथी था । सोsन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम । उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा - न्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते ॥३२॥ सरोवर के भीतर महाबली ग्राह के द्वारा पकडे जाकर दुःखी हुए उस हाथी ने आकाश में गरुड की पीठ पर सवार चक्र उठाये हुए भगवान श्री हरि को देखकर अपनी सूँड को -जिसमें उसने (पूजा के लिये) कमल का एक फूल ले रक्खा था-ऊपर उठाया और बडी ही कठिनाई से “सर्वपूज्य भगवान नारायण आपको प्रणाम है” यह वाक्य कहा ॥३२॥ तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार । ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं सम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम ॥३३॥ उसे पीडित देख कर अजन्मा श्री हरि एकाएक गरुड को छोडकर नीचे झील पर उतर आये । वे दया से प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराज को तत्काल झील से बाहर निकाल लाये और देवताओं के देखते देखते चक्र से मुँह चीर कर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया ॥३३॥
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम। पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥ हिन्दी में अर्थ- गजेंद्र ने मन ही मन श्री हरी को ध्यान करते हुए कहा कि, जिनके प्रवेश करने से शरीर और मस्तिष्क चेतन की तरह व्यवहार करने लगते हैं, ॐ द्वारा लक्षित और पूरे शरीर में प्रकृति और पुरुष के रूप में प्रवेश करने वाले उस सर्व शक्तिमान देवता का मैं मन ही मन स्मरण करता हूँ। यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं। योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम॥ हिन्दी में अर्थ- जिनके सहारे ये पूरा संसार टिका हुआ है, जिनसे ये संसार अवतरित हुआ है, जिन्होनें प्रकृति की रचना की है और जो खुद उसके रूप में प्रकट हैं, लेकिन इसके वाबजूद भी वो इस दूनिया से सर्वोपरि और श्रेष्ठ हैं। ऐसे अपने आप और बिना किसी कारण के भगवान् की मैं शरण में जाता हूँ। यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितंक्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम। अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षतेस आत्ममूलोवतु मां परात्परः॥ हिन्दी में अर्थ- अपने संकल्प शक्ति के बल पर अपने ही स्वरूप में रचित और सृष्टि काल में प्रकट एवं प्रलय में अप्रकट रहने वाले, इस शास्त्र प्रसिद्धि प्राप्त कार्य कारण रुपी संसार को जो बिना कुंठित दृष्टि के साक्ष्य रूप में देखते रहने पर भी लिप्त नहीं होते, चक्षु आदि प्रकाशकों के परम प्रकाशक प्रभु आप मेरी रक्षा करें
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशोलोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु। तमस्तदाऽऽऽसीद गहनं गभीरंयस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः।। हिन्दी में अर्थ- बीतते गए समय के साथ तीनों लोकों और ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर और पंचभूतों से लेकर महत्वपूर्ण सभी कारणों के उनकी परमकरूणा स्वरूप प्रकृति में मग्न हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेर और घोर अंडकार रूपेण प्रकृति ही बच रही थी। उस अन्धकार से परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापी भगवान सभी दिशाओं में प्रकाशित होते रहते हैं, वो भगवान मेरी रक्षा करें। न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम। यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतोदुरत्ययानुक्रमणः स मावतु॥ हिन्दी में अर्थ- विभिन्न नाट्य रूपों में अभिनय करने वाले और उस अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार से साधारण लोग भी नहीं पहचान पाते, उसी तरह से सत्त्व प्रधान देवता और महर्षि भी जिनके स्वरूप को नहीं जान पाते, ऐसे में कोई साधारण प्राणी उनका वर्णन कैसे कर सकता है। ऐसे दुर्गम चरित्र वाले भगवान मेरी रक्षा करें। दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलमविमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः। चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वनेभूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः॥ हिन्दी में अर्थ- अनेको शक्ति से मुक्त, सभी प्राणियों को आत्मबुद्धि प्रदान करने वाले, सबके बिना कारण हित और अतिशय साधु स्वभाव ऋषि मुनि जन जिनके परम स्वरूप को देखने की इच्छा के साथ वन में रहकर अखंड ब्रह्मचर्य तमाम अलौकिक व्रतों को नियमों के अनुसार पालन करते हैं, ऐसे प्रभु ही मेरी गति हैं। न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वान नाम रूपे गुणदोष एव वा। तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यःस्वमायया तान्युलाकमृच्छति॥ हिन्दी में अर्थ- वह जिनका हमारी तरह ना तो जन्म होता है और ना जिनका अहंकार में कोई भी काम नहीं होता है, जिनके निर्गुण रूप का ना कोई नाम है और ना कोई रूप है, इसके बावजूद भी वह समय के साथ इस संसार की सृष्टि और प्रलय के लिए अपनी इच्छा से अपने जन्म को स्वीकार करते हैं।
तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेऽनन्तशक्तये। अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे॥ हिन्दी में अर्थ- उस अनंत शक्ति वाले परम ब्रह्मा परमेश्वर को मेरा ननस्कार है। प्राकृत, आकार रहित और अनेक रूप वाले अद्भुत भगवान् को मेरा बार बार नमस्कार है। नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने। नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि॥ हिन्दी में अर्थ- स्वयं प्रकाशित सभी साक्ष्य परमेश्वर को मेरा शत् शत् नमन है। वैसे देव जो नम, वाणी और चित्तवृतियों से परे हैं उन्हें मेरा बारंबार नमस्कार है। सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता। नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे॥ हिन्दी में अर्थ- विवेक से परिपूर्ण, पुरुष के द्वारा सभी सत्त्व गुणों से परिपूर्ण, निवृति धर्म के आचरण से मिलने वाले योग्य, मोक्ष सुख की अनुभूति रुपी भगवान को मेरा नमस्कार है। नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे। निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च॥ हिन्दी में अर्थ- सभी गुणों के स्वीकार शांत, रजोगुण को स्वीकार करके अत्यंत और तमोगुण को अपनाकर मूढ़ से जाने जाने वाले, बिना भेद के और हमेशा सद्भाव से ज्ञानधनी प्रभु को मेरा नमस्कार है।
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे। पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः॥ हिन्दी में अर्थ- शरीर के इंद्रिय के समुदाय रूप , सभी पिंडों के ज्ञाता, सबों के स्वामी और साक्षी स्वरूप देव आपको मेरा नमस्कार। सबो के अंतर्यामी, प्रकृति के परम कारण लेकिन स्वयं बिना कारण भगवान को मेरा शत शत नमस्कार। सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे। असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः॥ हिन्दी में अर्थ- सभी इन्द्रियों और सभी विषयों के जानकार, सभी प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड़-प्रपंच और सबकी मूलभूता अविद्या के द्वारा सूचित होने वाले और सभी विषयों में अविद्यारूप से भासने वाले भगवान को मेरा नमस्कार है। नमो नमस्ते खिल कारणायनिष्कारणायद्भुत कारणाय। सर्वागमान्मायमहार्णवायनमोपवर्गाय परायणाय॥ हिन्दी में अर्थ- सबके कारण, लेकिन स्वयं बिना कारण होने पर भी, बिना किसी परिणाम के होने की वजह से, अन्य कारणों से भी विलक्षण कारण, आपको मेरा बार बार नमस्कार है। सभी वेदों और शास्त्रों के परम तात्पर्य, मोक्षरूपी और श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति देवता को मेरा नमस्कार है। गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपायतत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय। नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि॥ हिन्दी में अर्थ- वह जो त्रिगुण रूपो में छिपी हुई ज्ञान रुपी अग्नि हैं, वैसे गुणों में हलचल होने पर जिनके मन मस्तिष्क में संसार को रचने की वृति उत्पन्न हो उठती हो और जो आत्मा तत्व की भावना के द्वारा विधि निषेध रूप शास्त्र से भी ऊपर उठे हो, जो महाज्ञानी महत्माओं में स्वयं प्रकाशित हो रहे हैं, ऐसे भगवान को मेरा नमस्कार है। मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणायमुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय। स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते॥ हिन्दी में अर्थ- मेरे जैसे शरणागत, पशु के सामान जीवों की अविद्यारूप, फांसी को पूर्ण रूप से काट देने वाले परम दयालु और दया दिखने में कभी भी आलस नहीं करने वाले भगवान को मेरा नमस्कार है। अपने अंश से सभी जीवों के मन में अंतर्यामी रूप से प्रकट होने वाले सर्व नियंता अनंत परमात्मा आपको मेरा नमस्कार है। आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय। मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभावितायज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय॥ हिन्दी में अर्थ- जो शरीर, पुत्र, मित्र, घर और संपत्ति सहित कुटुंबियों में अशक्त लोगों के द्वारा कठिनाई से मिलते हो और मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने ह्रदय में निरंतर चिंतित ज्ञानस्वरूप, सर्व समर्थ परमेश्वर को मेरा नमस्कार है। यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामाभजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति। किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययंकरोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम॥ हिन्दी में अर्थ- वह जिन्हें धर्म, अभिलषित भोग, धन और मोक्ष की कामना से मनन करके लोग अपनी मनचाही इच्छा पूर्ण कर लेते हैं। अपितु जिन्हे विभिन्न प्रकार के अयाचित भोग और अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं, वैसे अत्यंत दयालु प्रभु मुझे इस प्रकार के विपदा से हमेशा के लिए बाहर निकालें।
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थवांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः। अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलंगायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः॥ हिन्दी में अर्थ- वह जिनके एक से अधिक भक्त है, जो मुख्य रूप से एकमात्र उसी भगवान् के शरण में हैं। जो धर्म, अर्थ आदि किसी भी पदार्थ की अभिलासा नहीं रखते है, जो केवल उन्ही के परम मंगलमय एवं अत्यंत विलक्षण चरित्र का गुणगान करते हुए उनके आनंदमय समुद्र में गोते लगाते रहते हैं। तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम। अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूर-मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे॥ हिन्दी में अर्थ- उन अविनाशी, सर्वव्यापी, सर्वमान्य, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिए भी हमेशा प्रकट होने वाले, भक्तियोग द्वारा प्राप्त, अत्यंत निकट होने पर भी माया के कारण अत्यंत दूर महसूस होने वाले, इन्द्रियों के द्वारा अगम्य और अत्यंत दुर्विज्ञेय, अंतरहित लेकिन सभी के आदिकारक और सभी तरफ से परिपूर्ण उस भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ। यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः। नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः॥ हिन्दी में अर्थ- वो जो ब्रह्मा सहित सभी देवता, चारों वेद, समस्त चर और अचर जीव के नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यंत छुद्र अंशों से रचयित हैं। यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयोनिर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः। तथा यतोयं गुणसंप्रवाहोबुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः॥ हिन्दी में अर्थ- जिस तरह से जलती हुई अग्नि की लपटें और सूरज की किरणें हर बार बाहर निकलती हैं और फिर से अपने कारण में लीन हो जाती है, उसी प्रकार बुद्धि, मस्तिष्क, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर जिन सभी गुणों से प्राप्त शरीर, जो स्वयं प्रकाश परमात्मा से अवतरित होकर फिर से उन्हें में लीं हो जाता है। स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंगन स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः। नायं गुणः कर्म न सन्न चासननिषेधशेषो जयतादशेषः॥ हिन्दी में अर्थ- वह भगवान जो ना तो देवता हैं, ना असुर, ना मनुष्य और ना ही मनुष्य से नीचे किसी अन्य योनि के प्राणी। ना ही वो स्त्री हैं, ना पुरुष और ना ही नपुंसक और ना ही वो कोई ऐसे जीव हैं जिनका इन तीनों ही श्रेणी में समावेश है। वो ना तो गुण हैं, ना कर्म, वो ना ही कार्य हैं और ना ही कारण। इन सभी योनियों का निषेध होने पर जो बचता है, वही उनका असली रूप है। ऐसे प्रभु मेरा उत्थान करने के लिए प्रकट हो। जिजीविषे नाहमिहामुया कि मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या। इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम॥ हिन्दी में अर्थ- अब मैं इस मगरमच्छ के चंगुल से आजाद होने के बाद जीवित नहीं रहना चाहता, इसकी वजह ये हैं कि मैं सभी तरफ से अज्ञानता से ढके इस हाथी के शरीर का क्या करूँ। मैं आत्मा के प्रकाश से ढक देने वाले अज्ञानता से युक्त इस हाथी के शरीर से मुक्त होना चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने नाश नहीं होता, बल्कि ईश्वर की दया और ज्ञान से उदय हो पाता है। सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम। विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम॥ हिन्दी में अर्थ- इस प्रकार से मोक्ष के लिए लालायित संसार के रचियता, स्वयं संसार के रूप में प्रकट, लेकिन संसार से परे, संसार में एक खिलौने की भांति खेलने वाले, संसार में आत्मरूप से व्याप्त, अजन्मा, सर्वव्यापी एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री हरी का केवल स्मरण करता हूँ और उनकी शरण में जाता हूँ। योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते। योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम॥ हिन्दी में अर्थ- वह जिन्होनें भगवद्शक्ति रूपी योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, जिन्हे समस्त योगी, ऋषि अपने योग के द्वारा अपनी शुद्ध ह्रदय में प्रकट देखते हैं, उन योगेश्वर भगवान् को मेरा नमस्कार है। नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय। प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तयेकदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने॥ हिन्दी में अर्थ- वह जिनके तीगुणे शक्तियों का राग, रूप वेग और असह्य है, जो सभी इन्द्रियों के विषय रूप में मौजूद है, वह जिनकी इन्द्रियां समस्त विषयों में ही बसी रहती है, ऐसे लोगों जिनको मार्ग मिलना भी संभव नहीं है, वैसे शरणागत एवं अपार शक्तिशाली वाले भगवान आपको मेरा बारंबार नमस्कार है। नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम। तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम॥ हिन्दी में अर्थ- वह जिनकी अविद्या नाम के शक्ति के कार्यरूप से ढँके हुए है, वह जिनके रूप को जीव समझ नहीं पाते है, ऐसे अपार महिमा वाले भगवान की मैं शरण लेता हूँ।
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषंब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः। नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वाततत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत॥ हिन्दी में अर्थ- श्री शुकदेव जी कहते हैं कि, वह जिसने पूर्व प्रकार से भगवान के भेदरहित सभी निराकार रूप का वर्णन किया था, उस गजराज के करीब जब ब्रह्माजी साथ में अन्य कोई देवता नहीं आये, जो अपने विभिन्न प्रकार के विशेष विग्रहों को ही अपना रूप मानते हैं, ऐसे में साक्षात् विष्णु जी, जो सभी के आत्मा होने के कारण सभी देवताओं के रूप हैं, तब वहां प्रकट हुए। तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासःस्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि:। छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः॥ हिन्दी में अर्थ- गजराज को इस प्रकार से दुखी देखकर और उसके पढ़े गए स्तुति को सुनकर चक्रधारी प्रभु इच्छानुसार वेग वाले गरुड़ की पीठ पर सवार होकर सभी देवों के साथ उस स्थान पर पहुंचे जहाँ वह गज था। सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम। उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छान्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते॥ हिन्दी में अर्थ- सरोवर के अंदर महाबलशाली मगरमच्छ द्वारा जकड़े और दुखी उस हाथी ने आसमान में गरुड़ की पीठ पर बैठे और हाथों में चक्र लिए भगवान् विष्णु को आते हुए जब देख, तो वह अपनी सूँड में पहले से ही उनकी पूजा के लिए रखे कमल के फूल को श्री हरी पर बरसाते हुए कहने लगा ''सर्वपूज्य भगवान श्री हरी आपको मेरा प्रणाम ''सर्वपूज्य भगवान् श्री हरी आपको मेरा नमस्कार''। तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्यसग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार। ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रंसम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम॥ हिन्दी में अर्थ- लाचार हाथी को देखकर श्री हरी विष्णु, गरुड़ से नीचे उतरकर सरोवर में उतर आये और बेहद दुखी होकर ग्राह सहित उस गज को तुरंत ही सरोवर से बहार निकाल आये और देखते ही देखते अपने चक्र से मगरमच्छ के गर्दन को काट दिए और हाथी को उस पीड़ा से बहार निकाल लिया।
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता । नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥११॥ विवेकी पुरुष के द्वारा सत्त्वगुणविशिष्ट निवृत्तिधर्म के आचरण से प्राप्त होने योग्य, मोक्ष सुख की अनुभूति रूप प्रभु को नमस्कार है ॥११॥ नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे । निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥ सत्त्वगुण को स्वीकार करके शान्त , रजोगुण को स्वीकर करके घोर एवं तमोगुण को स्वीकार करके मूढ से प्रतीत होने वाले, भेद रहित, अतएव सदा समभाव से स्थित ज्ञानघन प्रभु को नमस्कार है ॥१२॥ क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे । पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः ॥१३॥ शरीर इन्द्रीय आदि के समुदाय रूप सम्पूर्ण पिण्डों के ज्ञाता, सबके स्वामी एवं साक्षी रूप आपको नमस्कार है । सबके अन्तर्यामी , प्रकृति के भी परम कारण, किन्तु स्वयं कारण रहित प्रभु को नमस्कार है ॥१३॥ सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे । असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः ॥१४॥ सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता, समस्त प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड-प्रपंच एवं सबकी मूलभूता अविद्या के द्वारा सूचित होने वाले तथा सम्पूर्ण विषयों में अविद्यारूप से भासने वाले आपको नमस्कार है ॥१४॥ नमो नमस्ते खिल कारणाय निष्कारणायद्भुत कारणाय । सर्वागमान्मायमहार्णवाय नमोपवर्गाय परायणाय ॥१५॥ सबके कारण किंतु स्वयं कारण रहित तथा कारण होने पर भी परिणाम रहित होने के कारण, अन्य कारणों से विलक्षण कारण आपको बारम्बार नमस्कार है । सम्पूर्ण वेदों एवं शास्त्रों के परम तात्पर्य , मोक्षरूप एवं श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति भगवान को नमस्कार है ॥१५॥ ॥ गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय । नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम- स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥१६॥ जो त्रिगुणरूप काष्ठों में छिपे हुए ज्ञानरूप अग्नि हैं, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मन में सृष्टि रचने की बाह्य वृत्ति जागृत हो उठती है तथा आत्म तत्त्व की भावना के द्वारा विधि निषेध रूप शास्त्र से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महात्माओं में जो स्वयं प्रकाशित हो रहे हैं उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१।६॥ मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोsलयाय । स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत- प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥१७॥ मुझ जैसे शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीवों की अविद्यारूप फाँसी को सदा के लिये पूर्णरूप से काट देने वाले अत्याधिक दयालू एवं दया करने में कभी आलस्य ना करने वाले नित्यमुक्त प्रभु को नमस्कार है । अपने अंश से संपूर्ण जीवों के मन में अन्तर्यामी रूप से प्रकट रहने वाले सर्व नियन्ता अनन्त परमात्मा आप को नमस्कार है ॥१७॥ आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै- र्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय । मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥१८॥ शरीर, पुत्र, मित्र, घर, संपंत्ती एवं कुटुंबियों में आसक्त लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले तथा मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने हृदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञानस्वरूप , सर्वसमर्थ भगवान को नमस्कार है ॥१८॥ यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति । किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम ॥१९॥ जिन्हे धर्म, अभिलाषित भोग, धन तथा मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं अपितु जो उन्हे अन्य प्रकार के अयाचित भोग एवं अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ती से सदा के लिये उबार लें ॥१९॥ एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थ वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः । अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं गायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः ॥२०॥ जिनके अनन्य भक्त -जो वस्तुतः एकमात्र उन भगवान के ही शरण है-धर्म , अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नही चाह्ते, अपितु उन्ही के परम मंगलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र में गोते लगाते रहते हैं ॥२०॥
Sir, if you release along with Lyrics or wordings of this Gajendra Moksha stotra it be very helpful, because it only a stotra that anyone can recite, unlike Vedas it be recited only under initiation from a Guru and so please help us recite the stotras atleast, Thanking you in anticipation.
Hey baghwan ji maa k job bacha k rakiye ga plz naryan gorshan k parbhar bacha k rakiye ga plz baghwan ji tanvi paisa daa hmko plz baghwan ji maa k job bacha k rakiye ga plz baghwan ji mummy k clinic par marij aa jye plz baghwan ji maa k job bacha k rakiye ga plz baghwan ji maa k job bacha k rakiye ga plz baghwan ji
ओं नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ||
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम
योऽस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम ||
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम
अविद्धदृक्साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्ममूलोऽवतु मां परात्परः ||
कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्नशो लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु
तमस्तदासीद्गहनं गभीरं यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः ||
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ||
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमङ्गलं विमुक्तसङ्गा मुनयः सुसाधवः
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भूतात्मभूताः सुहृदः स मे गतिः ||
न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा न नामरूपे गुणदोष एव वा
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति ||
तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्यकर्मणे ||
नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ||
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता
नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ||
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुणधर्मिणे
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ||
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे
पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः ||
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे
असता च्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः ||
नमो नमस्तेऽखिलकारणाय निष्कारणायाद्भुतकारणाय
सर्वागमाम्नायमहार्णवाय नमोऽपवर्गाय परायणाय ||
गुणारणिच्छन्नचिदुष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ||
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ||
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसङ्गविवर्जिताय
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ||
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति
किं चाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम ||
एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थं वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमङ्गलं गायन्त आनन्दसमुद्रमग्नाः ||
तमक्षरं ब्रह्म परं परेशमव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूरमनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ||
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ||
यथार्चिषोऽग्नेः सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत्स्वरोचिषः
तथा यतोऽयं गुणसम्प्रवाहो बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ||
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यङ्न स्त्री न षण्ढो न पुमान्न जन्तुः
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन्निषेधशेषो जयतादशेषः ||
जिजीविषे नाहमिहामुया किमन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम ||
सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम ||
योगरन्धितकर्माणो हृदि योगविभाविते
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम ||
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ||
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम ||
🙏🙏
Sam Dt thank you 🙏🏼
Sam Dt -bhot Dhanywaad !🙂🌹
Thank you 🙏
@Sam thank you very much. Would you by any chance have the closing verses. I think a small part at the end is missing. Thank you for this amazing contribution 🙏
हे विष्णो, आप मुझे पितृदोष से मुक्त करो तथा मेरे दादा - दादी, नाना - नानी व सभी पूर्वज व अन्य सम्बन्धी जो किसी कारणवश अटके है ऊन्हे मोक्ष प्रदान करो व दिव्य लोक में स्थान प्रदान करने की कृपा करो। मै मेरी व उन सभी की गलतियों के लिए क्षमाप्रार्थी हूं । आप अवश्य कृपा करेंगे । ऐसा मेरा दृढ विश्वास है। धन्यवाद
Hey Ishwar sab ka bhala ho 🙏🤲🙏
O God allow my ancestors to enter into heaven, forgive all sins of my ancestors and bestow peace, comfort and happiness upon my ancestors
very nice words...
Sweetheart, this is to clear your karma.they have their own.
And heaven is here on earth
Right now
Om Mata Pita Pitru Bhavaya Swadha
Lord Vishnu 🙏🙏🙏
Let my ancestors enter into heaven, forgive all sins of my ancestors, bestow peace, protection, harmony upon my ancestors 🕉️🕉️🕉️
Om Namo Bhagawate Vasudevaya🙏🙏🙏
How many times I listened this stotram, I don't know
Thanks sir🙏🙏🙏
Oh eato sabkuch sabkuch
Sant kar deta he ji. Apko
Sat sat namn. Ji.
This is the best musical version of Shri Gajendra Moksha Stotra.
th-cam.com/video/ZC1csaD7KMw/w-d-xo.html
श्रीमद्भागवतान्तर्गत
गजेन्द्र कृत भगवान का स्तवन
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श्री शुक उवाच - श्री शुकदेव जी ने कहा
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि ।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम ॥१॥
बुद्धि के द्वारा पिछले अध्याय में वर्णित रीति से निश्चय करके तथा मन को हृदय देश में स्थिर करके वह गजराज अपने पूर्व जन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार बार दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन ही मन पाठ करने लगा ॥१॥
गजेन्द्र उवाच गजराज ने (मन ही मन) कहा -
ऊं नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम ।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥१॥
जिनके प्रवेश करने पर (जिनकी चेतना को पाकर) ये जड शरीर और मन आदि भी चेतन बन जाते हैं (चेतन की भांति व्यवहार करने लगते हैं), ‘ओम’ शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण शरीर में प्रकृति एवं पुरुष रूप से प्रविष्ट हुए उन सर्व समर्थ परमेश्वर को हम मन ही मन नमन करते हैं ॥२॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं ।
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम ॥३॥
जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह निकला है , जिन्होने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रूप में प्रकट हैं - फिर भी जो इस दृश्य जगत से एवं इसकी कारणभूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण ) एवं श्रेष्ठ हैं - उन अपने आप - बिना किसी कारण के - बने हुए भगवान की मैं शरण लेता हूं ॥३॥
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम ।
अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्ममूलोवतु मां परात्परः ॥४॥
अपने संकल्प शक्ति के द्वार अपने ही स्वरूप में रचे हुए और इसीलिये सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले इस शास्त्र प्रसिद्ध कार्य कारण रूप जगत को जो अकुण्ठित दृष्टि होने के कारण साक्षी रूप से देखते रहते हैं उनसे लिप्त नही होते, वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें ॥४॥
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो
लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु ।
तमस्तदाsssसीद गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः ॥५॥
समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर तथा पंचभूतों से लेकर महत्वपर्यंत सम्पूर्ण कारणों के उनकी परमकरुणारूप प्रकृति में लीन हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेय तथा अपार अंधकाररूप प्रकृति ही बच रही थी। उस अंधकार के परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान सब ओर प्रकाशित रहते हैं वे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥५॥
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदु-
र्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम ।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥
भिन्न भिन्न रूपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नही जान पाते , उसी प्रकार सत्त्व प्रधान देवता तथा ऋषि भी जिनके स्वरूप को नही जानते , फिर दूसरा साधारण जीव तो कौन जान अथवा वर्णन कर सकता है - वे दुर्गम चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा करें ॥६॥
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम
विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः ।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने
भूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः ॥७॥
आसक्ति से सर्वदा छूटे हुए , सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले , सबके अकारण हितू एवं अतिशय साधु स्वभाव मुनिगण जिनके परम मंगलमय स्वरूप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वन में रह कर अखण्ड ब्रह्मचार्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं , वे प्रभु ही मेरी गति हैं ॥७॥
न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा
न नाम रूपे गुणदोष एव वा ।
तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यः
स्वमायया तान्युलाकमृच्छति ॥८॥
जिनका हमारी तरह कर्मवश ना तो जन्म होता है और न जिनके द्वारा अहंकार प्रेरित कर्म ही होते हैं, जिनके निर्गुण स्वरूप का न तो कोई नाम है न रूप ही, फिर भी समयानुसार जगत की सृष्टि एवं प्रलय (संहार) के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं ॥८॥
तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेsनन्तशक्तये ।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे ॥९॥
उन अन्नतशक्ति संपन्न परं ब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार है । उन प्राकृत आकाररहित एवं अनेको आकारवाले अद्भुतकर्मा भगवान को बारंबार नमस्कार है ॥९॥
नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने ।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥१०॥
स्वयं प्रकाश एवं सबके साक्षी परमात्मा को नमस्कार है । उन प्रभु को जो नम, वाणी एवं चित्तवृत्तियों से भी सर्वथा परे हैं, बार बार नमस्कार है ॥१०॥
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता ।
नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥११॥
विवेकी पुरुष के द्वारा सत्त्वगुणविशिष्ट निवृत्तिधर्म के आचरण से प्राप्त होने योग्य, मोक्ष सुख की अनुभूति रूप प्रभु को नमस्कार है ॥११॥
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे ।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥
सत्त्वगुण को स्वीकार करके शान्त , रजोगुण को स्वीकर करके घोर एवं तमोगुण को स्वीकार करके मूढ से प्रतीत होने वाले, भेद रहित, अतएव सदा समभाव से स्थित ज्ञानघन प्रभु को नमस्कार है ॥१२॥
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे ।
पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः ॥१३॥
शरीर इन्द्रीय आदि के समुदाय रूप सम्पूर्ण पिण्डों के ज्ञाता, सबके स्वामी एवं साक्षी रूप आपको नमस्कार है । सबके अन्तर्यामी , प्रकृति के भी परम कारण, किन्तु स्वयं कारण रहित प्रभु को नमस्कार है ॥१३॥
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे ।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः ॥१४॥
सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता, समस्त प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड-प्रपंच एवं सबकी मूलभूता अविद्या के द्वारा सूचित होने वाले तथा सम्पूर्ण विषयों में अविद्यारूप से भासने वाले आपको नमस्कार है ॥१४॥
नमो नमस्ते खिल कारणाय
निष्कारणायद्भुत कारणाय ।
सर्वागमान्मायमहार्णवाय
नमोपवर्गाय परायणाय ॥१५॥
सबके कारण किंतु स्वयं कारण रहित तथा कारण होने पर भी परिणाम रहित होने के कारण, अन्य कारणों से विलक्षण कारण आपको बारम्बार नमस्कार है । सम्पूर्ण वेदों एवं शास्त्रों के परम तात्पर्य , मोक्षरूप एवं श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति भगवान को नमस्कार है ॥१५॥ ॥
गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपाय
तत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय ।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-
स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥१६॥
जो त्रिगुणरूप काष्ठों में छिपे हुए ज्ञानरूप अग्नि हैं, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मन में सृष्टि रचने की बाह्य वृत्ति जागृत हो उठती है तथा आत्म तत्त्व की भावना के द्वारा विधि निषेध रूप शास्त्र से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महात्माओं में जो स्वयं प्रकाशित हो रहे हैं उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१।६॥
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय
मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोsलयाय ।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत-
प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥१७॥
मुझ जैसे शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीवों की अविद्यारूप फाँसी को सदा के लिये पूर्णरूप से काट देने वाले अत्याधिक दयालू एवं दया करने में कभी आलस्य ना करने वाले नित्यमुक्त प्रभु को नमस्कार है । अपने अंश से संपूर्ण जीवों के मन में अन्तर्यामी रूप से प्रकट रहने वाले सर्व नियन्ता अनन्त परमात्मा आप को नमस्कार है ॥१७॥
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै-
र्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय ।
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय
ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥१८॥
शरीर, पुत्र, मित्र, घर, संपंत्ती एवं कुटुंबियों में आसक्त लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले तथा मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने हृदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञानस्वरूप , सर्वसमर्थ भगवान को नमस्कार है ॥१८॥
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा
भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति ।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं
करोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम ॥१९॥
जिन्हे धर्म, अभिलाषित भोग, धन तथा मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं अपितु जो उन्हे अन्य प्रकार के अयाचित भोग एवं अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ती से सदा के लिये उबार लें ॥१९॥
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थ
वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः ।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं
गायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः ॥२०॥
जिनके अनन्य भक्त -जो वस्तुतः एकमात्र उन भगवान के ही शरण है-धर्म , अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नही चाह्ते, अपितु उन्ही के परम मंगलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र में गोते लगाते रहते हैं ॥२०॥
तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-
मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम ।
अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूर-
मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥२१॥
उन अविनाशी, सर्वव्यापक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिये प्रकट होने पर भी भक्तियोग द्वारा प्राप्त करने योग्य, अत्यन्त निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होने वाले , इन्द्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यन्त दुर्विज्ञेय, अन्तरहित किंतु सबके आदिकारण एवं सब ओर से परिपूर्ण उन भगवान की मैं स्तुति करता हूँ ॥२१॥
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः ।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ॥२२॥
ब्रह्मादि समस्त देवता, चारों वेद तथा संपूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं ॥२२॥
यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयो
निर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः ।
तथा यतोयं गुणसंप्रवाहो
बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ॥२३॥
जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि से लपटें तथा सूर्य से किरणें बार बार निकलती है और पुनः अपने कारण मे लीन हो जाती है उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर - यह गुणमय प्रपंच जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्ही में लीन हो जात है ॥२३॥
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंग
न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः ।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन
निषेधशेषो जयतादशेषः ॥२४॥
वे भगवान न तो देवता हैं न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक (मनुष्य से नीची - पशु , पक्षी आदि किसी) योनि के प्राणी है । न वे स्त्री हैं न पुरुष और नपुंसक ही हैं । न वे ऐसे कोई जीव हैं, जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश हो सके । न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही । सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है और वे ही सब कुछ है । ऐसे भगवान मेरे उद्धार के लिये आविर्भूत हों ॥२४॥
जिजीविषे नाहमिहामुया कि-
मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या ।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव-
स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम ॥२५॥
मैं इस ग्राह के चंगुल से छूट कर जीवित नही रहना चाहता; क्योंकि भीतर और बाहर - सब ओर से अज्ञान से ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना है । मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने आप नाश नही होता , अपितु भगवान की दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है ॥२५॥
सोsहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम ।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम ॥२६॥
इस प्रकार मोक्ष का अभिलाषी मैं विश्व के रचियता, स्वयं विश्व के रूप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना बनाकर खेलने वाले, विश्व में आत्मरूप से व्याप्त , अजन्मा, सर्वव्यापक एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री भगवान को केवल प्रणाम ही करता हूं, उनकी शरण में हूँ ॥२६॥
योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते ।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोsस्म्यहम ॥२७॥
जिन्होने भगवद्भक्ति रूप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, वे योगी लोग उसी योग के द्वारा शुद्ध किये हुए अपने हृदय में जिन्हे प्रकट हुआ देखते हैं उन योगेश्वर भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२७॥
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-
शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय ।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये
कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥२८॥
जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्त्व-रज-तमरूप ) शक्तियों का रागरूप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयरूप में प्रतीत हो रहे हैं, तथापि जिनकी इन्द्रियाँ विषयों में ही रची पची रहती हैं-ऐसे लोगों को जिनका मार्ग भी मिलना असंभव है, उन शरणागतरक्षक एवं अपारशक्तिशाली आपको बार बार नमस्कार है ॥२८॥
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम ।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोsस्म्यहम ॥२९॥
जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्यरूप अहंकार से ढंके हुए अपने स्वरूप को यह जीव जान नही पाता, उन अपार महिमा वाले भगवान की मैं शरण आया हूँ ॥२९॥
श्री शुकदेव उवाच - श्री शुकदेवजी ने कहा -
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं
ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः ।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात
तत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत ॥३०॥
जिसने पूर्वोक्त प्रकार से भगवान के भेदरहित निराकार स्वरूप का वर्णन किया था , उस गजराज के समीप जब ब्रह्मा आदि कोई भी देवता नही आये, जो भिन्न भिन्न प्रकार के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरूप मानते हैं, तब सक्षात श्री हरि- जो सबके आत्मा होने के कारण सर्वदेवस्वरूप हैं-वहाँ प्रकट हो गये ॥३०॥
तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः
स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि : ।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान -
श्चक्रायुधोsभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥३१॥
उपर्युक्त गजराज को उस प्रकार दुःखी देख कर तथा उसके द्वारा पढी हुई स्तुति को सुन कर सुदर्शनचक्रधारी जगदाधार भगवान इच्छानुरूप वेग वाले गरुड जी की पीठ पर सवार होकर स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थान अपर पहुँच गये जहाँ वह हाथी था ।
सोsन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो
दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम ।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा -
न्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते ॥३२॥
सरोवर के भीतर महाबली ग्राह के द्वारा पकडे जाकर दुःखी हुए उस हाथी ने आकाश में गरुड की पीठ पर सवार चक्र उठाये हुए भगवान श्री हरि को देखकर अपनी सूँड को -जिसमें उसने (पूजा के लिये) कमल का एक फूल ले रक्खा था-ऊपर उठाया और बडी ही कठिनाई से “सर्वपूज्य भगवान नारायण आपको प्रणाम है” यह वाक्य कहा ॥३२॥
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य
सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार ।
ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं
सम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम ॥३३॥
उसे पीडित देख कर अजन्मा श्री हरि एकाएक गरुड को छोडकर नीचे झील पर उतर आये । वे दया से प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराज को तत्काल झील से बाहर निकाल लाये और देवताओं के देखते देखते चक्र से मुँह चीर कर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया ॥३३॥
Pandey G 🙏🌹
@@raghav5238 🙏🙏
My day starts with this great slokam🙏🙏🙏🙏🙏🙏
God Almighty please protect, heal and save my ancestors, lift my ancestors to Heaven and heal them Amen
Om namo bhagvate vasudevayaa
Very nice 👍🙂 jay gurudev shi ram ji ki jai ho
Om namaha vagawatee namaha
O Mahavishnu...moksha pradhadha Please give my dad and to all my ancestors moksham and eternal peace at your lotus feet👣🌷
Lotus is something we all are born with.
To remove pitru Dosha and future prospects incredible stotra
Om pitrabhyo namaha🙏🙏
Om namo narayana 🙏🙏
अती सुंदर आहे
Excellent! Thank you for uploading the Pitri Stotra.
om namo Narayanaya
O God Iallow my ancestors to enter heaven forgive all their sins have mercy and forgive them for all their sins may their soul rest peace let my ancestors happy live in joyful peace in Jesus name amen
"Jesus" 😐😑
Beautiful soulful rendition of Gajendra Moksha in sweet voices of Suresh Vadekar and another great Singer.Perfect pronunciations.
Andava engal munnorkalukku gajendra moksham kodungal🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नम:
O Lord, Creator, BrahmaVishnuMaheshDurgaGanesh give my ancestors the highest place in Heaven and let my ancestors be happy and joyful and peaceful, in Jesus name I pray Amen
Jesus????
Are you serious?
This guy is a troll
OM NAMO BHAGWATE VASUDEVA NAMAH 🙏🌹❤️
Gajendra Moksha the entire stotra is found in SRIMAD BHAGWAT ..can google with translation too.
Jai Shree Laxmi Narayan Namo Namah🌹🌹🙏🙏
Very nice song, sung by very melodious voice with excellent prononunciation.
तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-
मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम ।
अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूर-
मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥२१॥
उन अविनाशी, सर्वव्यापक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिये प्रकट होने पर भी भक्तियोग द्वारा प्राप्त करने योग्य, अत्यन्त निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होने वाले , इन्द्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यन्त दुर्विज्ञेय, अन्तरहित किंतु सबके आदिकारण एवं सब ओर से परिपूर्ण उन भगवान की मैं स्तुति करता हूँ ॥२१॥
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः ।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ॥२२॥
ब्रह्मादि समस्त देवता, चारों वेद तथा संपूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं ॥२२॥
यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयो
निर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः ।
तथा यतोयं गुणसंप्रवाहो
बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ॥२३॥
जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि से लपटें तथा सूर्य से किरणें बार बार निकलती है और पुनः अपने कारण मे लीन हो जाती है उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर - यह गुणमय प्रपंच जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्ही में लीन हो जात है ॥२३॥
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंग
न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः ।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन
निषेधशेषो जयतादशेषः ॥२४॥
वे भगवान न तो देवता हैं न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक (मनुष्य से नीची - पशु , पक्षी आदि किसी) योनि के प्राणी है । न वे स्त्री हैं न पुरुष और नपुंसक ही हैं । न वे ऐसे कोई जीव हैं, जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश हो सके । न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही । सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है और वे ही सब कुछ है । ऐसे भगवान मेरे उद्धार के लिये आविर्भूत हों ॥२४॥
जिजीविषे नाहमिहामुया कि-
मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या ।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव-
स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम ॥२५॥
मैं इस ग्राह के चंगुल से छूट कर जीवित नही रहना चाहता; क्योंकि भीतर और बाहर - सब ओर से अज्ञान से ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना है । मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने आप नाश नही होता , अपितु भगवान की दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है ॥२५॥
सोsहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम ।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम ॥२६॥
इस प्रकार मोक्ष का अभिलाषी मैं विश्व के रचियता, स्वयं विश्व के रूप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना बनाकर खेलने वाले, विश्व में आत्मरूप से व्याप्त , अजन्मा, सर्वव्यापक एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री भगवान को केवल प्रणाम ही करता हूं, उनकी शरण में हूँ ॥२६॥
योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते ।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोsस्म्यहम ॥२७॥
जिन्होने भगवद्भक्ति रूप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, वे योगी लोग उसी योग के द्वारा शुद्ध किये हुए अपने हृदय में जिन्हे प्रकट हुआ देखते हैं उन योगेश्वर भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२७॥
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-
शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय ।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये
कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥२८॥
जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्त्व-रज-तमरूप ) शक्तियों का रागरूप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयरूप में प्रतीत हो रहे हैं, तथापि जिनकी इन्द्रियाँ विषयों में ही रची पची रहती हैं-ऐसे लोगों को जिनका मार्ग भी मिलना असंभव है, उन शरणागतरक्षक एवं अपारशक्तिशाली आपको बार बार नमस्कार है ॥२८॥
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम ।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोsस्म्यहम ॥२९॥
जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्यरूप अहंकार से ढंके हुए अपने स्वरूप को यह जीव जान नही पाता, उन अपार महिमा वाले भगवान की मैं शरण आया हूँ ॥२९॥
श्री शुकदेव उवाच - श्री शुकदेवजी ने कहा -
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं
ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः ।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात
तत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत ॥३०॥
जिसने पूर्वोक्त प्रकार से भगवान के भेदरहित निराकार स्वरूप का वर्णन किया था , उस गजराज के समीप जब ब्रह्मा आदि कोई भी देवता नही आये, जो भिन्न भिन्न प्रकार के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरूप मानते हैं, तब सक्षात श्री हरि- जो सबके आत्मा होने के कारण सर्वदेवस्वरूप हैं-वहाँ प्रकट हो गये ॥३०॥
shivkumar bhatia sir please set all sholkas in perfect line your doing nice work please set it.
राधे-राधे राधे-राधे जयश्री राधे कृष्णा
🙏🙏श्रीहरिः शरणम्🙏🙏
👣शत् शत् नमन👏वंदनम्👣
ह्रदयस्पर्शी भाव 💕मधुर 🎹स्वर
jay ho
🙏"Lord Vishnu".
"Rest in Peace to Ancestors & Pitrus" from GColor(Galfar).
"Gajendra Moksham" from Crocodiles.
prnam sir supper👏
I knew not how to thank u
Jai mata di
श्रीमद्भागवतान्तर्गत
गजेन्द्र कृत भगवान का स्तवन
********************************
श्री शुक उवाच - श्री शुकदेव जी ने कहा
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि ।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम ॥१॥
बुद्धि के द्वारा पिछले अध्याय में वर्णित रीति से निश्चय करके तथा मन को हृदय देश में स्थिर करके वह गजराज अपने पूर्व जन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार बार दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन ही मन पाठ करने लगा ॥१॥
गजेन्द्र उवाच गजराज ने (मन ही मन) कहा -
ऊं नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम ।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥१॥
जिनके प्रवेश करने पर (जिनकी चेतना को पाकर) ये जड शरीर और मन आदि भी चेतन बन जाते हैं (चेतन की भांति व्यवहार करने लगते हैं), ‘ओम’ शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण शरीर में प्रकृति एवं पुरुष रूप से प्रविष्ट हुए उन सर्व समर्थ परमेश्वर को हम मन ही मन नमन करते हैं ॥२॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं ।
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम ॥३॥
जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह निकला है , जिन्होने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रूप में प्रकट हैं - फिर भी जो इस दृश्य जगत से एवं इसकी कारणभूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण ) एवं श्रेष्ठ हैं - उन अपने आप - बिना किसी कारण के - बने हुए भगवान की मैं शरण लेता हूं ॥३॥
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम ।
अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्ममूलोवतु मां परात्परः ॥४॥
अपने संकल्प शक्ति के द्वार अपने ही स्वरूप में रचे हुए और इसीलिये सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले इस शास्त्र प्रसिद्ध कार्य कारण रूप जगत को जो अकुण्ठित दृष्टि होने के कारण साक्षी रूप से देखते रहते हैं उनसे लिप्त नही होते, वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें ॥४॥
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो
लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु ।
तमस्तदाsssसीद गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः ॥५॥
समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर तथा पंचभूतों से लेकर महत्वपर्यंत सम्पूर्ण कारणों के उनकी परमकरुणारूप प्रकृति में लीन हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेय तथा अपार अंधकाररूप प्रकृति ही बच रही थी। उस अंधकार के परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान सब ओर प्रकाशित रहते हैं वे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥५॥
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदु-
र्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम ।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥
भिन्न भिन्न रूपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नही जान पाते , उसी प्रकार सत्त्व प्रधान देवता तथा ऋषि भी जिनके स्वरूप को नही जानते , फिर दूसरा साधारण जीव तो कौन जान अथवा वर्णन कर सकता है - वे दुर्गम चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा करें ॥६॥
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम
विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः ।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने
भूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः ॥७॥
आसक्ति से सर्वदा छूटे हुए , सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले , सबके अकारण हितू एवं अतिशय साधु स्वभाव मुनिगण जिनके परम मंगलमय स्वरूप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वन में रह कर अखण्ड ब्रह्मचार्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं , वे प्रभु ही मेरी गति हैं ॥७॥
न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा
न नाम रूपे गुणदोष एव वा ।
तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यः
स्वमायया तान्युलाकमृच्छति ॥८॥
जिनका हमारी तरह कर्मवश ना तो जन्म होता है और न जिनके द्वारा अहंकार प्रेरित कर्म ही होते हैं, जिनके निर्गुण स्वरूप का न तो कोई नाम है न रूप ही, फिर भी समयानुसार जगत की सृष्टि एवं प्रलय (संहार) के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं ॥८॥
तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेsनन्तशक्तये ।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे ॥९॥
उन अन्नतशक्ति संपन्न परं ब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार है । उन प्राकृत आकाररहित एवं अनेको आकारवाले अद्भुतकर्मा भगवान को बारंबार नमस्कार है ॥९॥
नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने ।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥१०॥
स्वयं प्रकाश एवं सबके साक्षी परमात्मा को नमस्कार है । उन प्रभु को जो नम, वाणी एवं चित्तवृत्तियों से भी सर्वथा परे हैं, बार बार नमस्कार है ॥१०॥
Radhe radhe
Jai Mata. It would be nice if people knew this is about self realization
Adbhut....
अति सुन्दर 🙏
So peaceful
तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः
स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि : ।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान -
श्चक्रायुधोsभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥३१॥
उपर्युक्त गजराज को उस प्रकार दुःखी देख कर तथा उसके द्वारा पढी हुई स्तुति को सुन कर सुदर्शनचक्रधारी जगदाधार भगवान इच्छानुरूप वेग वाले गरुड जी की पीठ पर सवार होकर स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थान अपर पहुँच गये जहाँ वह हाथी था ।
सोsन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो
दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम ।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा -
न्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते ॥३२॥
सरोवर के भीतर महाबली ग्राह के द्वारा पकडे जाकर दुःखी हुए उस हाथी ने आकाश में गरुड की पीठ पर सवार चक्र उठाये हुए भगवान श्री हरि को देखकर अपनी सूँड को -जिसमें उसने (पूजा के लिये) कमल का एक फूल ले रक्खा था-ऊपर उठाया और बडी ही कठिनाई से “सर्वपूज्य भगवान नारायण आपको प्रणाम है” यह वाक्य कहा ॥३२॥
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य
सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार ।
ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं
सम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम ॥३३॥
उसे पीडित देख कर अजन्मा श्री हरि एकाएक गरुड को छोडकर नीचे झील पर उतर आये । वे दया से प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराज को तत्काल झील से बाहर निकाल लाये और देवताओं के देखते देखते चक्र से मुँह चीर कर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया ॥३३॥
shivkumar bhatia zz
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पितृ स्तोत्र | सुनील ध्यानी | चैनल दिव्य
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ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥
हिन्दी में अर्थ- गजेंद्र ने मन ही मन श्री हरी को ध्यान करते हुए कहा कि, जिनके प्रवेश करने से शरीर और मस्तिष्क चेतन की तरह व्यवहार करने लगते हैं, ॐ द्वारा लक्षित और पूरे शरीर में प्रकृति और पुरुष के रूप में प्रवेश करने वाले उस सर्व शक्तिमान देवता का मैं मन ही मन स्मरण करता हूँ।
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं।
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम॥
हिन्दी में अर्थ- जिनके सहारे ये पूरा संसार टिका हुआ है, जिनसे ये संसार अवतरित हुआ है, जिन्होनें प्रकृति की रचना की है और जो खुद उसके रूप में प्रकट हैं, लेकिन इसके वाबजूद भी वो इस दूनिया से सर्वोपरि और श्रेष्ठ हैं। ऐसे अपने आप और बिना किसी कारण के भगवान् की मैं शरण में जाता हूँ।
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितंक्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम।
अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षतेस आत्ममूलोवतु मां परात्परः॥
हिन्दी में अर्थ- अपने संकल्प शक्ति के बल पर अपने ही स्वरूप में रचित और सृष्टि काल में प्रकट एवं प्रलय में अप्रकट रहने वाले, इस शास्त्र प्रसिद्धि प्राप्त कार्य कारण रुपी संसार को जो बिना कुंठित दृष्टि के साक्ष्य रूप में देखते रहने पर भी लिप्त नहीं होते, चक्षु आदि प्रकाशकों के परम प्रकाशक प्रभु आप मेरी रक्षा करें
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशोलोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु।
तमस्तदाऽऽऽसीद गहनं गभीरंयस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः।।
हिन्दी में अर्थ- बीतते गए समय के साथ तीनों लोकों और ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर और पंचभूतों से लेकर महत्वपूर्ण सभी कारणों के उनकी परमकरूणा स्वरूप प्रकृति में मग्न हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेर और घोर अंडकार रूपेण प्रकृति ही बच रही थी। उस अन्धकार से परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापी भगवान सभी दिशाओं में प्रकाशित होते रहते हैं, वो भगवान मेरी रक्षा करें।
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतोदुरत्ययानुक्रमणः स मावतु॥
हिन्दी में अर्थ- विभिन्न नाट्य रूपों में अभिनय करने वाले और उस अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार से साधारण लोग भी नहीं पहचान पाते, उसी तरह से सत्त्व प्रधान देवता और महर्षि भी जिनके स्वरूप को नहीं जान पाते, ऐसे में कोई साधारण प्राणी उनका वर्णन कैसे कर सकता है। ऐसे दुर्गम चरित्र वाले भगवान मेरी रक्षा करें।
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलमविमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वनेभूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः॥
हिन्दी में अर्थ- अनेको शक्ति से मुक्त, सभी प्राणियों को आत्मबुद्धि प्रदान करने वाले, सबके बिना कारण हित और अतिशय साधु स्वभाव ऋषि मुनि जन जिनके परम स्वरूप को देखने की इच्छा के साथ वन में रहकर अखंड ब्रह्मचर्य तमाम अलौकिक व्रतों को नियमों के अनुसार पालन करते हैं, ऐसे प्रभु ही मेरी गति हैं।
न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वान नाम रूपे गुणदोष एव वा।
तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यःस्वमायया तान्युलाकमृच्छति॥
हिन्दी में अर्थ- वह जिनका हमारी तरह ना तो जन्म होता है और ना जिनका अहंकार में कोई भी काम नहीं होता है, जिनके निर्गुण रूप का ना कोई नाम है और ना कोई रूप है, इसके बावजूद भी वह समय के साथ इस संसार की सृष्टि और प्रलय के लिए अपनी इच्छा से अपने जन्म को स्वीकार करते हैं।
तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेऽनन्तशक्तये।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे॥
हिन्दी में अर्थ- उस अनंत शक्ति वाले परम ब्रह्मा परमेश्वर को मेरा ननस्कार है। प्राकृत, आकार रहित और अनेक रूप वाले अद्भुत भगवान् को मेरा बार बार नमस्कार है।
नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि॥
हिन्दी में अर्थ- स्वयं प्रकाशित सभी साक्ष्य परमेश्वर को मेरा शत् शत् नमन है। वैसे देव जो नम, वाणी और चित्तवृतियों से परे हैं उन्हें मेरा बारंबार नमस्कार है।
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता।
नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे॥
हिन्दी में अर्थ- विवेक से परिपूर्ण, पुरुष के द्वारा सभी सत्त्व गुणों से परिपूर्ण, निवृति धर्म के आचरण से मिलने वाले योग्य, मोक्ष सुख की अनुभूति रुपी भगवान को मेरा नमस्कार है।
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च॥
हिन्दी में अर्थ- सभी गुणों के स्वीकार शांत, रजोगुण को स्वीकार करके अत्यंत और तमोगुण को अपनाकर मूढ़ से जाने जाने वाले, बिना भेद के और हमेशा सद्भाव से ज्ञानधनी प्रभु को मेरा नमस्कार है।
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे।
पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः॥
हिन्दी में अर्थ- शरीर के इंद्रिय के समुदाय रूप , सभी पिंडों के ज्ञाता, सबों के स्वामी और साक्षी स्वरूप देव आपको मेरा नमस्कार। सबो के अंतर्यामी, प्रकृति के परम कारण लेकिन स्वयं बिना कारण भगवान को मेरा शत शत नमस्कार।
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः॥
हिन्दी में अर्थ- सभी इन्द्रियों और सभी विषयों के जानकार, सभी प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड़-प्रपंच और सबकी मूलभूता अविद्या के द्वारा सूचित होने वाले और सभी विषयों में अविद्यारूप से भासने वाले भगवान को मेरा नमस्कार है।
नमो नमस्ते खिल कारणायनिष्कारणायद्भुत कारणाय।
सर्वागमान्मायमहार्णवायनमोपवर्गाय परायणाय॥
हिन्दी में अर्थ- सबके कारण, लेकिन स्वयं बिना कारण होने पर भी, बिना किसी परिणाम के होने की वजह से, अन्य कारणों से भी विलक्षण कारण, आपको मेरा बार बार नमस्कार है। सभी वेदों और शास्त्रों के परम तात्पर्य, मोक्षरूपी और श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति देवता को मेरा नमस्कार है।
गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपायतत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि॥
हिन्दी में अर्थ- वह जो त्रिगुण रूपो में छिपी हुई ज्ञान रुपी अग्नि हैं, वैसे गुणों में हलचल होने पर जिनके मन मस्तिष्क में संसार को रचने की वृति उत्पन्न हो उठती हो और जो आत्मा तत्व की भावना के द्वारा विधि निषेध रूप शास्त्र से भी ऊपर उठे हो, जो महाज्ञानी महत्माओं में स्वयं प्रकाशित हो रहे हैं, ऐसे भगवान को मेरा नमस्कार है।
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणायमुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते॥
हिन्दी में अर्थ- मेरे जैसे शरणागत, पशु के सामान जीवों की अविद्यारूप, फांसी को पूर्ण रूप से काट देने वाले परम दयालु और दया दिखने में कभी भी आलस नहीं करने वाले भगवान को मेरा नमस्कार है। अपने अंश से सभी जीवों के मन में अंतर्यामी रूप से प्रकट होने वाले सर्व नियंता अनंत परमात्मा आपको मेरा नमस्कार है।
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय।
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभावितायज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय॥
हिन्दी में अर्थ- जो शरीर, पुत्र, मित्र, घर और संपत्ति सहित कुटुंबियों में अशक्त लोगों के द्वारा कठिनाई से मिलते हो और मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने ह्रदय में निरंतर चिंतित ज्ञानस्वरूप, सर्व समर्थ परमेश्वर को मेरा नमस्कार है।
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामाभजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययंकरोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम॥
हिन्दी में अर्थ- वह जिन्हें धर्म, अभिलषित भोग, धन और मोक्ष की कामना से मनन करके लोग अपनी मनचाही इच्छा पूर्ण कर लेते हैं। अपितु जिन्हे विभिन्न प्रकार के अयाचित भोग और अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं, वैसे अत्यंत दयालु प्रभु मुझे इस प्रकार के विपदा से हमेशा के लिए बाहर निकालें।
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थवांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलंगायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः॥
हिन्दी में अर्थ- वह जिनके एक से अधिक भक्त है, जो मुख्य रूप से एकमात्र उसी भगवान् के शरण में हैं। जो धर्म, अर्थ आदि किसी भी पदार्थ की अभिलासा नहीं रखते है, जो केवल उन्ही के परम मंगलमय एवं अत्यंत विलक्षण चरित्र का गुणगान करते हुए उनके आनंदमय समुद्र में गोते लगाते रहते हैं।
तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम।
अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूर-मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे॥
हिन्दी में अर्थ- उन अविनाशी, सर्वव्यापी, सर्वमान्य, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिए भी हमेशा प्रकट होने वाले, भक्तियोग द्वारा प्राप्त, अत्यंत निकट होने पर भी माया के कारण अत्यंत दूर महसूस होने वाले, इन्द्रियों के द्वारा अगम्य और अत्यंत दुर्विज्ञेय, अंतरहित लेकिन सभी के आदिकारक और सभी तरफ से परिपूर्ण उस भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ।
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः॥
हिन्दी में अर्थ- वो जो ब्रह्मा सहित सभी देवता, चारों वेद, समस्त चर और अचर जीव के नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यंत छुद्र अंशों से रचयित हैं।
यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयोनिर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः।
तथा यतोयं गुणसंप्रवाहोबुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः॥
हिन्दी में अर्थ- जिस तरह से जलती हुई अग्नि की लपटें और सूरज की किरणें हर बार बाहर निकलती हैं और फिर से अपने कारण में लीन हो जाती है, उसी प्रकार बुद्धि, मस्तिष्क, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर जिन सभी गुणों से प्राप्त शरीर, जो स्वयं प्रकाश परमात्मा से अवतरित होकर फिर से उन्हें में लीं हो जाता है।
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंगन स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासननिषेधशेषो जयतादशेषः॥
हिन्दी में अर्थ- वह भगवान जो ना तो देवता हैं, ना असुर, ना मनुष्य और ना ही मनुष्य से नीचे किसी अन्य योनि के प्राणी। ना ही वो स्त्री हैं, ना पुरुष और ना ही नपुंसक और ना ही वो कोई ऐसे जीव हैं जिनका इन तीनों ही श्रेणी में समावेश है। वो ना तो गुण हैं, ना कर्म, वो ना ही कार्य हैं और ना ही कारण। इन सभी योनियों का निषेध होने पर जो बचता है, वही उनका असली रूप है। ऐसे प्रभु मेरा उत्थान करने के लिए प्रकट हो।
जिजीविषे नाहमिहामुया कि मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम॥
हिन्दी में अर्थ- अब मैं इस मगरमच्छ के चंगुल से आजाद होने के बाद जीवित नहीं रहना चाहता, इसकी वजह ये हैं कि मैं सभी तरफ से अज्ञानता से ढके इस हाथी के शरीर का क्या करूँ। मैं आत्मा के प्रकाश से ढक देने वाले अज्ञानता से युक्त इस हाथी के शरीर से मुक्त होना चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने नाश नहीं होता, बल्कि ईश्वर की दया और ज्ञान से उदय हो पाता है।
सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम॥
हिन्दी में अर्थ- इस प्रकार से मोक्ष के लिए लालायित संसार के रचियता, स्वयं संसार के रूप में प्रकट, लेकिन संसार से परे, संसार में एक खिलौने की भांति खेलने वाले, संसार में आत्मरूप से व्याप्त, अजन्मा, सर्वव्यापी एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री हरी का केवल स्मरण करता हूँ और उनकी शरण में जाता हूँ।
योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम॥
हिन्दी में अर्थ- वह जिन्होनें भगवद्शक्ति रूपी योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, जिन्हे समस्त योगी, ऋषि अपने योग के द्वारा अपनी शुद्ध ह्रदय में प्रकट देखते हैं, उन योगेश्वर भगवान् को मेरा नमस्कार है।
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तयेकदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने॥
हिन्दी में अर्थ- वह जिनके तीगुणे शक्तियों का राग, रूप वेग और असह्य है, जो सभी इन्द्रियों के विषय रूप में मौजूद है, वह जिनकी इन्द्रियां समस्त विषयों में ही बसी रहती है, ऐसे लोगों जिनको मार्ग मिलना भी संभव नहीं है, वैसे शरणागत एवं अपार शक्तिशाली वाले भगवान आपको मेरा बारंबार नमस्कार है।
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम॥
हिन्दी में अर्थ- वह जिनकी अविद्या नाम के शक्ति के कार्यरूप से ढँके हुए है, वह जिनके रूप को जीव समझ नहीं पाते है, ऐसे अपार महिमा वाले भगवान की मैं शरण लेता हूँ।
श्री शुकदेव उवाच
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषंब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वाततत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत॥
हिन्दी में अर्थ- श्री शुकदेव जी कहते हैं कि, वह जिसने पूर्व प्रकार से भगवान के भेदरहित सभी निराकार रूप का वर्णन किया था, उस गजराज के करीब जब ब्रह्माजी साथ में अन्य कोई देवता नहीं आये, जो अपने विभिन्न प्रकार के विशेष विग्रहों को ही अपना रूप मानते हैं, ऐसे में साक्षात् विष्णु जी, जो सभी के आत्मा होने के कारण सभी देवताओं के रूप हैं, तब वहां प्रकट हुए।
तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासःस्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि:।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः॥
हिन्दी में अर्थ- गजराज को इस प्रकार से दुखी देखकर और उसके पढ़े गए स्तुति को सुनकर चक्रधारी प्रभु इच्छानुसार वेग वाले गरुड़ की पीठ पर सवार होकर सभी देवों के साथ उस स्थान पर पहुंचे जहाँ वह गज था।
सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छान्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते॥
हिन्दी में अर्थ- सरोवर के अंदर महाबलशाली मगरमच्छ द्वारा जकड़े और दुखी उस हाथी ने आसमान में गरुड़ की पीठ पर बैठे और हाथों में चक्र लिए भगवान् विष्णु को आते हुए जब देख, तो वह अपनी सूँड में पहले से ही उनकी पूजा के लिए रखे कमल के फूल को श्री हरी पर बरसाते हुए कहने लगा ''सर्वपूज्य भगवान श्री हरी आपको मेरा प्रणाम ''सर्वपूज्य भगवान् श्री हरी आपको मेरा नमस्कार''।
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्यसग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार।
ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रंसम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम॥
हिन्दी में अर्थ- लाचार हाथी को देखकर श्री हरी विष्णु, गरुड़ से नीचे उतरकर सरोवर में उतर आये और बेहद दुखी होकर ग्राह सहित उस गज को तुरंत ही सरोवर से बहार निकाल आये और देखते ही देखते अपने चक्र से मगरमच्छ के गर्दन को काट दिए और हाथी को उस पीड़ा से बहार निकाल लिया।
श्री राधे कृष्णा
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सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता ।
नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥११॥
विवेकी पुरुष के द्वारा सत्त्वगुणविशिष्ट निवृत्तिधर्म के आचरण से प्राप्त होने योग्य, मोक्ष सुख की अनुभूति रूप प्रभु को नमस्कार है ॥११॥
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे ।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥
सत्त्वगुण को स्वीकार करके शान्त , रजोगुण को स्वीकर करके घोर एवं तमोगुण को स्वीकार करके मूढ से प्रतीत होने वाले, भेद रहित, अतएव सदा समभाव से स्थित ज्ञानघन प्रभु को नमस्कार है ॥१२॥
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे ।
पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः ॥१३॥
शरीर इन्द्रीय आदि के समुदाय रूप सम्पूर्ण पिण्डों के ज्ञाता, सबके स्वामी एवं साक्षी रूप आपको नमस्कार है । सबके अन्तर्यामी , प्रकृति के भी परम कारण, किन्तु स्वयं कारण रहित प्रभु को नमस्कार है ॥१३॥
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे ।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः ॥१४॥
सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता, समस्त प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड-प्रपंच एवं सबकी मूलभूता अविद्या के द्वारा सूचित होने वाले तथा सम्पूर्ण विषयों में अविद्यारूप से भासने वाले आपको नमस्कार है ॥१४॥
नमो नमस्ते खिल कारणाय
निष्कारणायद्भुत कारणाय ।
सर्वागमान्मायमहार्णवाय
नमोपवर्गाय परायणाय ॥१५॥
सबके कारण किंतु स्वयं कारण रहित तथा कारण होने पर भी परिणाम रहित होने के कारण, अन्य कारणों से विलक्षण कारण आपको बारम्बार नमस्कार है । सम्पूर्ण वेदों एवं शास्त्रों के परम तात्पर्य , मोक्षरूप एवं श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति भगवान को नमस्कार है ॥१५॥ ॥
गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपाय
तत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय ।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-
स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥१६॥
जो त्रिगुणरूप काष्ठों में छिपे हुए ज्ञानरूप अग्नि हैं, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मन में सृष्टि रचने की बाह्य वृत्ति जागृत हो उठती है तथा आत्म तत्त्व की भावना के द्वारा विधि निषेध रूप शास्त्र से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महात्माओं में जो स्वयं प्रकाशित हो रहे हैं उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१।६॥
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय
मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोsलयाय ।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत-
प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥१७॥
मुझ जैसे शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीवों की अविद्यारूप फाँसी को सदा के लिये पूर्णरूप से काट देने वाले अत्याधिक दयालू एवं दया करने में कभी आलस्य ना करने वाले नित्यमुक्त प्रभु को नमस्कार है । अपने अंश से संपूर्ण जीवों के मन में अन्तर्यामी रूप से प्रकट रहने वाले सर्व नियन्ता अनन्त परमात्मा आप को नमस्कार है ॥१७॥
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै-
र्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय ।
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय
ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥१८॥
शरीर, पुत्र, मित्र, घर, संपंत्ती एवं कुटुंबियों में आसक्त लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले तथा मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने हृदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञानस्वरूप , सर्वसमर्थ भगवान को नमस्कार है ॥१८॥
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा
भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति ।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं
करोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम ॥१९॥
जिन्हे धर्म, अभिलाषित भोग, धन तथा मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं अपितु जो उन्हे अन्य प्रकार के अयाचित भोग एवं अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ती से सदा के लिये उबार लें ॥१९॥
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थ
वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः ।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं
गायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः ॥२०॥
जिनके अनन्य भक्त -जो वस्तुतः एकमात्र उन भगवान के ही शरण है-धर्म , अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नही चाह्ते, अपितु उन्ही के परम मंगलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र में गोते लगाते रहते हैं ॥२०॥
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Namaskaram
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This entire stotra is found in Srimad Bhagwat or Srimad Bhagwatam. However let me try to post it in comments.
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Written.. nahi a a raha
Sir lyrics please
jay shree krishna
after 29 th slok shree suk uvach is missing
Rajeshkgour
Hey baghwan ji maa k job bacha k rakiye ga plz naryan gorshan k parbhar bacha k rakiye ga plz baghwan ji tanvi paisa daa hmko plz baghwan ji maa k job bacha k rakiye ga plz baghwan ji mummy k clinic par marij aa jye plz baghwan ji maa k job bacha k rakiye ga plz baghwan ji maa k job bacha k rakiye ga plz baghwan ji
Samiran/
ओं नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ||
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम
योऽस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम ||
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम
अविद्धदृक्साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्ममूलोऽवतु मां परात्परः ||
कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्नशो लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु
तमस्तदासीद्गहनं गभीरं यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः ||
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ||
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमङ्गलं विमुक्तसङ्गा मुनयः सुसाधवः
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भूतात्मभूताः सुहृदः स मे गतिः ||
न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा न नामरूपे गुणदोष एव वा
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति ||
तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्यकर्मणे ||
नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ||
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता
नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ||
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुणधर्मिणे
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ||
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे
पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः ||
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे
असता च्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः ||
नमो नमस्तेऽखिलकारणाय निष्कारणायाद्भुतकारणाय
सर्वागमाम्नायमहार्णवाय नमोऽपवर्गाय परायणाय ||
गुणारणिच्छन्नचिदुष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ||
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ||
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसङ्गविवर्जिताय
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ||
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति
किं चाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम ||
एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थं वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमङ्गलं गायन्त आनन्दसमुद्रमग्नाः ||
तमक्षरं ब्रह्म परं परेशमव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूरमनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ||
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ||
यथार्चिषोऽग्नेः सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत्स्वरोचिषः
तथा यतोऽयं गुणसम्प्रवाहो बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ||
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यङ्न स्त्री न षण्ढो न पुमान्न जन्तुः
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन्निषेधशेषो जयतादशेषः ||
जिजीविषे नाहमिहामुया किमन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम ||
सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम ||
योगरन्धितकर्माणो हृदि योगविभाविते
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम ||
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ||
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम ||
: 2020
Ati khub
Radhe radhe
Om namo bhagwate vasudevayy
Shree hari namo namah.
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