दिवंगत पिता के लिए | सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

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  • เผยแพร่เมื่อ 22 ก.ย. 2024
  • #poetry #love #missing
    सूरज के साथ-साथ
    सन्ध्या के मंत्र डूब जाते थे,
    घंटी बजती थी अनाथ आश्रम में
    भूखे भटकते बच्चों के लौट आने की,
    दूर-दूर तक फैले खेतों पर,
    धुएं में लिपटे गांव पर,
    वर्षा से भीगी कच्ची डगर पर,
    जाने कैसा रहस्य भरा करुण अन्धकार फैल जाता था,
    और ऐसे में आवाज़ आती थी पिता
    तुम्हारे पुकारने की,
    मेरा नाम उस अंधियारे में
    बज उठता था, तुम्हारे स्वरों में।
    मैं अब भी हूं
    अब भी है यह रोता हुआ अन्धकार चारों ओर
    लेकिन कहां है तुम्हारी आवाज़
    जो मेरा नाम भरकर
    इसे अविकल स्वरों में बजा दे।

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