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  • เผยแพร่เมื่อ 18 ต.ค. 2024
  • Dharm nirpekshata
    आज समस्त मानव जाति पारमाणविक विभीषिका के साए में कब सो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। मानव के आपसी सम्बन्ध इतने संकुचित और कलुषित हो गए हैं कि वह बस अपने को ही देख पाता है, गैर-बराबरी की खाई इतनी चौड़ी और गहरी होती जा रही है कि उसमें अमीर और गरीब दोनों गिरकर विनाश को प्राप्त हो सकते हैं। ऐसे संक्रमण काल में अधिनायकवादी रूप के चलते साम्यवाद से भी लोगों का मोह भंग हो रहा है। आज सोवियत संघ भी लोकतांत्रिक मूल्यों का पक्षधर होता जा रहा है जो साम्यवाद का प्रमुख नेता है। साम्यवादी सोवियत संघ धर्म को जनता की अफीम मानता या लेकिन अब लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्षधर होने के कारण अन्य स्वतंत्रताओं को प्रदान करने के साथ-साथ धार्मिक स्वतंत्रता भी प्रदान करने की वकालत कर रहा है।
    दूसरी तरफ कुछ राजनेता राज्य को धर्म सापेक्ष घोषित कर जनतांत्रिक मूल्यों का हनन कर रहे हैं तो कहीं पर साम्प्रदायिकता अपना नग्न नृत्य कर मानवता का गला घोंट रही है। ऐसी विषयम परिस्थिति में राज्य और धर्म के सम्बन्ध पर एक प्रश्न चिन्ह लगता है। इसी प्रश्न का उत्तर हम धर्म निरपेक्षता के विश्लेषण के माध्यम से देने का प्रयास करेंगे।
    लोकतांत्रिक मूल्यों में धर्म निरपेक्षता का एक महत्वपूर्ण स्थान है, बिना इसके लोकतंत्र अपनी सम्पूर्णता को प्राप्त ही नहीं कर सकता। धर्म निरपेक्षता क्या है? यह समझने के लिए उसके ऐतिहासिक पक्ष का सिंहावलोकन अति आवश्यक है। यदि धर्म निरपेक्षता का सर्वांगीण अवलोकन करें तो हमको उसके तीन पहलू दिखाई देते हैं-पश्चिमी, साम्यवादी और भारतीय। धर्म निरपेक्षता का सर्वांगीण अवलोकन करें तो हमको उसके तीन पहलू दिखाई देते हैं पश्चिमी, साम्यवादी और भारतीय। धर्म निरपेक्षता के पश्चिमी पहलू से हमारा तात्पर्य एंग्लो-अमरीकन और यूरोपीय दृष्टिकोण से है। जहाँ पर राज्य और चर्च में हजारों वर्ष तक संघर्ष चलता रहा है। चर्च ने केवल राजनीतिक सत्ता पर ही हस्तक्षेप नहीं किया बल्कि स्वयं एक राजनीतिक सत्ता के रूप में उभरने की कोशिश की। ग्रेगरी सप्तम, इनोसेण्ट तृतीय, बोनीफेस अष्टम ने धार्मिक सत्ता के साथ राजनीतिक सम्प्रभुता का भी दावा किया था। इनोसेण्ट तृतीय ने तो पूरे इटली में अपना राज्य ही कायम कर लिया था। जैसे-जैसे रोम साम्राज्य की राजनीतिक सत्ता क्षीण होती गई, वैसे-वैसे मध्ययुगीन यूरोप में राजनीतिक सत्ता पर पोप की पकड़ बढ़ती गई और इतनी बढ़ गई कि यूरोपीय शासक बिना पोप की अनुमति के ईसाइयों पर टैक्स तक नहीं लगा सकता था। चर्च की सम्पत्ति पर नियंत्रण और विवाह सम्बन्ध भी स्थापित नहीं कर सकता था। रोम साम्राज्य के पूर्व और पश्चिम में बँटते ही पोप अपने को साम्राज्य का पूर्ण अधिकारी मानने लगा। कैथोलिक और प्रोटेस्टेण्ट में जब ईसाई धर्म बँटा तव इतना खून बहां कि लोगों को धर्म के नाम से वितृष्णा सी हो गई। पोप की सत्ता क्षीण होते ही राज्य सत्ता ने धर्म को एकदम राजनीति से बाहर निकालने का प्रयास किया। धर्म निरपेक्षता इसी भावना का परिणाम है। इस दृष्टिकोण के अनुसार धर्म को राजनीति से अलग रहना चाहिए।

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