मनुष्यता: Manushyata: Maithili Sharan Gupt: Inspiring Hindi Poem: Hindi Poetry: Motivational Poem

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  • เผยแพร่เมื่อ 30 ก.ย. 2024
  • मनुष्यता: Manushyata: Maithili Sharan Gupt: Inspiring Hindi Poem: Hindi Poetry: Motivational Poem
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    प्रकृति के अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य में सोचने की शक्ति अधिक होती है। वह अपने ही नहीं दूसरों के सुख - दुःख का भी ख्याल रखता है और दूसरों के लिए कुछ करने में समर्थ होता है। महान वो हैं जो अपनों के सुख - दुःख से पहले दूसरों की चिंता करते हैं। आदमी में ऐसे गुण होने चाहिए कि मरने के बाद भी सदियों तक दूसरों की यादों में रहे अर्थात वह मृत्यु के बाद भी अमर रहे!
    राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त (३ अगस्त १८८६ - १२ दिसम्बर १९६४) हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे। हिन्दी साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं। ... उनकी जयन्ती ३ अगस्त को हर वर्ष 'कवि दिवस' के रूप में मनाया जाता है। सन १९५४ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया।
    विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸
    मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।
    हुई न यों सु-मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸
    मरा नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।
    यही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸
    वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
    उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती¸
    उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
    उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
    तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
    अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸
    वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।।
    क्षुधार्थ रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
    तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
    उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
    सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।
    अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?
    वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
    सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;
    वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
    विरूद्धवाद बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा¸
    विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहा?
    अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸
    वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
    रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में,
    सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में|
    अनाथ कौन हैं यहाँ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,
    दयालु दीनबन्धु के बड़े विशाल हाथ हैं|
    अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,
    वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
    अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸
    समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े।
    परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸
    अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
    रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸
    वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
    "मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है¸
    पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
    फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸
    परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
    अनर्थ है कि बंधु ही न बंधु की व्यथा हरे¸
    वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
    चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸
    विपत्ति विघ्न जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
    घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸
    अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
    तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸
    वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
    Gratitude:
    Poetry: Maithili Sharan Gupt
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