ओ चिन्मय ! । आद. बाबु जुगल किशोर जी ‘युगल’ कृत । स्वर- श्रीमती निकिता झांझरी,सूरत | O Chinmay
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- เผยแพร่เมื่อ 10 ต.ค. 2024
- ओ चिन्मय ! - एक संबोधन,जिनवाणी माता का- ठीक वैसे ही जैसे कोई माता अपने बालक को बुलाती है,स्नेह से उसकी ग़लतिया बताकर उसे सही मार्गदर्शन देती है, ओ चिन्मय कहकर , जिनवाणी प्रत्येक उस ज्ञान स्वरूपी चेतन को आवाज़ देकर बुला रही है जो मिट्टी की ममता से ग्रसित है ।
बाबूजी की कलम से निकला हर शब्द महा मोह पर वज्रपात है।
KKPPS ये कृति को प्रस्तुत करके गौरवान्वित है 🙏
Singing @nikitajhanjhari316
Direction @gyatajhanjhari6248
Music - Jimmy Desai (7heartz studio)
Video by - Dada art (akash jain)
ओ चिन्मय -
विस्मय होता रे तेरे उन विश्वासों पर
जिनकी कोई धरती, कोई गगन नहीं है
मृग मरीचि को रहे तुम्हारे प्राण समर्पित
जिसमें सलिल नहीं है ठहरे हो उस तट पर
मिट्टी में ही रहा अहं जिसका कल्पों से
रत्नराशि उसको कैसे देगा रत्नाकर ?
छलनाओं से छला गया हो बुद्धि - कोष जो
उसको पैदा करके वसुधा बांझ रही है
तुमने उगता सूरज रोजाना देखा है
वह यौवना भी देखा जिसको झांक न पाये
किन्तु सान्ध्य की अन्तिम श्वांसों में सच बोलो
तुम सूरज का चेहरा तक पहचान न पाये
जीवन का अवलम्ब बनाया उनको तुमने
जिनका अपना ही कोई अवलम्ब नहीं है ।
शम्पाओं की तप्त - परिधि में खूब तपे हो
और खपे हो इन्द्रभवन की मधुशाला में ।
क्रीतदास तुम सदा रहे हो रुपावलि के
तुम्हें सुहाई सदा विषय की विष- कन्यायें
अरे रुप के लोलुप ! इतना समझ न पाये
इस बस्ती में तेरो कोई रुप नहीं है ।
अरे ! पाप की मदमाती काली रातों में
तुम बेहोश रहे मद पी-पीकर जहरीले
और पुंय के मधुर दास्य की धवल निशा में
तूने अपना रूप निहारा ओ गर्वीले
गर्म और ठण्डी श्वासें ये पाप पुण्य की
अरे ! मृत्यु की अगवानी है, अमन नहीं है
मिट्टी से ही सदा रहे हैं रिश्ते तेरे
चिर अनन्त मिट्टी ही तेरी साध रही है
तेरे त्याग-तपस्या सब मिट्टी पर ठहरे
पुण्य पाप का आकर्षण सब मिट्टी ही है
ओ चिन्मय ! मिट्टी के दावेदार रहे हो
मिट्टी की ममता छोटा अपराध नहीं है
रे ! मिट्टी के जड अणुओं की शक्ति अपरिमित
अणुभर भी यदि स्खलन चित्त में अणु पर होता
सह नहिं पाता मिट्टी का कण इस अनीति को
जटिल आणविक बन्धन तत्क्षण निर्मित होता
पीडाओं की संतति चलती रहती है यों
क्योकि निरन्तर प्रज्ञा अणु में व्यस्त रही है
प्रलय सृष्टि से पार शान्त - एकान्त - विजन में
अरे ! देह में ही विदेह चिन्मय अमि - घट रे
किन्तु मृत्यु के कृत्रिम - तन्तु कल्पना बुनती
आत्मतत्त्व तो सब सन्दभों में अक्षय रे
हिम शैलों पर हमने रवि को तपते देखा
पर हिम के शीतल अन्तस् में तपन नहीं है
अन्धकार में क्रन्दन करता कोई बोला
“अरे ! अँधेरा निर्दय मुझको निगल गया रे”
किन्तु किसी के करुण - स्पर्श ने तभी पुकारा
" बोल रहे हो, फिर कहते तम निगल गया रे"
अरे ! आत्म-विस्मृति के तम की धन- परतों में
यों चिन्मय मणि - दीप प्रदीप्त निरन्तर ही है ..
अरे विश्व तो जड - चेतन की अकृत नगरी
सब स्वतन्त्र क्रीडा करते अपने सदनों में
यहाँ नहीं अवकाश अतिक्रमण का किंचित् भी अतिक्रमण का यत्न चीखता है नरकों में वीतराग दर्शन का यह अन्तस्तल छू लो
संसृति के दारुण कष्टों का अन्त यहीं है ..
पैठो, पैठो अतल शून्य के तल में पैठो
मदिर सुरबि बहती है अगणित शक्ति सुमन की
वहाँ पराये का कोई भी देश नहीं है
सबकी सब है सिर्फ अरे ! अपनों की बस्ती
तम के परिकर का उस तल को स्पर्श नहीं रे
अरे ! चिरन्तन चित्-प्रकाश का भवन वही है..
विस्मय होता रे …
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Very very good, गीत और गायगी दोनों 👋👋👋👋👋
❤❤
Shahgarh sagar Jai jinendra bahut sundar hai 🙏🙏🙏
Shandar Nikita
Bahut sundar 🎉
wonderful,plz upload lyrics in description too,is there any discourses on it in hindi
Bhut bhut sundar rachana ke sath prstuti bhi adbhut sundar Jai ho prabhu
🎉🎉अति अद्भूत
बहुत सुंदर प्रस्तुति बाबूजी द्वारा
अद्भुताद्भुत , प्रतिदिन श्रवण योग्य मनन योग्य
❤😢👍👌👏👊
बहुत-बहुत सुन्दर भाव 🙏👍👍🙏आगरा
Babu ji ki adbhut rachna...bahut bhaavpurn 🙏🙏
वाह कितनी भाव भरी नमन बाबू जी को
कर्णप्रिय, अति सुंदर
Kya baat he
Sumadhura ❤
बहुत ही सुंदर
Bahut sundar prastuti 🎉
❤😢👍👌👏👊