सचेतन, पंचतंत्र की कथा-12 : आषाढ़भूति, सियार और दूती आदि की कथा-2

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  • เผยแพร่เมื่อ 22 ธ.ค. 2024
  • यह कहानी एक महत्वपूर्ण सीख देती है कि किस प्रकार मनुष्य को संयम, सतर्कता, और विश्वास का संतुलन साधना चाहिए। इसमें देव शर्मा नामक एक संन्यासी और आषाढ़भूति नामक एक धूर्त पात्र के बीच की घटनाओं को दर्शाया गया है, जिसमें ज्ञान, धोखा और लोभ की परतें उजागर होती हैं।
    शांति और वैराग्य की चर्चा: एक दिन आषाढ़भूति देव शर्मा के पास गया और उनसे दीक्षा मांगने की इच्छा व्यक्त की। उसने यह बताते हुए कहा कि उसे संसार के भोगों से वैराग्य हो गया है। देव शर्मा उसकी बातों से प्रभावित हुए और उसे शिक्षा दी। उन्होंने कहा, "जो मनुष्य अपनी जवानी में ही शांत हो जाता है, वही सच्चा शांत है। जब शरीर की धातुएं छीजने लगती हैं और शरीर बूढ़ा हो जाता है, तो शांति आना कोई बड़ी बात नहीं है।"
    उन्होंने यह भी समझाया कि "भलेमानसों को पहले मन में बुढ़ापा आता है और फिर शरीर में। परंतु दुष्ट लोगों को सिर्फ शरीर में ही बुढ़ापा आता है, उनके मन में वह शांति और परिपक्वता नहीं आती।"
    शिव मंत्र की दीक्षा: आषाढ़भूति ने देव शर्मा से पूछा कि वह कैसे इस संसार-सागर को पार कर सकता है। देव शर्मा ने उसे शिव मंत्र की दीक्षा देने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने बताया कि चाहे कोई शूद्र हो या चांडाल, यदि वह शिव मंत्र से दीक्षित होकर जटा धारण करे और शरीर में भस्म लगाए, तो वह शिव रूप हो सकता है। और यदि कोई व्यक्ति छः अक्षरों वाले मंत्र से शिवलिंग के ऊपर एक फूल भी चढ़ा दे, तो उसे फिर से जन्म नहीं लेना पड़ता।
    यह सुनकर आषाढ़भूति ने संन्यासी के पांव पकड़ लिए और उनसे दीक्षा देने की विनती की। देव शर्मा ने उसकी विनती स्वीकार की, लेकिन साथ ही एक शर्त रखी-रात में मठ के भीतर सोने की अनुमति नहीं थी। उन्होंने कहा, "यतियों के लिए अकेलापन जरूरी है, मेरे और तुम्हारे दोनों के लिए।"
    अकेलेपन और संयम की महत्ता: देव शर्मा ने कहा कि अकेलापन संन्यासियों के लिए जरूरी होता है, क्योंकि यह मनुष्य को आत्ममंथन और साधना का अवसर देता है। उन्होंने कई उदाहरण देते हुए समझाया कि गलत संगत, अभिमान, और अनियमितता से कैसे रिश्ते, धन, और जीवन की समृद्धि नष्ट हो जाती है।
    उन्होंने आषाढ़भूति से कहा, "तुझे मठ के दरवाजे पर फूंस की झोपड़ी में सोना होगा।" आषाढ़भूति ने इसे स्वीकार किया और संन्यासी के निर्देशानुसार चलने का वचन दिया। इस प्रकार देव शर्मा ने शास्त्रोक्त विधि से उसे अपना शिष्य बना लिया।
    आषाढ़भूति का धूर्ततापूर्ण योजना: आषाढ़भूति ने संन्यासी की सेवा कर उनका विश्वास जीतने की पूरी कोशिश की। उसने दिन-रात उनकी सेवा की, उनके हाथ-पैर दबाए, और सभी कार्यों में उनका सहयोग किया। लेकिन फिर भी, देव शर्मा अपने धन की थैली को कभी अपने से दूर नहीं करते थे। इस बात से आषाढ़भूति निराश था। उसने महसूस किया कि चाहे वह कितनी भी सेवा करे, संन्यासी उसे अपने धन के करीब आने नहीं देंगे।
    उसने सोचा, "यह संन्यासी मुझ पर कभी विश्वास नहीं करेगा। तो क्या मुझे इसे दिन में ही मार देना चाहिए या इसे विष देकर इसे समाप्त कर देना चाहिए?" लेकिन वह अपनी योजना को अंजाम देने का सही मौका ढूंढ रहा था।
    आगामी घटना: इसी बीच, एक दिन देव शर्मा के एक शिष्य का लड़का वहां आया और उसने देव शर्मा को यज्ञोपवीत संस्कार (जनेऊ) के लिए अपने घर आने का निमंत्रण दिया। देव शर्मा ने उस निमंत्रण को खुशी-खुशी स्वीकार किया और आषाढ़भूति को भी अपने साथ ले लिया।
    यहां से कहानी एक नए मोड़ की ओर बढ़ती है, जहां आषाढ़भूति अपनी धूर्तता को अंजाम देने का सही अवसर पाने की कोशिश में रहता है।
    सच्चाई का अहसास: जब देव शर्मा ने स्नान समाप्त किया और अपनी कथरी की ओर लौटे, तो उन्होंने पाया कि आषाढ़भूति और धन की थैली दोनों ही गायब थे। यह देख देव शर्मा के होश उड़ गए। उन्होंने जल्दी-जल्दी अपने हाथ-पैर धोए और कथरी की जांच की, लेकिन उसमें धन की थैली नहीं थी। वे जोर-जोर से चिल्लाने लगे, "हाय! मैं तो लुट गया!" और बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। कुछ समय बाद जब उन्हें होश आया, तो वे रोते हुए पुकारने लगे, "अरे आषाढ़भूति, मुझे ठगकर तू कहाँ भाग गया? मेरी बात का जवाब दे!"
    धोखा और दुख: देव शर्मा का दुख किसी से छिपा नहीं था। आषाढ़भूति ने उनका विश्वास तोड़कर उन्हें बहुत बड़ा धोखा दिया था। देव शर्मा ने अपने शिष्य पर भरोसा किया था, और उसी ने उनकी सारी मेहनत की कमाई को चुरा लिया। अपनी सारी उम्मीदें टूट जाने के बाद, देव शर्मा ने आषाढ़भूति के पैरों के निशान देखे और उनका पीछा करने लगे। धीरे-धीरे चलते-चलते वे संध्या के समय किसी गाँव में पहुँचे। वे बेहद थके और दुखी थे, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और अपने शिष्य को खोजने का संकल्प किया।
    कहानी का संदेश: यह कहानी हमें यह सिखाती है कि मनुष्य को कभी भी लालच के मोह में नहीं पड़ना चाहिए, क्योंकि इसका परिणाम हमेशा दुखद होता है। आषाढ़भूति का लोभ और धोखे की प्रवृत्ति ने उसे एक दुष्ट कार्य करने पर मजबूर कर दिया, और देव शर्मा जैसे भले व्यक्ति का विश्वास तोड़ दिया।
    देव शर्मा के उदाहरण से यह भी स्पष्ट होता है कि किसी पर भी आंख मूंदकर भरोसा करना हमेशा सही नहीं होता। हमें हमेशा सतर्क रहना चाहिए और लोगों के वास्तविक स्वभाव को समझने का प्रयास करना चाहिए। वहीं, सियार और मेढ़ों की घटना भी इस बात का उदाहरण है कि कैसे लोभ व्यक्ति को मुश्किल में डाल सकता है। सियार का खून चाटने का लालच उसे मार डालता है, ठीक उसी प्रकार जैसे आषाढ़भूति का लालच उसे अंततः दुख और कष्ट की ओर ले जाएगा।
    इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि सच्चा संतोष और शांति धन में नहीं, बल्कि लोभ और मोह से मुक्त रहने में है। हमें अपनी इच्छाओं और लालच पर नियंत्रण रखना चाहिए, क्योंकि वही हमारी असली शांति का मार्ग है।

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