माया क्या है माया से मुक्ति कैसे मिले। भागवत गीता में|

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  • เผยแพร่เมื่อ 17 ต.ค. 2024
  • माया क्या है माया से मुक्ति कैसे मिले। भागवत गीता में| #mayasemukti #geeta #mayakyhai
    ‪@DharmYog.Com0001‬
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    आपने अक्सर लोगों को बोलते हुए सुना होगा कि सब मोह - माया” है। लेकिन सत्य तो यह है कि इस तरह के शब्दों का प्रयोग करने वाले ही, माया से परिचित नहीं होते। असल में माया क्या है? या माया किसे कहते हैं? यह बहुत कम ही लोग जानते हैं,
    हालांकि हमारे ग्रंथ हमे बताते है कि माया क्या है, लेकिन फिर भी लोगों ने उसके गलत मतलब ही निकाल पाए है। इसीलिए आज यह जानना और इसका प्रचार करना बेहद जरूरी है कि, असलियत में माया क्या है?
    माया एक तरह से भ्रम है। माया भौतिक वस्तुएं हैं, पुत्र-पुत्रियां, बैंक-बैलेंस, जमीन-जायदाद हैं, जिसे हम अपना मानते हैं। लेकिन वास्तविकता यह है, ये माया है। यह सब भ्रम है और मोह यानी इनको भोगने वाला लालच हमारे अंदर भरा हुआ है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हमें इन सबका इस सांसारिक जीवन में त्याग कर देना चाहिए बल्कि हमें यह वास्तविकता समझनी चाहिए ताकि इन भौतिक वस्तुएं और सुख सुविधाएं पल भर के लिए होती हैं, अगर यह हमसे छीन जाए तो हमें दुख न होना चाहिए।यह तब होगा जब हम माया और मोह के बंधन को समझें, इसके पीछे न भागें
    नारद ने एक दिन श्रीकृष्ण से पूछा, "प्रभु, आपकी माया कैसी है, मैं देखना चाहता हूँ।" कई दिन के बाद श्रीकृष्ण नारद को लेकर एक जंगल में गये। बहुत दूर जाने के बाद श्रीकृष्ण नारद से बोले―"नारद, मुझे बड़ी प्यास लगी है। क्या कहीं से थोड़ा जल लाकर पिला सकते हो?" नारद बोले― "प्रभु, कुछ देर ठहरिये, मैं अभी जल लेकर आता हूँ।" यह कह कर नारद चले गये। कुछ दूर पर एक गाँव था, नारद वहीं जल की खोज करने लगे। एक मकान के द्वार पर पहुँच कर उन्होंने खटखटाया। द्वार खुला और एक परम सुन्दरी कन्या उनके सम्मुख आकर खड़ी हुई। उसे देखते ही नारद सब कुछ भूल गये। भगवान उनकी प्रतीक्षा कर रहे होगे, वे प्यासे होगे, हो सकता है प्यास से उनका प्राणवियोग भी हो जाय―ये सभी बाते नारद भूल गये। सब कुछ भूल कर वे उसी कन्या के साथ बातचीत करने लगे, धीरे धीरे एक दूसरे के प्रति प्रणयभाव उत्पन्न होने लगा। तब फिर नारद उस कन्या के पिता के पास जाकर उसके साथ विवाह करने के लिये प्रार्थना करने लगे-विवाह भी हो गया और वे उसी गाँव में रहने लगे― धीरे धीरे उनके सन्तति भी होने लगी। इसी तरह रहते रहते बारह वर्ष बीत गये। नारद के ससुर भी मर गये और उनकी सम्पत्ति के नारद उत्तराधिकारी हो गये और पुत्र कलत्र, भूमि, पशु, सम्पत्ति, गृह आदि को लेकर नारद खूब स्वच्छन्दता पूर्वक सुख से रहने लगे। अन्त में उन्हे यह बोध होने लगा कि वे खूब सुखी है। इसी समय उस देश में बाढ़ आई। एक दिन रात के समय नदी दोनों तटों को तोड़कर बहने लगी और सम्पूर्ण गाँव डूब गया। मकान सब गिरने लगे; मनुष्य, पशु, पक्षी, सब बह बह कर डूबने लगे, नदी की धार में सभी कुछ बहने लगा। नारद को भी भागना पड़ा। एक हाथ से उन्होंने स्त्री को पकड़ा, दूसरे हाथ से दो बच्चों को, और एक बालक को कन्धे पर बिठा कर उस भयङ्कर नदी को पार करने की चेष्टा करने लगे। ⁠कुछ दूर जाने के बाद ही लहरों का वेग बढ़ने लगा। कन्धे पर बैठे हुये शिशु की नारद किसी प्रकार रक्षा न कर सके; वह गिर कर तरंगो में वह गया। निराशा और दुख से नारद चीत्कार कर उठे। उसकी रक्षा करने को जाते ही और एक बालक, जिसका हाथ वे पकड़े हुये थे, हाथ से छूट डूब कर मर गया। अपनी पत्नी को वे अपने शरीर की समस्त शक्ति लगा कर पकड़े हुये थे, अन्त में तरंगो के वेग से पत्नी भी उनके हाथ से छूट गई और वे स्वयं तट पर गिर कर मिट्टी मे लोटपोट होने लगे और बड़े कातर स्वर में विलाप करने लगे। इसी समय मानो किसी ने उनकी पीठ पर कोमल हाथ रख कर कहा―"वत्स, कहाँ, जल कहाँ है? तुम जल लेने गये थे, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में हूँ। तुम्हें गये हुये आधा घण्टा हुआ।" आध घण्टा! नारद के लिये तो बारह वर्ष बीत चुके थे! और आध घण्टे के भीतर हीये सब दृश्य उनके मन के अन्दर से निकल गये―यही माया है! किसी न किसी रूप में हम सब इसी माया के भीतर रहते है।
    “हर वह चीज जो तुमको अपनी तरफ खींचती है, आकर्षित करती है, आपके मन में उसको पाने के भाव बनाती है, वह सब माया है, और उसका काम सिर्फ एक है, आपको आपके मूल मकसद से भटकाना जिसके बाद ना तो आपको आपका मकसद प्राप्त होता है, ना ही उस चीज से संतुष्टि मिलती है जिसकी तरफ आप भाग रहे होते हैं। “यही तो माया है ”
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