Abhinav Manushya-2| अभिनव मनुष्य-2| Part-2 | Ramdhari sinh Dinkar | abhinav manushya kavita

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  • เผยแพร่เมื่อ 13 ก.ย. 2024
  • Part -1 Link: • Abhinav Manushya | अभि...
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    #अभिनव मनुष्य -दिनकर
    4खोलकर अपना ....... नया उत्कर्ष।
    व्याख्या: कवि कहता है कि वर्तमान युग में मनुष्य का ज्ञान, शोधात्मक प्रवृत्ति एवं साहसिक कार्यों के परिणामस्वरूप पर्वत, सागर, पृथ्वी, आकाश भी हृदय खोलकर अपना सर्वाधिक गोपनीय इतिहास बता चुके हैं। आज प्रकृति के समस्त रहस्यों से पर्दा हट चुका है अर्थात् अब कुछ भी अज्ञात नहीं रह गया है। इसके पश्चात भी अभिनव मनुष्य ऐसी उपलब्धियों को अर्जित करने का इच्छुक है, जिन्हें सरलतापूर्वक हासिल करना असम्भव प्रतीत होता है। वह अपने लिए ऐसे दुर्गम व कठिन मार्ग तथा बाधाओं को आमन्त्रित करता रहता है, जिन पर कठिनाई से ही सही; परन्तु सफलता प्राप्त की जा सके। वह चिन्तन एवं कर्म की दृष्टि से बारम्बार नए। तौर-तरीकों से संघर्ष करने के लिए तत्पर रहता है तथा नवीन विजय प्राप्त करने के लिए सतत रूप से आगे बढ़ते रहने के लिए इच्छुक रहता है।
    काव्य सौंदर्य:रस- शान्त, भाषा: संस्कृतनिष्ठ, शुद्ध परिष्कृत खड़ीबोली, शैली : प्रबन्धात्मक, अलंकार : अनुप्रास एवं मानवीकरण, गुण : प्रसाद, शब्द शक्ति : अभिधा एवं लक्षणा
    5.पर, धरा सुपरीक्षिता, ...... जग विस्तीर्ण।
    व्याख्या: कवि कहता है कि आरम्भिक समय से ही मनुष्य की प्रवृत्ति खोज-बीन करने की रही है। इसी के फलस्वरूप मनुष्य ने सम्पूर्ण पृथ्वी का निरीक्षण कर उसका विश्लेषण किया है। अब पृथ्वी पर ऐसा कोई तथ्य मौजूद नहीं है, जिससे मनुष्य अवगत न रहा हो। वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो वर्तमान समय में अभिनव मनुष्य के लिए पृथ्वी पर आकर्षण हेतु कोई वस्तु या पदार्थ अछूता नहीं रह गया है। उसने पृथ्वी से सम्बन्धित सभी रहस्यों की जानकारी प्राप्त कर ली है। अब मनुष्य के लिए पथ्वी से सम्बन्धित जानकारी बहुत आसान हो गई है, जैसे-हथेली पर रखा गोल-मटोल छोटा-सा आँवला हो। अत: मनुष्य ने पृथ्वीरूपी पुस्तक के एक पृष्ठ से अवगत होकर ही उसको कण्ठस्थ (याद) कर लिया है।प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि दिनकर जी यह कहना चाहते हैं कि मानव की बुद्धि निरन्तर तीव्रगति से चलती रहती है। वह एक पल के लिए भी नहीं रुक सकता, उसकी बुद्धि एक क्षण के लिए भी विश्राम नहीं लेती। मनुष्य ने इस धरतीरूपी पुस्तक को भली-भाँति तरीके से पढ़ लिया है और यह उसके लिए पुरानी पड़ चुकी है अर्थात अब इस धरती से सम्बन्धित तथ्यों को जानना शेष नहीं रह गया। है। इसके बारे में वह सभी चीजों को जान एवं समझ चुका है। अब उसके चिन्तन के लिए कोई भी बात नई नहीं रह गई है, सभी पुरानी पड़ चुकी हैं। यह विस्तृत आकाश अब उसके लिए सिकुड़ गया है, सीमित हो गया है। अब आज का मानव अपनी गतिविधियों के विस्तार के लिए कोई नया क्षेत्र चाहता है। वह अधिक नवीन एवं व्यापकnसंसार चाहता है, जिसके बारे में वह नई चीजों को जान सके। वह नए एवं विस्तृत संसार को खोजने के लिए सतत् प्रयत्नशील है।
    काव्य सौंदर्य:रस- शान्त, भाषा: संस्कृतनिष्ठ, शुद्ध परिष्कृत खड़ीबोली, शैली : प्रबन्धात्मक, अलंकार : रूपक, उपमा एवं अनुप्रास, गुण : प्रसाद, शब्द शक्ति : अभिधा एवं लक्षणा
    6.यह मनुज, .........भी वही।
    व्याख्या: कविवर दिनकर कहते हैं कि यह सत्य है कि मनुष्य इस सृष्टि की सबसे सुन्दर रचना है। यह विज्ञान से पूर्णत: परिचित हो चुका है। आकाश से लेकर पाताल तक कोई रहस्य शेष नहीं है, जो इससे छिपा हुआ हो, जो इसने जान न लिया हो। यह ज्ञान का अनुपम भण्डार है। चर और अचर सभी इसको भक्तिपूर्वक प्रणाम करते हैं। यह मनुष्य सृष्टि का श्रृंगार है। ज्ञान और विज्ञान का अदभुत भण्डार है। इतना सब होते हुए भी यह इसका वास्तविक परिचय नहीं है और न ही इसमें उसकी कोई महानता ही है। उसकी महानता तो इसमें है कि वह अपनी बुद्धि की दासता से मुक्त हो और बुद्धि पर उसके हृदय का अधिकार हो अर्थात् वह बुद्धि के स्थान पर अपने हृदय का प्रयोग अधिक करे। वह असंख्य मानवों के प्रति अपना सच्चा प्रेम रखे। दिनकर जी के अनुसार, वही मनुष्य ज्ञानी है, विद्वान् है, जो मनुष्यों के बीच में बढ़ती हई दूरी को मिटा दे। वास्तव में वही मनुष्य श्रेष्ठ है, जो स्वयं को एकाकी न समझे, बल्कि सम्पूर्ण पृथ्वी को अपना परिवार समझे। आज मनुष्य ने वैज्ञानिक उन्नति तो बहुत कर ली है, पर पारस्परिक प्रेमभाव। कम होता जा रहा है। कवि चाहता है कि मनुष्य की बुद्धि पर उसके हृदय का अधिकार हो जाए। वास्तव में ज्ञानी वही है, जो मानव-मानव के बीच अन्तर समाप्त कर दे।
    काव्य सौंदर्य:रस- शान्त, भाषा: संस्कृतनिष्ठ, शुद्ध परिष्कृत खड़ीबोली, शैली : प्रबन्धात्मक, अलंकार : रूपक, उपमा एवं अनुप्रास, गुण : प्रसाद, शब्द शक्ति : अभिधा एवं लक्षणा
    7.सावधान, .....बड़ी यह धार।
    व्याख्या: कवि दिनकर जी कहते हैं कि विज्ञान के माध्यम से मानव ने प्रकृति के साथ संघर्ष करते हुए अनेक ऐसे नए उपकरणों एवं प्रयोगों को विकसित किया है. जिससे वह प्रकृति को नियन्त्रित कर सके। प्रकृति को नियन्त्रित करने की इच्छा ने। जिन नवीन वैज्ञानिक उपकरणों एवं खोजों को जन्म दिया, उनसे वातावरण में विनाश की परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई हैं। विज्ञान का दुरुपयोग मानव के कल्याणकारी साधनों के विनाश का कारण बन सकता है। यही कारण है कि कवि दिनकर जी अभिनव मानव को सावधान करते हुए कहते हैं कि हे मानव! त् विज्ञानरूपी तीक्ष्ण धार वाली तलवार से खेलना छोड़ दे। यह मानव समुदाय के हित में नहीं है। यदि विज्ञान तीक्ष्ण तलवार है, तो इस मोह को त्यागकर फेंक देना ही उचित है। इस विज्ञा
    काव्य सौंदर्य:रस- शान्त, भाषा: संस्कृतनिष्ठ, शुद्ध परिष्कृत खड़ीबोली, शैली : प्रबन्धात्मक, अलंकार : रूपक, उपमा एवं अनुप्रास, गुण : प्रसाद, शब्द शक्ति : अभिधा एवं लक्षणा
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