गुण ही गुणों में बरतते है एक ही इंसान, कभी दर्द, कभी ज्वर पीड़ा कभी खांसी सर्दी क्योंकि शरीर में तीन गुण वात, पित, कफ का समावेश है, जिस भी गुण की अधिकता रहेगी वही दोष रोग उत्पन्न हो जाएगा। एक ही इंसान कभी सत्य- परमार्थ - धर्म में, कभी भोग- ठाठ बाट में, कभी क्रोध - आलस्य - हिंसा- असत्य में लिप्त होता है, जबकि आत्मा का ख़ुद का कोई गुण दोष नहीं होता। तीन तत्व सत्व, रज और तमस, जिस भी गुण की प्रधानता होती है इंसान वैसा ही आचरण करता है। गुण ही गुणों में बर्त रहे है
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गुण ही गुणों में बरतते है
एक ही इंसान, कभी दर्द, कभी ज्वर पीड़ा कभी खांसी सर्दी क्योंकि शरीर में तीन गुण वात, पित, कफ का समावेश है, जिस भी गुण की अधिकता रहेगी वही दोष रोग उत्पन्न हो जाएगा।
एक ही इंसान कभी सत्य- परमार्थ - धर्म में, कभी भोग- ठाठ बाट में, कभी क्रोध - आलस्य - हिंसा- असत्य में लिप्त होता है, जबकि आत्मा का ख़ुद का कोई गुण दोष नहीं होता। तीन तत्व सत्व, रज और तमस, जिस भी गुण की प्रधानता होती है इंसान वैसा ही आचरण करता है।
गुण ही गुणों में बर्त रहे है