सुभद्रा: महादेवी वर्मा/Subhadra Mahadevi Verma/Mahadevi Varma and her senior Subhadra Kumari Chauhan

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  • เผยแพร่เมื่อ 24 ม.ค. 2025
  • हमारे शैशवकालीन अतीत और प्रत्यक्ष वर्तमान के बीच में समय-प्रवाह का पाट ज्यों-ज्यों चौड़ा होता जाता है त्यों-त्यों हमारी स्मृति में अनजाने ही एक परिवर्तन लक्षित होने लगता है. शैशव की चित्रशाला के जिन चित्रों से हमारा रागात्मक संबंध गहरा होता है, उनकी रेखाएं और रंग इतने स्पष्ट और चटकीले होते चलते हैं कि हम वार्धक्य की धुंधली आंखों से भी उन्हें प्रत्यक्ष देखते रह सकते हैं. पर जिनसे ऐसा संबंध नहीं होता वे फीके होते-होते इस प्रकार स्मृति से धुल जाते हैं कि दूसरों के स्मरण दिलाने पर भी उनका स्मरण कठिन हो जाता है.
    मेरे अतीत की चित्रशाला में बहिन सुभद्रा से मेरे सखय का चित्र, पहली कोटि में रखा जा सकता है, क्योंकि इतने वर्षों के उपरांत भी उसकी सब रंग-रेखाएं अपनी सजीवता में स्पष्ट हैँ.
    एक सातवीं कक्षा की विद्यार्थिनी, एक पांचवीं कक्षा की विद्यार्थिनी से प्रश्न करती है, ‘क्या तुम कविता लिखती हो?’ दूसरी ने सिर हिलाकर ऐसी अस्वीकृति दी जिसमें हां और नहीं तरल हो कर एक हो गए थे. प्रश्न करने वाली ने इस स्वीकृति-अस्वीकृति की संधि से खीझ कर कहा, ‘तुम्हारी क्लास की लड़कियां तो कहती हैं कि तुम गणित की कापी तक में कविता लिखती हो. दिखायो अपनी कापी’ और उत्तर की प्रतीक्षा में समय नष्ट न कर वह कविता लिखने की अपराधिनी को हाथ पकड़ कर खींचती हुई उसके कमरे में डेस्क के पास ले गई. नित्य व्यवहार में आने वाली गणित की कापी को छिपाना संभव नहीं था, अत: उसके साथ अंकों के बीच में अनधिकार सिकुड़ कर बैठी हुई तुकबन्दियां अनायास पकड़ में आ गईं. इतना दंड ही पर्याप्त था. पर इससे संतुष्ट न होकर अपराध की अन्वेषिका ने एक हाथ में चित्र-विचित्र कापी थामी और दूसरे में अभियुक्ता की उंगलियां कस कर पकड़ीं और वह हर कमरे में जा-जा कर इस अपराध की सार्वजनिक घोषणा करने लगी.
    उस युग में कविता-रचना अपराधों की सूची में थी. कोई तुक जोड़ता है, यह सुनकर ही सुनने वालों के मुख की रेखाएं इस प्रकार वक्रकुंचित जो जाती थीं मानों उन्हें कोई कटु-तिक्त पेय पीना पड़ा हो.
    ऐसी स्थिति में गणित जैसे गंभीर महत्वपूर्ण विषय के लिए निश्चित पृष्ठों पर तुक जोड़ना अक्षम्य अपराध था. इससे बढ़कर काग़ज़ का दुरुपयोग और विषय का निरादर और हो ही क्या सकता था. फिर जिस विद्यार्थी की बुद्धि अंकों के बीहड़ वन में पग-पग उलझती है उससे तो गुरु यही आशा रखता है कि वह हर सांस को अंक जोड़ने-घटाने की किया बना रहा होगा. यदि वह सारी धरती को कागज बना कर प्रश्नों को हल करने के प्रयास से नहीं भर सकता तो उसे कम से कम सौ-पचास पृष्ठ, सही न सही तो गलत प्रश्न-उत्तरों से भर लेना चाहिए. तब उसकी भ्रांत बुद्धि को प्रकृतिदत्त मान कर उसे क्षमा दान का पात्र समझा जा सकता है, पर जो तुकबंदी जैसे कार्य से बुद्धि की धार गोंठिल कर रहा है वह तो पूरी शक्ति से दुर्बल होने की मूर्खता करता है, अत: उसके लिए न सहानुभूति का प्रश्न उठता है न क्षमा का.
    मैंने होंठ भींच कर न रोने का जो निश्चय किया वह न टूटा तो न टूटा. अंत में मुझे शक्ति-परीक्षा में उत्तीर्ण देख सुभद्रा जी ने उत्फुल्ल भाव से कहा, ‘अच्छा तो लिखती हो. भला सवाल हल करने में एक दो तीन जोड़ लेना कोई बड़ा काम है!’ मेरी चोट अभी दु:ख रही थी, परंतु उनकी सहानुभूति और आत्मीय भाव का परिचय पाकर आंखें सजल हो आईं. ‘तुमने सबसे क्यों बताया?’ का सहास उत्तर मिला ‘हमें भी तो यह सहना पड़ता है. अच्छा हुआ अब दो साथी हो गए.’
    बहिन सुभद्रा का चित्र बनाना कुछ सहज नहीं है क्योंकि चित्र की साधारण जान पड़ने वाली प्रत्येक रेखा के लिए उनकी भावना की दीप्ति ‘संचारिनी दीपशिखेव’ बनकर उसे असाधारण कर देती है. एक-एक कर के देखने से कुछ भी विशेष नहीं कहा जाएगा, परंतु सबकी समग्रता में जो उदृभासित होता था, उसे दृष्टि से अधिक हृदय ग्रहण करता था.
    Femina
    मझोले कद तथा उस समय की कृश देहयष्टि में ऐसा कुछ उग्र या रौद्र नहीं था जिसकी हम वीरगीतों की कवयित्री में कल्पना करते हैं. कुछ गोल मुख, चौड़ा माथा, सरल भृकुटियां, बड़ी और भावस्नात आंखें, छोटी सुडौल नासिका, हंसी को जमा कर गढ़े हुए से ओठ और दृढ़ता सूचक ठुड्डी...सब कुछ मिलाकर एक अत्यंत निश्चल, कोमल, उदार व्यक्तित्व वाली भारतीय नारी का ही पता देते थे. पर उस व्यक्तित्व के भीतर जो बिजली का छंद था उसका पता तो तब मिलता था, जब उनके और उनके निश्चित लक्ष्य के भीतर में कोई बाधा आ उपस्थित होती थी. ‘मैंने हंसना सीखा है मैं नहीं जानती रोना’ कहने वाली की हंसी निश्चय ही असाधारण थी. माता की गोद में दूध पीता बालक जब अचानक हंस पड़ता है, तब उसकी दूध से धुली हंसी में जैसी निश्चिंत तृप्ति और सरल विश्वास रहता है, बहुत कुछ वैसा ही भाव सुभद्रा जी की हंसी में मिलता था. वह संक्रामक भी कम नहीं थी क्योंकि दूसरे भी उनके सामने बात करने से अधिक हंसने को महत्त्व देने लगते थे.
    वे अपने बचपन की एक घटना सुनाती थीं. कृष्ण और गोपियों की कथा सुनकर एक दिन बालिका सुभद्रा ने निश्चय किया कि वह गोपी बन कर ग्वालों के साथ कृष्ण को ढूंढने जाएगी.
    दूसरे दिन वे लकुटी लेकर गायों और ग्वालों के झुंड के साथ कीकर और बबूल से भरे जंगल में पहुंच गई. गोधूली वेला में चरवाहे और गाएं तो घर की ओर लौट गए, पर गोपी बनने की साधवाली बालिका कृष्ण को खोजती ही रह गई. उसके पैरों में कांटे चुभ गए, कंटीली झाडियों में कपड़े उलझ कर फट गए, प्यास से कंठ सूख गया और पसीने पर धूल की पर्त जम गई, पर वह धुनवाली बालिका लौटने को प्रस्तुत नहीं हुई. रात होते देख घरवालों ने उन्हें खोजना आरम्भ किया और ग्वालों से पूछते-पूछते अंधेरे करील-वन में उन्हें पाया.
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