Abhigyan Shakuntalam | श्लोक चतुष्टयम् वाचन श्लोक | shlok chatushtaya |
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- เผยแพร่เมื่อ 10 ก.พ. 2025
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काव्येषु नाटकं रम्यं, तत्र रम्या शकुन्तला ।
तत्रापि चतुर्थोऽङ्कस्तत्र श्लोकचतुष्ट्यम् ॥
अर्थ:-
काव्यों में नाटक श्रेष्ठ है, और उन नाटकों में अभिज्ञान शाकुन्तलम् श्रेष्ठ है, और अभिज्ञान शाकुन्तलम् में भी चतुर्थ अङ्क रमणीय है और उस चतुर्थ अङ्क में भी श्लोक चतुष्टय श्रेष्ठ है।
यास्यत्यद्य शकुन्तलेति हृदयं संस्पृष्ठमुत्कण्ठया
कण्ठ: स्तम्भितबाष्पवृत्तिकलुषश्चिन्ताजडं दर्शनम्।
वैक्लव्यं मम तावदीदृशमिदं स्नेहादरण्यौकस:
पीड्यन्ते गृहिण: कथं नु तनयाविश्लेषदु:खैर्नवै: ॥
अर्थ:-
प्रस्तुत श्लोक मे पुत्री की विदायी का मार्मिक वर्णन किया गया है। ऋषि कण्व , शकुन्तला की विदायी के अवसर पर उतने ही दु:खित हैं जितना कि एक गृहस्थ। ऋषि काश्यप कहते हैं कि आज शकुन्तला विदा हो जायेगी, इसलिए मेरा हृदय दु:ख से भर रहा है, बहते हुए आसुँओं को रोकने से मेरा गला अवरुद्ध हो गया है, मेरी दृष्टि चिन्ता के कारण निष्चेष्ट हो गयी है वे कहते हैं जंगल मे रहने वाले मुझको प्रेम के कारण जब इस प्रकार का दु:ख हो रहा है तो गृहस्थ लोग पहली बार पु्त्री के वियोग के दु:ख से कितने अधिक दु:खित होते होंगे।
शुश्रूषस्व गुरून् कुरु प्रियसखीवृत्तिं सपत्नीजने
भर्तुर्विप्रकृताऽपि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गम: ।
भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भाग्येष्वनुत्सेकिनी
यान्त्येवं गृहिशीपदं युवतयो वामा: कुलम्याधय: ॥
अर्थ:-
प्रस्तुत श्लोक में पुत्री को पितृ गृह के लिए आदर्श शिक्षा दी गयी है। ऋषि कण्व शकुन्तला को उपदेश देते हैं कि अपने गुरूजनो की सेवा करना, अपनी सपत्नियों से प्रिय सखी का सव्यवहार करना, तिरष्कृत होने पर भी क्रोध के आवेश में आकर अपने पति के प्रतिकूल कार्य मत करना, अपने आश्रितो पर अत्यंत उदार रहना, अपने ऐश्वर्य परॉ अभिमान मत करना। इस प्रकार आचरण करने वाली स्त्रियां गृहलक्ष्मी के पद पर प्रतिष्ठित होती है और इसके विपरीत चलने वाली कुल के लिए अभिशाप बनती हैं।
पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या
नादत्ते पिरियमण्डनाऽपि भवतां स्नेहेन या पल्लवम् ।
आद्दे व: कुसुमप्रसूतिसमये यस्या भवत्युत्सव:
सेयं याति शकुन्तला पतिगृहं सर्वैरनुज्ञायताम् ॥
अर्थ:-
प्रस्तुत श्लोक मे शकुन्तला की सुकुमार भावनाओं का चित्रण किया गया है। काश्यप तपोवन के वृक्षो से कहते हैं कि तुम्हें बिना जल पिलाये जो पहले जल नहीं पीती थी। तुम्हारे प्रति प्रेम के कारण जो अलंकारो के प्रेमी होने पर भी तुम्हारे नए पत्ते नहीं तोड़ती थी। तुम्हारे पुष्पोद्गम के समय जिसका उत्सव होता था। वह यह शकुन्तला अब अपने पति गृह को जा रही है, तुम सभी अपनी स्वीकृती प्रदान करो।
अस्मान् साधु विचिन्त्य संयमधनानच्चै: कुलं चात्मन-
स्त्वय्यस्या: कथमप्यबान्धवकृतां स्नेहप्रवृत्तिं च ताम् ।
सामान्यप्रतिपत्तिपूर्वकमियं दारेषु दृश्या त्वया
भाग्यायत्तमत: परं न खलु तद् वाच्यं वधूबन्धुभि: ॥
अर्थ:-
प्रस्तुत श्लोक में ऋषि कण्व द्वारा राजा को आदर्श सन्देश भेजा गया है। ऋषि कण्व राजा दुष्यन्त को सन्देश देते हैं कि संयम रूपी धन वाले हम लोगो का, अपने ऊँचे कुल का और तेरी ओर इस शकुन्तला के बन्धुओं के द्वारा न किये हुए स्वाभाविक प्रेम व्यापार का ठीक विचार करके तुम इसको अपनी स्त्रियों में सबके समान गौरव के साथ देखना। इसके आगे भाग्य के अधीन है। वह हम वधू के संबन्धियों को नहीं कहना चाहिए।
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