|| आर्य समाज वैदिक भजन || स्वर - @ आचार्य सूर्यदेव वेदांशु जी @ । आर्य समाज माॅडल टाऊन हिसार हरियाणा
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- เผยแพร่เมื่อ 11 พ.ย. 2024
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Anurag Arya mo. - 7988687245 ( Gurukul Aryanagar Hisar Haryana )
भजन - 1
जहाँ ले चलोगे वही मैं चलूँगा ।
जहाँ नाथ रख दोगे वही मैं रहूँगा ।।
1 - ये जीवन समर्पित शरण मैं तुम्हारे ।
तुम्हीं मेरे सर्वस्व तुम्हीं प्राण प्यारे ।
तुम्हें छोड़कर आज मैं किससे कहूँगा ।।
2 - दया नाथ दया नियम मेरी अवस्था ।
तुम्हारे हाथ है मेरी सारी व्यवस्था ।
कहना भी हो या तुम्हीं से कहूँगा ।।
अथवा
सहाओगे नाथ जो भी हँसकर सहूँगा ।।
3 - ना कोई उलाहना ना कोई अर्जी ।
कर लो करा लो प्रभु जो तेरी मर्जी ।
सहावोगे जो भी खुशी से सहूँगा ।।
अथवा
ना कोई शिकायत ना कोई अर्जी ।
मेरा समर्पण है तुम्हारी जो मर्जी ।
सुख दो या गम प्रभु खुशी से सहूँगा ।।
4 - तुम्हारे ही दिन हैं तुम्हारी ही रातें ।
कृपानाथ सब है तुम्हारी कृपा से ।
प्रभु प्रेम में ही मैं पावन रहूँगा ।।
जहाँ ले चलोगे वही मैं चलूँगा ।
जहाँ नाथ रख दोगे वही मैं रहूँगा ।।
भजन - 2
काया एक पिंजरा है , पंछी सैलानी का ।
जिन्दगी और कुछ भी नहीं , बुलबुला है ये पानी का ।।
1 - कुछ पाकर खोना है , कुछ खोकर पाना है ।
पाना और खोना ही , जीवन का फसाना है ।
सासों की रवानी है , ढ़ाँचा जिन्दगानी का ।।
2 - दुनियाँ एक मेला है , इक खेल मदारी का ।
पल भर में बिछुड़ जाये , वर्षों की तैयारी का ।
प्रात: एक बचपन है , दोपहर जवानी का ।।
3 - ये भी नहीं जाना तू , क्या - क्या तूने खोया है ।
जीवन की बगिया में , पापों को बोया है ।
परिणाम दु:खद होगा , तेरी नादानी का ।।
4 - नहीं कोई अपना है , नहीं कोई पराया है ।
अपने और पराये का , `` प्रेमी ʼʼ इक सपना है ।
मिल - मिलकर बिछुड़ता है , रिश्ता हर प्राणी का ।।
जिन्दगी और कुछ भी नहीं , बुलबुला है ये पानी का ।
काया एक पिंजरा है , पंछी सैलानी का ।
जिन्दगी और कुछ भी नहीं , बुलबुला है ये पानी का ।।
भजन - 3
चली जा रही है उमर धीरे - धीरे ।
पल - पल यूं आठों पहर धीरे - धीरे ।।
1 - बचपन भी बीता जवानी भी जाये ।
बुढ़ापे का होगा असर धीरे - धीरे ।।
2 - तेरे हाथ पावों में बल न रहेगा ।
झुकेगी तुम्हारी कमर धीरे - धीरे ।।
3 - शिथिल अंग होंगे एक दिन तुम्हारे ।
फिर मन्द होगी नजर धीरे - धीरे ।।
4 - बुराई से मन को अपने हटा ले ।
सुधर जाये तेरा जीवन धीरे - धीरे ।।
5 - जो करते रहोगे भजन धीरे - धीरे ।
मिल जायेगा वो सजन धीरे - धीरे ।।
चली जा रही है उमर धीरे - धीरे ।
पल - पल यूं आठों पहर धीरे - धीरे ।।
भजन - 4
चली जा रही है ये जीवन की रेल ।
समझ कर खिलौना इसे यूं ना खेल ।।
1 - कुशल कारीगर ने है इसको बनाया ।
बड़ी अक्लमंदी से इसको चलाया ।
पड़े इसके इंजन में कर्मों का तेल ।।
2 - किसी को चढ़ावे किसी को उतारे ।
घड़ी दो घड़ी के मुसाफिर है सारे ।
यहीं पर जुदाई यहीं पर हो मेल ।।
3 - जरा सी खराबी अगर इसमें आवे ।
कदम एक भी यह सरकने न पावे ।
सदा के लिए एक पल में हो फेल ।।
4 - न अपनी खुशी से यहाँ लोग आए ।
मगर सबने आकर यहाँ दिन बिताए ।
कोई समझे मंदिर कोई समझे जेल ।।
5 - रहे कुछ सफर भर में रोते चिल्लाते ।
मगर कुछ महापुरूष हँसते हंसाते ।
रहे हर मुसीबत को हिम्मत से झेल ।।
6 - `` पथिक ʼʼ रेलगाड़ी पे जो भी चढ़ा है ।
कहीं ना कहीं पर तो उतरना पड़ा है ।
समय ने ही बांधी सभी को नकेल ।।
समझ कर खिलौना इसे यूं ना खेल ।
चली जा रही है ये जीवन की रेल ।
समझ कर खिलौना इसे यूं ना खेल ।।
स्वर - @ आचार्य सूर्यदेव वेदांशु आर्य जी @ धर्माचार्य आर्य समाज माॅडल टाऊन हिसार ( हरियाणा ) भारत । mo. - 9466685027
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