ग़ज़ल सतपाल ख़याल
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- เผยแพร่เมื่อ 2 ม.ค. 2025
- शायर: सतपाल ख़याल
जाल तो कब के बुन चुके पिंजरे
अब तो मौका तलाशते पिंजरे
चीख उठे क़ैद में पले पंछी
जैसे ही टूटने लगे पिंजरे
हम खुले पिंजरों में बैठे रहे
इस क़दर हमको भा गए पिंजरे
मेरी आँखों में आसमान तो था
ज़हन में झूलते रहे पिंजरे
आसमानों से ख़ौफ़ आने लगा
जब मेरे साथ ही उड़े पिंजरे
रूह पंछी सी उड़ गई फुर्र से
देख खाली से रह गये पिंजरे
बुन के रक्खे हैं ज़हन में जो "ख़याल "
कर के हिम्मत उधेड़ दे पिंजरे