अपूर्व अवसर ऐसा किस दिन आएगा, कब होऊंगा वाह्यांतर निर्ग्रन्थ जब । संबंधो का बंधन तीक्षण छेद कर, विचरूँगा कब महत्पुरुष के पंथ जब।।1।। उदासीन वृत्ति हो सब प्रभाव से, यह तन केवल संयम हेतु होये जब । किसी हेतु से अन्य वास्तु चाहूँ नहीं, तन में किंचित भी मूर्छा नहीं होये जब ।।2।। दर्श मोह क्षय से उपजा है बोध जो, तन से भिन्न मात्र चेतन का ज्ञान जब । चरित्र-मोह का क्षय जिससे हो जाएगा, वर्ते ऐसा निज स्वरुप का ध्यान जब ।।3।। आत्म लीनता मन-वचन-काय योग की, मुख्यरूप से रही देह पर्यन्त जब । भयकारी उपसर्ग परिषह हो माह, किन्तु न होवेगा स्थिरता का अंत जब ।।4।। संयम ही के लिए योग की वृत्ति हो, निज आश्रय से, जिन आज्ञा अनुसार जब। वह पृवर्ती भी क्षण-क्षण घटती जायेगी, होऊँ अंत में निजस्वरूप में लीन जब ।।5।। पञ्च विषय में राग-द्वेष कुछ हो नहीं, अरु प्रमाद से होय न मन को क्षोभ जब। द्रव्य-क्षेत्र अरु काल-भाव प्रतिबन्ध बिन, वीतलोभ हो विचरूँ उदयाधीन जब ।।6।। क्रोध भाव के प्रति हो क्रोध स्वभावता, मान भाव प्रति माया साक्षी भाव की, माया के प्रति माया साक्षी भाव की, लोभ भाव प्रति हो निर्लोभ सामान जब ।।7।। बहु उपसर्ग कर्ता के प्रति भी क्रोध नहीं, वंदे चक्री तो भी मान न होय जब । देह जाय पर माया नहिं हो रोम में, लोभ नहीं हो प्रबल सिद्धि निदान जब ।।8।। नग्नभाव मुंडभाव सहित अस्नान्त, अदंतधोवन आदि परम प्रसिद्ध जब । केश-रोम-नख आदि अंग श्रृंगार नहीं, द्रव्य-भाव संयममय निर्ग्रन्थ-सिद्ध जब ।।10।। एकाकी विचरूँगा जब शमशान में, गिरि पर होगा बाघ सिंह संयोग जब । अडोल आसान और न मन में क्षोभ हो, जानूँ पाया परम मित्र संयोग जब ।।11।। घोर तपश्चर्या में, तन संताप नहीं, सरस अशन में भी हो नहीं प्रसन्न मन । रजकण या ऋद्धि वैमानिक देव की, सबमें भासे पुद्गल एक स्वभाव जब ।।12।। ऐसे प्राप्त करूँ जय चारित्र मोह पर, पाऊँगा तब करण अपूरव भाव जब । क्षायिक श्रेणी पर होऊं-आरूढ़ जब, अनन्यचिन्तन अतिशय शुद्ध स्वभाव जब ।।13।। मोह स्वयंभूरमण उदधि को तैय कर, प्राप्त करूँगा क्षीणमोह गुणस्थान जब। अंत समय में पूर्णरूप वीतराग हो, प्रगताऊँ निज केवलज्ञान निधान जब ।। 14।। चार घातिया कर्मों का क्षय हो जहाँ, हो भवतरु का बीज समूल विनाश जब। सकल ज्ञेय का ज्ञाता द्रष्टा मात्र हो, कृत्यकृत्यप्रभु वीर्य अनंतप्रकाश जब ।। 15।। चार अघाति कर्म जहाँ वर्ते प्रभो, जली जेवरिवत् हो आकृति मात्र जब। जिनकी स्थिति आयु कर्म अधीन है, आयुपूर्ण हो तो मिटता तन-पात्र जब ।। 16।। मन-वच-काया अरु कर्मों की वर्गणा, छूटे जहाँ सकल पुद्गल सम्बन्ध जब। यही अयोगी गुणस्थान तक वर्तता, महाभाग्य सुखदायक पूर्ण अबन्ध जब ।।17।। इक परमाणु मात्र की न स्पर्शता, पूर्ण कलंक विहीन अडोल स्वरुप जब। शुद्ध निरंजन चेतन मूर्ति अनन्य मय, अगुरुलघु अमूर्त सहज पदरूप जब ।।18।। पूव प्रयोगादिक कारक के योग से, ऊर्ध्वगमन सिद्धालय में सुस्थित जब। सादि अनंत अनंत समाधि सुखः में, अनंतदर्शन ज्ञान अनंत सहित जब ।।19।। जो पद झलके श्री जिनवर के ज्ञान में, कह न सके पर वह भी श्री भगवान जब। उस स्वरुप को अन्य वचन से क्या कहूँ, अनुभवगोचर मात्र रहा वह ज्ञान जब ।।20।। यही परमपद पाने को धर ध्यान जब, शक्ति विहीन अवस्था मनरथरूप जब। तो भी निश्चय 'राजचंद्र' के मन रहा, प्रभु आज्ञा से होऊं वही स्वरूप जब ।।21।।
अपूर्व अवसर ऐसा किस दिन आएगा, कब होऊंगा वाह्यांतर निर्ग्रन्थ जब । संबंधो का बंधन तीक्षण छेद कर, विचरूँगा कब महत्पुरुष के पंथ जब।।1।। उदासीन वृत्ति हो सब प्रभाव से, यह तन केवल संयम हेतु होये जब । किसी हेतु से अन्य वास्तु चाहूँ नहीं, तन में किंचित भी मूर्छा नहीं होये जब ।।2।। दर्श मोह क्षय से उपजा है बोध जो, तन से भिन्न मात्र चेतन का ज्ञान जब । चरित्र-मोह का क्षय जिससे हो जाएगा, वर्ते ऐसा निज स्वरुप का ध्यान जब ।।3।। आत्म लीनता मन-वचन-काय योग की, मुख्यरूप से रही देह पर्यन्त जब । भयकारी उपसर्ग परिषह हो माह, किन्तु न होवेगा स्थिरता का अंत जब ।।4।। संयम ही के लिए योग की वृत्ति हो, निज आश्रय से, जिन आज्ञा अनुसार जब। वह पृवर्ती भी क्षण-क्षण घटती जायेगी, होऊँ अंत में निजस्वरूप में लीन जब ।।5।। पञ्च विषय में राग-द्वेष कुछ हो नहीं, अरु प्रमाद से होय न मन को क्षोभ जब। द्रव्य-क्षेत्र अरु काल-भाव प्रतिबन्ध बिन, वीतलोभ हो विचरूँ उदयाधीन जब ।।6।। क्रोध भाव के प्रति हो क्रोध स्वभावता, मान भाव प्रति माया साक्षी भाव की, माया के प्रति माया साक्षी भाव की, लोभ भाव प्रति हो निर्लोभ सामान जब ।।7।। बहु उपसर्ग कर्ता के प्रति भी क्रोध नहीं, वंदे चक्री तो भी मान न होय जब । देह जाय पर माया नहिं हो रोम में, लोभ नहीं हो प्रबल सिद्धि निदान जब ।।8।। नग्नभाव मुंडभाव सहित अस्नान्त, अदंतधोवन आदि परम प्रसिद्ध जब । केश-रोम-नख आदि अंग श्रृंगार नहीं, द्रव्य-भाव संयममय निर्ग्रन्थ-सिद्ध जब ।।10।। एकाकी विचरूँगा जब शमशान में, गिरि पर होगा बाघ सिंह संयोग जब । अडोल आसान और न मन में क्षोभ हो, जानूँ पाया परम मित्र संयोग जब ।।11।। घोर तपश्चर्या में, तन संताप नहीं, सरस अशन में भी हो नहीं प्रसन्न मन । रजकण या ऋद्धि वैमानिक देव की, सबमें भासे पुद्गल एक स्वभाव जब ।।12।। ऐसे प्राप्त करूँ जय चारित्र मोह पर, पाऊँगा तब करण अपूरव भाव जब । क्षायिक श्रेणी पर होऊं-आरूढ़ जब, अनन्यचिन्तन अतिशय शुद्ध स्वभाव जब ।।13।। मोह स्वयंभूरमण उदधि को तैय कर, प्राप्त करूँगा क्षीणमोह गुणस्थान जब। अंत समय में पूर्णरूप वीतराग हो, प्रगताऊँ निज केवलज्ञान निधान जब ।। 14।। चार घातिया कर्मों का क्षय हो जहाँ, हो भवतरु का बीज समूल विनाश जब। सकल ज्ञेय का ज्ञाता द्रष्टा मात्र हो, कृत्यकृत्यप्रभु वीर्य अनंतप्रकाश जब ।। 15।। चार अघाति कर्म जहाँ वर्ते प्रभो, जली जेवरिवत् हो आकृति मात्र जब। जिनकी स्थिति आयु कर्म अधीन है, आयुपूर्ण हो तो मिटता तन-पात्र जब ।। 16।। मन-वच-काया अरु कर्मों की वर्गणा, छूटे जहाँ सकल पुद्गल सम्बन्ध जब। यही अयोगी गुणस्थान तक वर्तता, महाभाग्य सुखदायक पूर्ण अबन्ध जब ।।17।। इक परमाणु मात्र की न स्पर्शता, पूर्ण कलंक विहीन अडोल स्वरुप जब। शुद्ध निरंजन चेतन मूर्ति अनन्य मय, अगुरुलघु अमूर्त सहज पदरूप जब ।।18।। पूव प्रयोगादिक कारक के योग से, ऊर्ध्वगमन सिद्धालय में सुस्थित जब। सादि अनंत अनंत समाधि सुखः में, अनंतदर्शन ज्ञान अनंत सहित जब ।।19।। जो पद झलके श्री जिनवर के ज्ञान में, कह न सके पर वह भी श्री भगवान जब। उस स्वरुप को अन्य वचन से क्या कहूँ, अनुभवगोचर मात्र रहा वह ज्ञान जब ।।20।। यही परमपद पाने को धर ध्यान जब, शक्ति विहीन अवस्था मनरथरूप जब। तो भी निश्चय 'राजचंद्र' के मन रहा, प्रभु आज्ञा से होऊं वही स्वरूप जब ।।21।।
Jai jinendra 🙏🏻🙏🏻
Bahut bahut dhanvyad🙏🏻🙏🏻
Aapka upkaar sadave sarhniy hai🙏🏻🙏🏻
Pandit Ji Jai Jinendra 🙏🙏🙏
Jai jinendra 🙏🏻🙏🏻
अपूर्व अवसर की माध्यम से रति,अरति का बहुत ही मार्मिक वर्णन किया। बहुत धन्यवाद पंडित जी साहब 🙏हमारी भूलें स्पष्ट करवा दीं, हमारे ज्ञान में।
Jay.prabhu.
Jai Jinendra 🙏 Delhi
Yes.prbhu.
Jai Jinendra
Panditji ko vandan Pune
Jaijinendra. Ghatkopar
Bahut hi sunder pravachan
VERY NICE AHMEDABAD
🙏🙏🙏❤❤❤
Ueetam
Bohot accha laga
Atyadhik sundar sugam maarmik..
Apoorv avsar aisa kis din aayega..
🙏🙏🙏
0l0llppp0l0l0l0l000l0l0l0l0l0lp000l00p ok
अपूर्व अवसर ऐसा किस दिन आएगा,
कब होऊंगा वाह्यांतर निर्ग्रन्थ जब ।
संबंधो का बंधन तीक्षण छेद कर,
विचरूँगा कब महत्पुरुष के पंथ जब।।1।।
उदासीन वृत्ति हो सब प्रभाव से,
यह तन केवल संयम हेतु होये जब ।
किसी हेतु से अन्य वास्तु चाहूँ नहीं,
तन में किंचित भी मूर्छा नहीं होये जब ।।2।।
दर्श मोह क्षय से उपजा है बोध जो,
तन से भिन्न मात्र चेतन का ज्ञान जब ।
चरित्र-मोह का क्षय जिससे हो जाएगा,
वर्ते ऐसा निज स्वरुप का ध्यान जब ।।3।।
आत्म लीनता मन-वचन-काय योग की,
मुख्यरूप से रही देह पर्यन्त जब ।
भयकारी उपसर्ग परिषह हो माह,
किन्तु न होवेगा स्थिरता का अंत जब ।।4।।
संयम ही के लिए योग की वृत्ति हो,
निज आश्रय से, जिन आज्ञा अनुसार जब।
वह पृवर्ती भी क्षण-क्षण घटती जायेगी,
होऊँ अंत में निजस्वरूप में लीन जब ।।5।।
पञ्च विषय में राग-द्वेष कुछ हो नहीं,
अरु प्रमाद से होय न मन को क्षोभ जब।
द्रव्य-क्षेत्र अरु काल-भाव प्रतिबन्ध बिन,
वीतलोभ हो विचरूँ उदयाधीन जब ।।6।।
क्रोध भाव के प्रति हो क्रोध स्वभावता,
मान भाव प्रति माया साक्षी भाव की,
माया के प्रति माया साक्षी भाव की,
लोभ भाव प्रति हो निर्लोभ सामान जब ।।7।।
बहु उपसर्ग कर्ता के प्रति भी क्रोध नहीं,
वंदे चक्री तो भी मान न होय जब ।
देह जाय पर माया नहिं हो रोम में,
लोभ नहीं हो प्रबल सिद्धि निदान जब ।।8।।
नग्नभाव मुंडभाव सहित अस्नान्त,
अदंतधोवन आदि परम प्रसिद्ध जब ।
केश-रोम-नख आदि अंग श्रृंगार नहीं,
द्रव्य-भाव संयममय निर्ग्रन्थ-सिद्ध जब ।।10।।
एकाकी विचरूँगा जब शमशान में,
गिरि पर होगा बाघ सिंह संयोग जब ।
अडोल आसान और न मन में क्षोभ हो,
जानूँ पाया परम मित्र संयोग जब ।।11।।
घोर तपश्चर्या में, तन संताप नहीं,
सरस अशन में भी हो नहीं प्रसन्न मन ।
रजकण या ऋद्धि वैमानिक देव की,
सबमें भासे पुद्गल एक स्वभाव जब ।।12।।
ऐसे प्राप्त करूँ जय चारित्र मोह पर,
पाऊँगा तब करण अपूरव भाव जब ।
क्षायिक श्रेणी पर होऊं-आरूढ़ जब,
अनन्यचिन्तन अतिशय शुद्ध स्वभाव जब ।।13।।
मोह स्वयंभूरमण उदधि को तैय कर,
प्राप्त करूँगा क्षीणमोह गुणस्थान जब।
अंत समय में पूर्णरूप वीतराग हो,
प्रगताऊँ निज केवलज्ञान निधान जब ।। 14।।
चार घातिया कर्मों का क्षय हो जहाँ,
हो भवतरु का बीज समूल विनाश जब।
सकल ज्ञेय का ज्ञाता द्रष्टा मात्र हो,
कृत्यकृत्यप्रभु वीर्य अनंतप्रकाश जब ।। 15।।
चार अघाति कर्म जहाँ वर्ते प्रभो,
जली जेवरिवत् हो आकृति मात्र जब।
जिनकी स्थिति आयु कर्म अधीन है,
आयुपूर्ण हो तो मिटता तन-पात्र जब ।। 16।।
मन-वच-काया अरु कर्मों की वर्गणा,
छूटे जहाँ सकल पुद्गल सम्बन्ध जब।
यही अयोगी गुणस्थान तक वर्तता,
महाभाग्य सुखदायक पूर्ण अबन्ध जब ।।17।।
इक परमाणु मात्र की न स्पर्शता,
पूर्ण कलंक विहीन अडोल स्वरुप जब।
शुद्ध निरंजन चेतन मूर्ति अनन्य मय,
अगुरुलघु अमूर्त सहज पदरूप जब ।।18।।
पूव प्रयोगादिक कारक के योग से,
ऊर्ध्वगमन सिद्धालय में सुस्थित जब।
सादि अनंत अनंत समाधि सुखः में,
अनंतदर्शन ज्ञान अनंत सहित जब ।।19।।
जो पद झलके श्री जिनवर के ज्ञान में,
कह न सके पर वह भी श्री भगवान जब।
उस स्वरुप को अन्य वचन से क्या कहूँ,
अनुभवगोचर मात्र रहा वह ज्ञान जब ।।20।।
यही परमपद पाने को धर ध्यान जब,
शक्ति विहीन अवस्था मनरथरूप जब।
तो भी निश्चय 'राजचंद्र' के मन रहा,
प्रभु आज्ञा से होऊं वही स्वरूप जब ।।21।।
Anubhav Jain
Very nice
अपूर्व अवसर ऐसा किस दिन आएगा,
कब होऊंगा वाह्यांतर निर्ग्रन्थ जब ।
संबंधो का बंधन तीक्षण छेद कर,
विचरूँगा कब महत्पुरुष के पंथ जब।।1।।
youtoth
Anubhav Jain
Anubhav Jain
🙏🙏🙏🙏
अपूर्व अवसर ऐसा किस दिन आएगा,
कब होऊंगा वाह्यांतर निर्ग्रन्थ जब ।
संबंधो का बंधन तीक्षण छेद कर,
विचरूँगा कब महत्पुरुष के पंथ जब।।1।।
उदासीन वृत्ति हो सब प्रभाव से,
यह तन केवल संयम हेतु होये जब ।
किसी हेतु से अन्य वास्तु चाहूँ नहीं,
तन में किंचित भी मूर्छा नहीं होये जब ।।2।।
दर्श मोह क्षय से उपजा है बोध जो,
तन से भिन्न मात्र चेतन का ज्ञान जब ।
चरित्र-मोह का क्षय जिससे हो जाएगा,
वर्ते ऐसा निज स्वरुप का ध्यान जब ।।3।।
आत्म लीनता मन-वचन-काय योग की,
मुख्यरूप से रही देह पर्यन्त जब ।
भयकारी उपसर्ग परिषह हो माह,
किन्तु न होवेगा स्थिरता का अंत जब ।।4।।
संयम ही के लिए योग की वृत्ति हो,
निज आश्रय से, जिन आज्ञा अनुसार जब।
वह पृवर्ती भी क्षण-क्षण घटती जायेगी,
होऊँ अंत में निजस्वरूप में लीन जब ।।5।।
पञ्च विषय में राग-द्वेष कुछ हो नहीं,
अरु प्रमाद से होय न मन को क्षोभ जब।
द्रव्य-क्षेत्र अरु काल-भाव प्रतिबन्ध बिन,
वीतलोभ हो विचरूँ उदयाधीन जब ।।6।।
क्रोध भाव के प्रति हो क्रोध स्वभावता,
मान भाव प्रति माया साक्षी भाव की,
माया के प्रति माया साक्षी भाव की,
लोभ भाव प्रति हो निर्लोभ सामान जब ।।7।।
बहु उपसर्ग कर्ता के प्रति भी क्रोध नहीं,
वंदे चक्री तो भी मान न होय जब ।
देह जाय पर माया नहिं हो रोम में,
लोभ नहीं हो प्रबल सिद्धि निदान जब ।।8।।
नग्नभाव मुंडभाव सहित अस्नान्त,
अदंतधोवन आदि परम प्रसिद्ध जब ।
केश-रोम-नख आदि अंग श्रृंगार नहीं,
द्रव्य-भाव संयममय निर्ग्रन्थ-सिद्ध जब ।।10।।
एकाकी विचरूँगा जब शमशान में,
गिरि पर होगा बाघ सिंह संयोग जब ।
अडोल आसान और न मन में क्षोभ हो,
जानूँ पाया परम मित्र संयोग जब ।।11।।
घोर तपश्चर्या में, तन संताप नहीं,
सरस अशन में भी हो नहीं प्रसन्न मन ।
रजकण या ऋद्धि वैमानिक देव की,
सबमें भासे पुद्गल एक स्वभाव जब ।।12।।
ऐसे प्राप्त करूँ जय चारित्र मोह पर,
पाऊँगा तब करण अपूरव भाव जब ।
क्षायिक श्रेणी पर होऊं-आरूढ़ जब,
अनन्यचिन्तन अतिशय शुद्ध स्वभाव जब ।।13।।
मोह स्वयंभूरमण उदधि को तैय कर,
प्राप्त करूँगा क्षीणमोह गुणस्थान जब।
अंत समय में पूर्णरूप वीतराग हो,
प्रगताऊँ निज केवलज्ञान निधान जब ।। 14।।
चार घातिया कर्मों का क्षय हो जहाँ,
हो भवतरु का बीज समूल विनाश जब।
सकल ज्ञेय का ज्ञाता द्रष्टा मात्र हो,
कृत्यकृत्यप्रभु वीर्य अनंतप्रकाश जब ।। 15।।
चार अघाति कर्म जहाँ वर्ते प्रभो,
जली जेवरिवत् हो आकृति मात्र जब।
जिनकी स्थिति आयु कर्म अधीन है,
आयुपूर्ण हो तो मिटता तन-पात्र जब ।। 16।।
मन-वच-काया अरु कर्मों की वर्गणा,
छूटे जहाँ सकल पुद्गल सम्बन्ध जब।
यही अयोगी गुणस्थान तक वर्तता,
महाभाग्य सुखदायक पूर्ण अबन्ध जब ।।17।।
इक परमाणु मात्र की न स्पर्शता,
पूर्ण कलंक विहीन अडोल स्वरुप जब।
शुद्ध निरंजन चेतन मूर्ति अनन्य मय,
अगुरुलघु अमूर्त सहज पदरूप जब ।।18।।
पूव प्रयोगादिक कारक के योग से,
ऊर्ध्वगमन सिद्धालय में सुस्थित जब।
सादि अनंत अनंत समाधि सुखः में,
अनंतदर्शन ज्ञान अनंत सहित जब ।।19।।
जो पद झलके श्री जिनवर के ज्ञान में,
कह न सके पर वह भी श्री भगवान जब।
उस स्वरुप को अन्य वचन से क्या कहूँ,
अनुभवगोचर मात्र रहा वह ज्ञान जब ।।20।।
यही परमपद पाने को धर ध्यान जब,
शक्ति विहीन अवस्था मनरथरूप जब।
तो भी निश्चय 'राजचंद्र' के मन रहा,
प्रभु आज्ञा से होऊं वही स्वरूप जब ।।21।।