श्री भक्तामर स्तोत्र / Shree Bhaktamar Stotra By Anuradha Paudwal....
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- เผยแพร่เมื่อ 31 ม.ค. 2022
- श्री भक्तामर स्तोत्र / Shree Bhaktamar Stotra By Anuradha Paudwal....
#Powerful Stotra
#BHAKTAMAR STOTRA (SANSKRIT)
l#भक्तामर-स्तोत्र (संस्कृत) ||
#BHAKTAMAR STOTRA
भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि प्रभाणा -मुद्योतकं दलित - पाप तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥
य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - हरैरुदारै:,
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥ 2॥
बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित - पाद - पीठ! स्तोतुं समुद्यत - मतिर्विगत - त्रपोऽहम्।
बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब-
मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥ 3॥
वक्तुं गुणान्गुण -समुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्,
कस्ते क्षम: सुर - गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या ।
कल्पान्त काल - पवनोद्धत नक्र- चक्रं ,
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम्॥ 4॥
सोऽहं तथापि तव भक्ति - वशान्मुनीश!
कर्तुं स्तवं विगत - शक्ति - रपि प्रवृत्त:।
प्रीत्यात्म - वीर्य - मविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्
नाभ्येति किं निज-शिशो: परिपालनार्थम्॥ 5॥
अल्प- श्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम,
त्वद्-भक्तिरेव मुखरी-कुरुते बलान्माम् ।
यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरौति,
तच्चाम्र -चारु -कलिका-निकरैक -हेतु:॥ 6॥
त्वत्संस्तवेन भव - सन्तति-सन्निबद्धं,
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् ।
आक्रान्त - लोक - मलि -नील-मशेष-माशु,
सूर्यांशु- भिन्न-मिव शार्वर-मन्धकारम्॥ 7॥
मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद, -
मारभ्यते तनु- धियापि तव प्रभावात् ।
चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु,
मुक्ता-फल - द्युति-मुपैति ननूद-बिन्दु:॥ 8॥
आस्तां तव स्तवन- मस्त-समस्त-दोषं,
त्वत्सङ्कथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति ।
दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभैव,
पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि ॥ 9॥
नात्यद्-भुतं भुवन - भूषण ! भूूत-नाथ!
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्त - मभिष्टुवन्त:।
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥ 10॥
दृष्ट्वा भवन्त मनिमेष - विलोकनीयं,
नान्यत्र - तोष- मुपयाति जनस्य चक्षु:।
पीत्वा पय: शशिकर - द्युति - दुग्ध-सिन्धो:,
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत्?॥ 11॥
यै: शान्त-राग-रुचिभि: परमाणुभिस्-त्वं,
निर्मापितस्- त्रि-भुवनैक - ललाम-भूत !
तावन्त एव खलु तेऽप्यणव: पृथिव्यां,
यत्ते समान- मपरं न हि रूप-मस्ति॥ 12॥
वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि,
नि:शेष- निर्जित - जगत्त्रितयोपमानम् ।
बिम्बं कलङ्क - मलिनं क्व निशाकरस्य,
यद्वासरे भवति पाण्डुपलाश-कल्पम्॥13॥
सम्पूर्ण- मण्डल-शशाङ्क - कला-कलाप-
शुभ्रा गुणास् - त्रि-भुवनं तव लङ्घयन्ति।
ये संश्रितास् - त्रि-जगदीश्वरनाथ-मेकं,
कस्तान् निवारयति सञ्चरतो यथेष्टम्॥ 14॥
चित्रं - किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्ग-नाभिर्-
नीतं मनागपि मनो न विकार - मार्गम्।
कल्पान्त - काल - मरुता चलिताचलेन,
किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित्॥ 15॥
निर्धूम - वर्ति - रपवर्जित - तैल-पूर:,
कृत्स्नं जगत्त्रय - मिदं प्रकटीकरोषि।
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां,
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाश:॥ 16॥
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्य:,
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्- जगन्ति।
नाम्भोधरोदर - निरुद्ध - महा- प्रभाव:,
सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र! लोके॥ 17॥
नित्योदयं दलित - मोह - महान्धकारं,
गम्यं न राहु - वदनस्य न वारिदानाम्।
विभ्राजते तव मुखाब्ज - मनल्पकान्ति,
विद्योतयज्-जगदपूर्व-शशाङ्क-बिम्बम्॥ 18॥
किं शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा,
युष्मन्मुखेन्दु- दलितेषु तम:सु नाथ!
निष्पन्न-शालि-वन-शालिनी जीव-लोके,
कार्यं कियज्जल-धरै-र्जल-भार-नमै्र:॥ 19॥
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं,
नैवं तथा हरि -हरादिषु नायकेषु।
तेजः स्फ़ुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं,
नैवं तु काच -शकले किरणाकुलेऽपि॥ 20॥
मन्ये वरं हरि- हरादय एव दृष्टा,
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति।
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्य:,
कश्चिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि॥ 21॥
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्,
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता।
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र-रश्मिं,
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशु-जालम् ॥ 22॥
त्वामामनन्ति मुनय: परमं पुमांस-
मादित्य-वर्ण-ममलं तमस: पुरस्तात्।
त्वामेव सम्य - गुपलभ्य जयन्ति मृत्युं,
नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्था:॥ 23॥
त्वा-मव्ययं विभु-मचिन्त्य-मसंख्य-माद्यं,
ब्रह्माणमीश्वर - मनन्त - मनङ्ग - केतुम्।
योगीश्वरं विदित - योग-मनेक-मेकं,
ज्ञान-स्वरूप-ममलं प्रवदन्ति सन्त: ॥ 24॥
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धि-बोधात्,
त्वं शङ्करोऽसि भुवन-त्रय- शङ्करत्वात् ।
धातासि धीर! शिव-मार्ग विधेर्विधानाद्,
व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि॥ 25॥
तुभ्यं नमस् - त्रिभुवनार्ति - हराय नाथ!
तुभ्यं नम: क्षिति-तलामल -भूषणाय।
तुभ्यं नमस् - त्रिजगत: परमेश्वराय,
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय॥ 26॥
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणै-रशेषैस्-
त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश !
दोषै - रुपात्त - विविधाश्रय-जात-गर्वै:,
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि॥ 27॥
उच्चै - रशोक- तरु - संश्रितमुन्मयूख -
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्।
स्पष्टोल्लसत्-किरण-मस्त-तमो-वितानं,
बिम्बं रवेरिव पयोधर-पाश्र्ववर्ति॥ 28॥
सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे,
विभ्राजते तव वपु: कनकावदातम्।
बिम्बं वियद्-विलस - दंशुलता-वितानं
तुङ्गोदयाद्रि-शिरसीव सहस्र-रश्मे: ॥ 29॥
कुन्दावदात - चल - चामर-चारु-शोभं,
विभ्राजते तव वपु: कलधौत -कान्तम्।
उद्यच्छशाङ्क- शुचिनिर्झर - वारि धार
मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥ 30॥
छत्र-त्रयं तव विभाति शशाङ्क- कान्त-
मुच्चै: स्थितं स्थगित-भानु-कर-प्रतापम्।
मुक्ता - फल - प्रकर - जाल-विवृद्ध-शोभं,
प्रख्यापयत्-त्रिजगत: परमेश्वरत्वम्॥ 31॥
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