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43:31- साधु कौन? 45:28- इंद्रियां भीतर वही लेती हैं, जिसके लिए उन्हें प्रेरित किया जाता है। 47:35- दिखाई देना आकस्मिक नहीं है, देखने के लिए मन की रज़ामंदी चाहिए। 50:00 - असली चिकित्सक कौन?
मात-पिता सुत इस्तरी, आलस बन्धु कानि।साधु दरस को जब चले, ये अटकावै खानि।। अब ये अजीब बात है। कबीर साधु के गुण गा रहे हैं, और उन्होंने सात ताकतें बता दी हैं जो तुमको साधु से मिलने नहीं देंगी किसी भी हालत में। माता, पिता, बेटा, बीवी, आलस, दोस्त-यार, और तुम्हारी आना-कानी, टाल-मटोल की आदत।❤
मैनूं कौण पछाणे, हुण मैं हो गई नी कुझ होर ये तो नहीं कहा न कि पहले से ज़्यादा सुन्दर हो गई; कुछ और हो गई। अब पहचान में ही नहीं आती। वही हूँ, अब पहचान में ही नहीं आती। ये है दृष्टि का निर्मल होना। संसार बदलेगा, तुम भी बदलोगे।❤
साधु तुम्हें दर्शन दे सकता है, पर दृष्टि तुम्हें रखनी है या नहीं रखनी है, ये छूट तो तुम्हें तब भी है। बात समझ रहे हो न? ये ताकत, ये छूट, ये मुक्तता तुमसे कभी नहीं छीनी जा सकती। तुम सहमति न दो अपनी, तो खुद परमात्मा भी तुम्हें मुक्ति नहीं दे सकता। ये तुम्हारे होने का अविभाज्य हिस्सा है। इसीलिए गुरु भी जब भी ये देखता है कि अभी शिष्य किसी भी तरीके से सहमति देने के मन में नहीं है, तो फिर वो एक सीमा के पार कोशिश नहीं करता। वो कहता है, "अभी नहीं। अभी मैं क्या अभी तो परमात्मा भी कुछ नहीं कर सकता।" क्योंकि तुम्हारी इच्छा के बिना तो तुम्हें कुछ दिया नहीं जा सकता।❤
हमें खूब संसार दिखाई देता है, चीज़ें ही चीज़ें। स्वस्थ आदमी वो है जिसे कम दिखाई दे। दृष्टि का अर्थ है कि अब दिखाई ही नहीं देता, पहले दिखता था। सुनी है न बुद्ध की वो कहानी कि लोग पूछ रहे हैं कि, "यहाँ से एक लड़की भागी तुम्हारे सामने से?" बुद्ध ने क्या कहा? "दिखनी बंद हो गई। बहुत दिन हुए जब से ये दिखना ही बंद हो गया है कि लड़का है या लड़की है। पहले दिखता था, अब दिखता नहीं।" निर्मल दृष्टि का अर्थ यही है कि अब नहीं दिखता।❤
और जो तुम्हें लगातार दिखता ही रहता है, जो तुम्हारे मन में लगातार घूमता ही रहता है, यदि ध्यान के क्षण में वो विलीन हो जाता है, तो इससे यही सिद्ध होता है न कि तुम्हारे मन में जो कुछ घूमता रहता है वो दो कौड़ी का है? साधु वही है, जिसके संपर्क में आने पर तुम्हें तुम्हारी दुनिया दो कौड़ी की दिख जाए, भले ही दो पल को। दो पल के बाद तुम्हें पूरी छूट है। तुम वापस जा सकते हो। और तुम करते भी यही हो, "महाराज, अब आप अपने रास्ते, हम अपने रास्ते।" लेकिन वो जो दो पल हैं, अगर तुम्हारा समय आ गया है, और अगर तुम में ज़रा सा भी संकल्प है, वो दो पल तुम्हें साबित कर देंगे कि सत्य ही है और उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं, और तुम सिर्फ भ्रमों की दुनिया में जी रहे हो, अगर ज़रा तुममें ईमानदारी है। और उस ईमानदारी का कोई विकल्प नहीं।
दिखना बदले, और जब दिखना बिलकुल बंद हो जाए तो समझिएगा पूर्ण दर्शन हो गया। उस दिन परमात्मा आपको दिखाई दे रहा है। पूर्ण दर्शन हो गया। "अब नहीं, अब ठीक है।" वो वही है, जिसको हमने कहा था, "जब दृष्टि बदलती है, दिखना बदलता है, तो तुम मुझे यूँ न मना पाओगे।" रूप होंगे कुछ और, हमें दिखता कुछ और है। रूप होंगे हज़ार, हमें दिखता लेकिन कुछ और है। अब ये किसी तीसरे को समझ में नहीं आएगा कि आदमी है, और कुत्ता है, यहाँ पर ये चल क्या रहा है। जो है, वो बस आपको दिख रहा है। संसार ही बदल गया है। क्यों है अब आपकी ऐसी छवि, आप किसी तीसरे को समझा नहीं पाएँगे। संसार बदल गया है। आकाश में ऊँचे उड़ने वाला पक्षी, ज़मीन में बसने वाले छोटे से कीड़े को कैसे समझाएगा कि उड़ान माने क्या? संसार बदल गया है। आ रही है बात समझ में? पहले से बेहतर नहीं हो गया है, पहले से कमतर भी नहीं हो गया है; कुछ और ही हो गया है।
तुम साधु के सामने खड़े हो, तुम तो अपनी समस्याएँ ले कर के आए हो, तुम पूरा संसार ले कर के आए हो, वो संसार को देख ही नहीं रहा। अभी भी उसको नहीं दिख रहा। तुम दावा कर रहे हो अपने विषय में कि मेरा संसार, और इस संसार की ये सब समस्याएँ। वो मुस्कुरा भर रहा है क्योंकि यकीन जानो तुम जो कुछ कह रहे हो, वो वास्तव में उसको नहीं दिख रहा है। तुम कह रहे हो, "मैं परेशान हूँ," वो देख रहा है तुम परमात्मा हो। वही साधु है। चिकित्सक वो नहीं है जो तुम्हें बीमार देखे; चिकित्सक वो है जो जब भी तुम्हें देखे तो तुममें स्वास्थ्य देखे। साधु वो नहीं है जो देखे तुम्हें और कहे, "ये संसारी आ गया"; साधु वो है जो देखे तुम्हें और कहे, "सत्य ही है सामने।
हमें बहुत दिखाई देता है। उदाहरण दीजिये हमें क्या-क्या दिखाई देता है? हमें भविष्य दिखाई देता है-कमाल करते हैं! दृष्टि निर्मल होने का ये अर्थ नहीं होता कि तुम त्रिकालदर्शी हो गए। तुम कुछ खास देखने लग गए। दृष्टि निर्मल होने का अर्थ होता है कि वो जो आम आदमी को भी दिखता है, तुम्हें अब वो दिखता नहीं। तुम्हें दिखता ही नहीं, उन्हें खतरे ही खतरे नज़र आ रहे हैं। "बेटा तेरा क्या होगा? मुझे तेरी बड़ी चिंता है।" उन्हें साँप, बिच्छु, अजगर दिखाई दे रहे हैं तुम्हारी ओर आते हुए, और तुम कह रहे हो, "हैं कहाँ? हमें तो दिखाई ही नहीं देते। हमें दिखते नहीं, आपको हमारी बड़ी चिंता है कि हमारा क्या होगा। है कहाँ खतरा?" आ रही है बात समझ में?
अगर तुम इस तल पर भी कल्पना करना चाहते हो-कल्पना पूरी नहीं पड़ेगी पर अगर करना चाहते हो-तो ऐसे कर सकते हो: इंद्रियाँ भीतर वही सब कुछ लेती हैं जो उनको लेने के लिए प्रेरित किया जाता है। अगर सौ इनपुट हैं जो तुम्हें इस वक्त मिल रहे हैं तो उसमें से एक प्रतिशत या दो प्रतिशत ही है जो उसमें से भीतर जाता है, बाकी इंद्रियों की पूरी ट्रेनिंग है कि उसको छोड़ ही दिया जाए, रिजेक्ट (अस्वीकार), फ़िल्टर आउट कर (छान) दिया जाए। जब मन बदलता है ना, तो भीतर क्या जा रहा है वो बदलने लगता है। तुम पहले जिसको अन्दर आने ही नहीं देते थे, अब उसके लिए द्वार खुल जाते हैं। और पहले जो बेरोक-टोक अंदर घुसता था अब उसके सामने प्रतिरोध होता है, "तू अन्दर नहीं जाएगा।"
एक जगह पर नानक ने कहा कि, "तुम कितनी कोशिश कर लो कभी नहीं जान पाओगे कि योगी के, फ़कीर के मन में क्या चलता है। कितनी भी कोशिश कर लो कभी जान नहीं पाओगे।" वो संसार ही दूसरा है। अगर तुमको-उसको एक ही वस्तु दिख रही होती, तो बात भी की जा सकती थी। तुम पूछते, वो क्या है? वो कहते, "देखो, मुझे तो ऐसा दिखता है," और तुम कहते, "नहीं मुझे तो ऐसा दिखता है।" फिर कुछ वाद, तर्क-वितर्क हो सकता था। जो उसको दिखता है, वो तुमको दिखता ही नहीं; जो तुम्हें दिखता है, वो उसको दिखता ही नहीं। उसको लगातार आकाश दिखाई देता है, तुम कहते हो "आकाश क्या?" उसको सब खाली, साफ, स्वच्छ, निर्मल लगता है, तुम कहते हो, "शून्य कहाँ, कैसा?" और तुम्हें चारों तरफ क्या दिखाई देता है? पदार्थ, वस्तुएँ। कहेगा, "हैं कहाँ? हमें तो नहीं दिखते। हमें दिखते ही नहीं।"
साधु उसको मत मान लेना जिसके पास कुछ विशेष है, साधु वो है जिसके पास वो भी नहीं है जो तुम्हारे पास है। समझो बात को। और फिर यही बात उसकी बाहरी व्यवस्था में भी दिखाई देती है। भीतर से भी वो खाली है, उसके पास वो सब कुछ भी नहीं जो तुम्हारे पास है। तुम्हारे पास क्या है भीतर? तुम्हारे खौफ़ है, तुम्हारे संबंध हैं, तुम्हारे मोह हैं, तुम्हारा आकर्षण है, तुम्हारी आसक्तियाँ हैं। वो भीतर से खाली है इन सब से, और चूँकि वो भीतर से खाली है इन सबसे, इसीलिए वो बाहर से भी उन सब चीज़ों से खाली हो जाता है जो तुम्हारे पास है। क्या है तुम्हारे पास? इधर-उधर की चीज़ें, झाडू, पोछा, आटा, नमक, दाल, चावल, मकान, बीवी, गाड़ी, बंगला। वो बाहर से भी इन सबसे खाली है।
तुम जो उपचार खोजने आए हो वो वास्तव में साधु के पास है ही नहीं; उसके पास तो मौन है। हाँ, मुझे उनको बहला-फुसला के रखना था तो मैंने उनसे कहा, "बैठिये-बैठिये, गठिया ही डिस्कस (बातचीत) कर रहे हैं।" अब वो बैठती तो इस लालच में कि घुटने का दर्द ठीक हो जाएगा, मिल उनको कुछ और जाता है। तो ये करा जा सकता था-खैर, हुआ नहीं। समझ रहे हो? सारी बीमारियाँ नकली हैं। जो नकली है, उसी का नाम बीमारी है।
तुम पूछो तो सही, तुम माँगो तो सही। तुम अपनी रज़ामंदी तो दो। तुम सुनने के लिए तैयार कहाँ हो? बात समझ में आ रही है? जिस दिन तुम उपस्थित होगे, जिस दिन तुम तैयार होगे, उस दिन देखो। उस दिन बात ही दूसरी होगी। तुम्हारे सवाल में, तुम्हारी पुकार में जब जान होगी तो फिर जब उत्तर भी आएगा, तो वो ऐसा आएगा कि नया, अनूठा, जो तुमने पहले कभी सुना ही नहीं होगा। और तुम कहोगे, "अरे! आज सर ने नई बात बोली।" सर ने नई बात नहीं बोल दी है; आज तुम तैयार हो, आज तुम प्रस्तुत हो, इसीलिए उस नई बात को आने का मौका मिला। वो नई बात पहले भी बोली जा सकती थी, पर कैसे बोलते? तुम तैयार कहाँ थे सुनने के लिए? तुम्हें समझ में ही नहीं आती। तुम्हारी रजामंदी, तुम्हारी अपनी तैयारी, तुम्हारी स्वेच्छा बड़े महत्व की है।
अब, कैसे जानें कि दृष्टि साफ है, साफ दिखाई दे रहा है? साफ दिखाई देना कुछ दिखाई देना नहीं है। हमें तो यूँ ही बहुत ज़्यादा दिखाई देता रहता है। हमें तो बहुत ज़्यादा दिखाई देता रहता है, विक्षेप और किसको कहते हैं? हम समझना चाह रहे हैं दृष्टि क्या है। विक्षेप किसे कहते हैं? जो नहीं भी है वो दिखाई दे रहा है। मृत्यु नहीं है, सौ तरह के और खतरे और भय नहीं हैं पर दिखाई दे रहे हैं। यही तो विक्षेप है, और क्या है विक्षेप? दृष्टि निर्मल होने का ये अर्थ नहीं होता कि कुछ खास दिखाई देने लग गया।
दृष्टि का अर्थ ये नहीं है कि तुमने बादलों को चीर कर के सूर्य देख लिया। दृष्टि का अर्थ है कि बादल हैं ही नहीं, कहाँ हैं बादल? मात्र खुला आकाश है, और कुछ है नहीं। बात आ रही है समझ में? इसीलिए साधुता या निर्मलता या दृष्टि, विशेष होने का नाम नहीं है; वो और ज़्यादा सहज, सामान्य हो जाने का नाम है। उसका अर्थ है कि तुम पीछे आ गए, तुम केंद्र की तरफ आ गए, पीछे घर की तरफ आ गए। जो पूरी यहाँ व्यवस्था थी, स्वरचित, वो टूटी। कुछ नया नहीं आ गया है।
तुम अपनी नज़र से साधु को तोलते हो न। तुम साधु के सामने जाओगे और उसके सामने बैठे हुए कहोगे, "महाराज/सर, देखिये, मेरी ये-ये समस्याएँ हैं, ये है, और वो चुपचाप बैठा हुआ ध्यान से बातें सुन रहा है तुम्हारी।" तुम्हें लग रहा है उसे कुछ समझ में आ रहा होगा। बात बिलकुल उलटी है, तुम जो कुछ कह रहे हो वो उसके पल्ले ही नहीं पड़ रहा। तुम जिस भाषा में बात कर रहे हो, वो भाषा वो भूल चुका कब की। अब उसे याद ही नहीं है। तुम कह रहे हो, "देखिये, पत्नी है, बच्चा है, बच्चे की ज़िम्मेंदारियाँ हैं," और ये शब्द उसके व्याकरण से बाहर। "ज़िम्मेदारी? इसका अर्थ क्या होता था?" अब वो सर खुजा रहा है; उसको ज़िम्मेदारी का अर्थ याद ही नहीं आ रहा। जिम्मेदारियाँ वो कब की छोड़ आया पीछे। बैठा मुस्कुरा रहा है, "ठीक है, ये कुछ अनाप-शनाप बक रहा है, बक ले।" बको। उसको वास्तव में नहीं समझ में आ रहा।
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Thanks
धन्यवाद आचार्य जी ।
Thanks 🙏🎉
साधु वो जिसकी संगत में स्वयं का दर्शन हो जाये।
😊❤
जिसके समीप दर्शन कर सको। वह साधु है।
43:31- साधु कौन?
45:28- इंद्रियां भीतर वही लेती हैं, जिसके लिए उन्हें प्रेरित किया जाता है।
47:35- दिखाई देना आकस्मिक नहीं है, देखने के लिए मन की रज़ामंदी चाहिए।
50:00 - असली चिकित्सक कौन?
जो आमतौर पर दिखता है। वह दिखना बंद हो जाये। तब समझना कि दर्शन हुए।
Best explanation
प्रणाम आचार्य प्रशांत जी प्रणाम।
Waah dhanyawad acharya ji
नित्य तो वही है जिसका होना कभी रुके न।❤
जो मुझे दिखायी देता है। वह मैं हूँ।
जागरण का ताप ही वृत्तियाँ जला देगा ||
🌺🙏🙏🌺
इतनी सरलता से सब समझने के लिए धन्यवाद्
I love you acharya ji ❤️
दृष्टि निर्मल होने का मतलब ये होता है कि जो दिखाई देता था, वो अब दिखाई देना बंद हो गया। ❤
❤
मात-पिता सुत इस्तरी, आलस बन्धु कानि।साधु दरस को जब चले, ये अटकावै खानि।।
अब ये अजीब बात है। कबीर साधु के गुण गा रहे हैं, और उन्होंने सात ताकतें बता दी हैं जो तुमको साधु से मिलने नहीं देंगी किसी भी हालत में। माता, पिता, बेटा, बीवी, आलस, दोस्त-यार, और तुम्हारी आना-कानी, टाल-मटोल की आदत।❤
चरण स्पर्श, आचार्य जी...🙏🏻🙇🏻
मैनूं कौण पछाणे, हुण मैं हो गई नी कुझ होर
ये तो नहीं कहा न कि पहले से ज़्यादा सुन्दर हो गई; कुछ और हो गई। अब पहचान में ही नहीं आती। वही हूँ, अब पहचान में ही नहीं आती। ये है दृष्टि का निर्मल होना। संसार बदलेगा, तुम भी बदलोगे।❤
साधु तुम्हें दर्शन दे सकता है, पर दृष्टि तुम्हें रखनी है या नहीं रखनी है, ये छूट तो तुम्हें तब भी है। बात समझ रहे हो न? ये ताकत, ये छूट, ये मुक्तता तुमसे कभी नहीं छीनी जा सकती। तुम सहमति न दो अपनी, तो खुद परमात्मा भी तुम्हें मुक्ति नहीं दे सकता। ये तुम्हारे होने का अविभाज्य हिस्सा है। इसीलिए गुरु भी जब भी ये देखता है कि अभी शिष्य किसी भी तरीके से सहमति देने के मन में नहीं है, तो फिर वो एक सीमा के पार कोशिश नहीं करता। वो कहता है, "अभी नहीं। अभी मैं क्या अभी तो परमात्मा भी कुछ नहीं कर सकता।" क्योंकि तुम्हारी इच्छा के बिना तो तुम्हें कुछ दिया नहीं जा सकता।❤
प्रणाम आचार्य जी
हमें खूब संसार दिखाई देता है, चीज़ें ही चीज़ें। स्वस्थ आदमी वो है जिसे कम दिखाई दे। दृष्टि का अर्थ है कि अब दिखाई ही नहीं देता, पहले दिखता था। सुनी है न बुद्ध की वो कहानी कि लोग पूछ रहे हैं कि, "यहाँ से एक लड़की भागी तुम्हारे सामने से?" बुद्ध ने क्या कहा? "दिखनी बंद हो गई। बहुत दिन हुए जब से ये दिखना ही बंद हो गया है कि लड़का है या लड़की है। पहले दिखता था, अब दिखता नहीं।" निर्मल दृष्टि का अर्थ यही है कि अब नहीं दिखता।❤
रिया प्रणाम आचार्य जी 🙏🙏🙏🙏
मैं आपका आभारी हूँ 🙏
Pranam acharya ji
प्रणाम गुरुदेव🙏
pranam Guruvar !
Chikitsak woh jo swasthya dekhein! 🙏
Love you sir 💞
धन्यवाद आचार्य जी
antim lachya vivarni ..........naman
सप्रेम आभार आचार्य 🙏🌹🙏
प्रणाम आचार्य जी
🙏🙏🙏🙏🙏🙏
🙏🙏प्रणाम आचार्य जी🙏🙏🌺🌺🌸🌸🌹🌹🌷🌷
Great post
Awesome
PRONAM Guru ji.
AP sir
🙏🙏
A sheer Coincidence !!! or ? - I m the 1000th person to LIKE this video - hope to listen & comment later
🙏सादर प्रणाम
Nice one
I am grateful to you dear sir 🌼🌈🤲🎤=🔋>>>.
मेरे सबसे प्यारे श्री 💕❤🥺
✴🌟✴
और जो तुम्हें लगातार दिखता ही रहता है, जो तुम्हारे मन में लगातार घूमता ही रहता है, यदि ध्यान के क्षण में वो विलीन हो जाता है, तो इससे यही सिद्ध होता है न कि तुम्हारे मन में जो कुछ घूमता रहता है वो दो कौड़ी का है? साधु वही है, जिसके संपर्क में आने पर तुम्हें तुम्हारी दुनिया दो कौड़ी की दिख जाए, भले ही दो पल को। दो पल के बाद तुम्हें पूरी छूट है। तुम वापस जा सकते हो। और तुम करते भी यही हो, "महाराज, अब आप अपने रास्ते, हम अपने रास्ते।" लेकिन वो जो दो पल हैं, अगर तुम्हारा समय आ गया है, और अगर तुम में ज़रा सा भी संकल्प है, वो दो पल तुम्हें साबित कर देंगे कि सत्य ही है और उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं, और तुम सिर्फ भ्रमों की दुनिया में जी रहे हो, अगर ज़रा तुममें ईमानदारी है। और उस ईमानदारी का कोई विकल्प नहीं।
👍💪🫵👌🙏🙏
Very nice
आकाश मे उडने वाला पक्षी ज़मीन पर रेंगने वाले को
कैसे समझाए कि उडान किसे कहते है ????
दिखना बदले, और जब दिखना बिलकुल बंद हो जाए तो समझिएगा पूर्ण दर्शन हो गया। उस दिन परमात्मा आपको दिखाई दे रहा है। पूर्ण दर्शन हो गया। "अब नहीं, अब ठीक है।" वो वही है, जिसको हमने कहा था, "जब दृष्टि बदलती है, दिखना बदलता है, तो तुम मुझे यूँ न मना पाओगे।" रूप होंगे कुछ और, हमें दिखता कुछ और है। रूप होंगे हज़ार, हमें दिखता लेकिन कुछ और है। अब ये किसी तीसरे को समझ में नहीं आएगा कि आदमी है, और कुत्ता है, यहाँ पर ये चल क्या रहा है। जो है, वो बस आपको दिख रहा है। संसार ही बदल गया है। क्यों है अब आपकी ऐसी छवि, आप किसी तीसरे को समझा नहीं पाएँगे। संसार बदल गया है। आकाश में ऊँचे उड़ने वाला पक्षी, ज़मीन में बसने वाले छोटे से कीड़े को कैसे समझाएगा कि उड़ान माने क्या? संसार बदल गया है। आ रही है बात समझ में? पहले से बेहतर नहीं हो गया है, पहले से कमतर भी नहीं हो गया है; कुछ और ही हो गया है।
आचार्य जी के जीवन की झलकियाँ पाने, व आचार्य जी द्वारा स्वयं चयनित बोध-
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तुम साधु के सामने खड़े हो, तुम तो अपनी समस्याएँ ले कर के आए हो, तुम पूरा संसार ले कर के आए हो, वो संसार को देख ही नहीं रहा। अभी भी उसको नहीं दिख रहा। तुम दावा कर रहे हो अपने विषय में कि मेरा संसार, और इस संसार की ये सब समस्याएँ। वो मुस्कुरा भर रहा है क्योंकि यकीन जानो तुम जो कुछ कह रहे हो, वो वास्तव में उसको नहीं दिख रहा है। तुम कह रहे हो, "मैं परेशान हूँ," वो देख रहा है तुम परमात्मा हो। वही साधु है। चिकित्सक वो नहीं है जो तुम्हें बीमार देखे; चिकित्सक वो है जो जब भी तुम्हें देखे तो तुममें स्वास्थ्य देखे। साधु वो नहीं है जो देखे तुम्हें और कहे, "ये संसारी आ गया"; साधु वो है जो देखे तुम्हें और कहे, "सत्य ही है सामने।
हमें बहुत दिखाई देता है। उदाहरण दीजिये हमें क्या-क्या दिखाई देता है? हमें भविष्य दिखाई देता है-कमाल करते हैं! दृष्टि निर्मल होने का ये अर्थ नहीं होता कि तुम त्रिकालदर्शी हो गए। तुम कुछ खास देखने लग गए। दृष्टि निर्मल होने का अर्थ होता है कि वो जो आम आदमी को भी दिखता है, तुम्हें अब वो दिखता नहीं। तुम्हें दिखता ही नहीं, उन्हें खतरे ही खतरे नज़र आ रहे हैं। "बेटा तेरा क्या होगा? मुझे तेरी बड़ी चिंता है।" उन्हें साँप, बिच्छु, अजगर दिखाई दे रहे हैं तुम्हारी ओर आते हुए, और तुम कह रहे हो, "हैं कहाँ? हमें तो दिखाई ही नहीं देते। हमें दिखते नहीं, आपको हमारी बड़ी चिंता है कि हमारा क्या होगा। है कहाँ खतरा?" आ रही है बात समझ में?
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अगर तुम इस तल पर भी कल्पना करना चाहते हो-कल्पना पूरी नहीं पड़ेगी पर अगर करना चाहते हो-तो ऐसे कर सकते हो: इंद्रियाँ भीतर वही सब कुछ लेती हैं जो उनको लेने के लिए प्रेरित किया जाता है। अगर सौ इनपुट हैं जो तुम्हें इस वक्त मिल रहे हैं तो उसमें से एक प्रतिशत या दो प्रतिशत ही है जो उसमें से भीतर जाता है, बाकी इंद्रियों की पूरी ट्रेनिंग है कि उसको छोड़ ही दिया जाए, रिजेक्ट (अस्वीकार), फ़िल्टर आउट कर (छान) दिया जाए। जब मन बदलता है ना, तो भीतर क्या जा रहा है वो बदलने लगता है। तुम पहले जिसको अन्दर आने ही नहीं देते थे, अब उसके लिए द्वार खुल जाते हैं। और पहले जो बेरोक-टोक अंदर घुसता था अब उसके सामने प्रतिरोध होता है, "तू अन्दर नहीं जाएगा।"
एक जगह पर नानक ने कहा कि, "तुम कितनी कोशिश कर लो कभी नहीं जान पाओगे कि योगी के, फ़कीर के मन में क्या चलता है। कितनी भी कोशिश कर लो कभी जान नहीं पाओगे।" वो संसार ही दूसरा है। अगर तुमको-उसको एक ही वस्तु दिख रही होती, तो बात भी की जा सकती थी। तुम पूछते, वो क्या है? वो कहते, "देखो, मुझे तो ऐसा दिखता है," और तुम कहते, "नहीं मुझे तो ऐसा दिखता है।" फिर कुछ वाद, तर्क-वितर्क हो सकता था। जो उसको दिखता है, वो तुमको दिखता ही नहीं; जो तुम्हें दिखता है, वो उसको दिखता ही नहीं। उसको लगातार आकाश दिखाई देता है, तुम कहते हो "आकाश क्या?" उसको सब खाली, साफ, स्वच्छ, निर्मल लगता है, तुम कहते हो, "शून्य कहाँ, कैसा?" और तुम्हें चारों तरफ क्या दिखाई देता है? पदार्थ, वस्तुएँ। कहेगा, "हैं कहाँ? हमें तो नहीं दिखते। हमें दिखते ही नहीं।"
साधु उसको मत मान लेना जिसके पास कुछ विशेष है, साधु वो है जिसके पास वो भी नहीं है जो तुम्हारे पास है। समझो बात को। और फिर यही बात उसकी बाहरी व्यवस्था में भी दिखाई देती है। भीतर से भी वो खाली है, उसके पास वो सब कुछ भी नहीं जो तुम्हारे पास है। तुम्हारे पास क्या है भीतर? तुम्हारे खौफ़ है, तुम्हारे संबंध हैं, तुम्हारे मोह हैं, तुम्हारा आकर्षण है, तुम्हारी आसक्तियाँ हैं। वो भीतर से खाली है इन सब से, और चूँकि वो भीतर से खाली है इन सबसे, इसीलिए वो बाहर से भी उन सब चीज़ों से खाली हो जाता है जो तुम्हारे पास है। क्या है तुम्हारे पास? इधर-उधर की चीज़ें, झाडू, पोछा, आटा, नमक, दाल, चावल, मकान, बीवी, गाड़ी, बंगला। वो बाहर से भी इन सबसे खाली है।
🙏🙏🙏🙇🙇🙇🙇
तुम जो उपचार खोजने आए हो वो वास्तव में साधु के पास है ही नहीं; उसके पास तो मौन है। हाँ, मुझे उनको बहला-फुसला के रखना था तो मैंने उनसे कहा, "बैठिये-बैठिये, गठिया ही डिस्कस (बातचीत) कर रहे हैं।" अब वो बैठती तो इस लालच में कि घुटने का दर्द ठीक हो जाएगा, मिल उनको कुछ और जाता है। तो ये करा जा सकता था-खैर, हुआ नहीं। समझ रहे हो? सारी बीमारियाँ नकली हैं।
जो नकली है, उसी का नाम बीमारी है।
तुम पूछो तो सही, तुम माँगो तो सही। तुम अपनी रज़ामंदी तो दो। तुम सुनने के लिए तैयार कहाँ हो? बात समझ में आ रही है? जिस दिन तुम उपस्थित होगे, जिस दिन तुम तैयार होगे, उस दिन देखो। उस दिन बात ही दूसरी होगी। तुम्हारे सवाल में, तुम्हारी पुकार में जब जान होगी तो फिर जब उत्तर भी आएगा, तो वो ऐसा आएगा कि नया, अनूठा, जो तुमने पहले कभी सुना ही नहीं होगा। और तुम कहोगे, "अरे! आज सर ने नई बात बोली।" सर ने नई बात नहीं बोल दी है; आज तुम तैयार हो, आज तुम प्रस्तुत हो, इसीलिए उस नई बात को आने का मौका मिला। वो नई बात पहले भी बोली जा सकती थी, पर कैसे बोलते? तुम तैयार कहाँ थे सुनने के लिए? तुम्हें समझ में ही नहीं आती। तुम्हारी रजामंदी, तुम्हारी अपनी तैयारी, तुम्हारी स्वेच्छा बड़े महत्व की है।
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अब, कैसे जानें कि दृष्टि साफ है, साफ दिखाई दे रहा है? साफ दिखाई देना कुछ दिखाई देना नहीं है। हमें तो यूँ ही बहुत ज़्यादा दिखाई देता रहता है। हमें तो बहुत ज़्यादा दिखाई देता रहता है, विक्षेप और किसको कहते हैं? हम समझना चाह रहे हैं दृष्टि क्या है। विक्षेप किसे कहते हैं? जो नहीं भी है वो दिखाई दे रहा है। मृत्यु नहीं है, सौ तरह के और खतरे और भय नहीं हैं पर दिखाई दे रहे हैं। यही तो विक्षेप है, और क्या है विक्षेप? दृष्टि निर्मल होने का ये अर्थ नहीं होता कि कुछ खास दिखाई देने लग गया।
दृष्टि का अर्थ ये नहीं है कि तुमने बादलों को चीर कर के सूर्य देख लिया। दृष्टि का अर्थ है कि बादल हैं ही नहीं, कहाँ हैं बादल? मात्र खुला आकाश है, और कुछ है नहीं। बात आ रही है समझ में? इसीलिए साधुता या निर्मलता या दृष्टि, विशेष होने का नाम नहीं है; वो और ज़्यादा सहज, सामान्य हो जाने का नाम है। उसका अर्थ है कि तुम पीछे आ गए, तुम केंद्र की तरफ आ गए, पीछे घर की तरफ आ गए। जो पूरी यहाँ व्यवस्था थी, स्वरचित, वो टूटी। कुछ नया नहीं आ गया है।
तुम अपनी नज़र से साधु को तोलते हो न। तुम साधु के सामने जाओगे और उसके सामने बैठे हुए कहोगे, "महाराज/सर, देखिये, मेरी ये-ये समस्याएँ हैं, ये है, और वो चुपचाप बैठा हुआ ध्यान से बातें सुन रहा है तुम्हारी।" तुम्हें लग रहा है उसे कुछ समझ में आ रहा होगा। बात बिलकुल उलटी है, तुम जो कुछ कह रहे हो वो उसके पल्ले ही नहीं पड़ रहा। तुम जिस भाषा में बात कर रहे हो, वो भाषा वो भूल चुका कब की। अब उसे याद ही नहीं है। तुम कह रहे हो, "देखिये, पत्नी है, बच्चा है, बच्चे की ज़िम्मेंदारियाँ हैं," और ये शब्द उसके व्याकरण से बाहर। "ज़िम्मेदारी? इसका अर्थ क्या होता था?" अब वो सर खुजा रहा है; उसको ज़िम्मेदारी का अर्थ याद ही नहीं आ रहा। जिम्मेदारियाँ वो कब की छोड़ आया पीछे। बैठा मुस्कुरा रहा है, "ठीक है, ये कुछ अनाप-शनाप बक रहा है, बक ले।" बको। उसको वास्तव में नहीं समझ में आ रहा।
प्रणाम 🙏🏼
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