MARUDHAR RI RASDHAR (मरूधर री रसधार)
MARUDHAR RI RASDHAR (मरूधर री रसधार)
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गुरुदेव श्री मोहनपुरी जी की स्तुति | मोहन मठ वाला नाम रूपाला | तपोभूमि तारातरा Kalu Singh Gangasara
🚩 मरूधर री रसधार 🚩
यूट्यूब चैनल प्रस्तुत करते हैं :-
"श्री मोहनाष्टक"
मोहन मठ वाला नाम रूपाला
भजे भूपाला नित माला
तपोभूमि तारातरा के महान तपस्वी, मालाणी के महादेव, प्रतिपल स्मरणीय, गुरुदेव श्री श्री 1008 श्री मोहन पूरी जी महाराज की महिमा ।
◆ रचना एवं स्वर - कालूसिंह जी गंगासरा
◆ एल्बम - तपोभूमि तारातरा
◆ संगीत निर्देशन एवं रेकॉर्डिंग - श्री किशोर जी भट्ट
( श्री नीलकंठ ऑडियो आर्ट, राजकोट, गुजरात )
◆ प्रस्तुति - मरूधर री रसधार【TH-cam CHANNEL】
आदि नारायण श्री हरि विष्णु पगल्या,कपालेश्वर भगवान शिव,आदि शक्ति हिंगलाज स्वरूपा मां वांकल के देवालय, भागीरथी समान पवित्र सूंईया धाम,पाण्डवों की तपोस्थली,संतो,सूरमाओं व महान् तपस्वियों की कर्मस्थली,सूराचन्द के शासक सोनगिरा चौहान राव हरपालदेव (राव हापा )के हापा कोट या हापा मेड़ी से सुशौभित,किसी जमाने में जिसका नाम चौथापुर पाटण नगरी था। रावळ मल्लिनाथ जी के वंशज खेतसिंहोत राठौड़ शाखा के जागीरदारों की नगरी, वर्तमान बाड़मेर जिले की सीमान्त तहसील चोहटन । जहाँ दसनामी साधु श्री डुँगरपुरी जी महाराज का प्राचीन मठ स्थापित है । जिन्हें डुंगरा परमेश्वरा के नाम से जाना जाता है।ऐसे महान् तत्वदृष्टी युग पुरूष श्री डूँगरपुरी जी महाराज विक्रम संवत 1792 में हुए तथ 71 वर्ष तक गादी पर रहे ।उनके शिष्य हुए हरदत्तपुरी जी, हरदत्तपुरी जी के शिष्य जुगतपुरी जी और जुगतपुरी जी के शिष्य श्री जेतपुरी जी जिन्होंने तारातरा मठ की स्थापना की । लगभग विक्रम संवत 1880 - 85 रहा होगा।
श्री जेतपुरी जी चोहटन से चलकर वर्तमान तारातरा के समीप एक पहाड़ की गुफा व एकान्त स्थान देख कर सधनारत हो ईश्वर भजन चिन्तन में लग गये । कहते है कि उक्त स्थान पर पहले कोई गोमऋषि नाम के महात्मा भजन साधन करते हुए शान्त हो गये थे। तो थोड़े समय बाद श्री जेतपुरी जी के चिन्तन में वे दृष्य रूप से आने लगे और बताया की "यह जगह तो मेरी है आप तो पिछले कई जन्मों की धूणी छोड़ी कर आये हो वह जगह कहीं और है और साथ ही उक्त स्थान के संकेत भी दिये । तब श्री जेतपुरी जी महाराज ने पूछताछ करके पता लगाया और जहाँ अब तारातरा मठ अवस्थित है वहाँ गाँव के गायों के बाड़े थे।व एक छोटा खेजड़ी का पेड़ था।गोमऋषि द्वारा मिले संकेतों के आधार पर स्वामी जी गाँव में पधारे व मौजिज लौगों की उपस्थिती में उस खेजड़ी के पेड़ से दस हाथ पश्चिम की ओर खुदाई करवाई तो वहाँ धूणी की राख, प्रज्वलित अग्नि,त्रिशूल,चिमटा,धूंपिया इत्यादी मिले।जो आज भी मौजूद है, अलौकिक चमत्त्कार देख कर मौजिज लौगों ने संत का सामेळा बधावा किया।तथा वहीं मठ की स्थापना की ।कालान्तर में तत्कालीन जागीरदारी राज व्यवस्था व दसनामी सन्यासी परम्परानुसार नगाड़ा,तुरही,झोळी के गाँव आदी प्रदान कर महंत गादी की पदवी दी गई।
श्री जेतपुरी जी महाराज से लेकर श्री श्यामपुरी जी,श्री विजयपुरी जी, श्री तेजपुरी जी, श्री धर्मपुरी जी,श्री मोहनपुरी जी तथा वर्तमान गादीपती श्री प्रताप पुरी जी महाराज सातवीं पीढी है।
श्री जेतपुरी जी महाराज के विषय में मेरे दादोसा स्वर्गीय हिंगोळसिंह जी चौहान ठिकाना गंगासरा ने काव्य रूप में इस प्रकार कहा है :-
"जैता जोगी आद जुग का,आज काल का नहीं।
लंका लूंटी रामचन्द्र जब,जैता जोगी वहीं॥
"तारातरे तपेसरी,गोरख जेहड़ो ज्ञान।
गल मीठी गुरूदेव री,शरण "हिंगोळो"मान॥
मठ की चौथी पीढी के महंत श्री तेज पुरी जी महाराज मेरे दादोसा के सद् गुरू थे। और तब से हमारे परिवार का लगाव इस पवित्र ऋषि आश्रम से है ।
गुरू महाराज श्री मोहनपुरी जी बताते थे कि "ठाकुर हिंगोळसिंह जी की उनके गुरू श्री तेजपुरी जी के प्रती इतनी श्रद्धा थी कि वे स्वामी जी के सदैव चरणों में ही विराजते थे। रात्री शयन के समय स्वामी जी के ढोलिए के नीचे दरी लेके सोते थे।भादवा व माघ सुदी बीज को सदैव तारातरा आकर गुरू के सानिध्य में उपवास खोलते थे।और अंत समय में भी जब श्री तेजपुरी जी महाराज भादवा की दूज को समाधिस्थ हुए तब प्रण करके गये की आने वाले माघ महिने की दूज को आप से आकर मिलुंगा । चलना तो साथ में था पर एक बाई के विवाह की जिम्मेदारी ली हुई है।और वही हुआ ,माघ सुदी दूज को बरात विदा करके गाँव के मौजीज लौगों को बुलाकर अपने प्रण के बारे में बताया और इस पार्थिव शरीर को छोड़ स्वधाम गये।"
महाराज श्री धर्मपुरी जी और श्री मोहन पुरी जी के बारे में यहाँ का जड़ चेतन तक परीचित है । मेहलू की घटना तो यही साबित करती है कि :-
"परमारथ रे कारणे संतन धारी देह।"
स्वंय ने इस नश्वर कलेवर को त्याग दिया पर भाविक जन को संकट से उबारा।
मालाणी के महादेव श्री मोहन पुरी जी,असल फकीरी व्याप्त,पुर्ण योगी,वचन सिद्ध,आभा मण्डल से प्रकाशित चेहरा,कभी बाल स्वभाव,तो कभी मौनी ध्यानी,कभी भयंकर उग्र,कोई थाह नहीं पा सका उस परम विभूती की।और ऐसे ही उनके विद्वान शिष्य स्वामी प्रतापपुरी जी जिन्हें स्वयं ही महंत गादी पे आसीन करके जीवनमुक्त होते हुए भी मुक्त होकर भादवा सुदी सप्तमी सोमवार संवत 2072 के दिन स्थूल शरीर का स्वेच्छा से परित्याग करते हुए समाधिस्थ हुए ।
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धन्यवाद || THANK YOU
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